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ब्लैक मेलिंग पर चलते है बड़े बड़े टीवी चैनेल

आज के समय में खबर दिखाने से बात नहीं बनती है माल कितना ब्लैकमेल करके दे सकते हो | इस आधार पर नौकरी मिलने लगी है | कल डेल्ही से एक सज्जन का फ़ोन आया, बोले हम  आपकी नौकरी का जुगाड़ मुंबई में कर देगे ,आप ये बताओ कितना माल मुंबई से काम के दे सकते हो |  ११ साल की पत्रकारिता में काफी संपर्क बनाया होगा | आपको सारे सुख की अनभूति मिलने लगेगी |  


भड़ास ४ मीडिया .कॉम पर खबर पढ़ी , यशवंत सिंह पर  जनता टीवी ने  पच्चीस लाख का दावा ठोक  दिया है | फिर आज कुमार सौवीर की  खबर भड़ास ४ मीडिया .कॉम पर पढ़ी तो थोडा सा गुसा आया  | गुस्सा उन लोगो पर आता है जो कुमार सौवीर जैसे पत्रकारों को खरीदने की नापाक कोशिश करते है |  मै पूरी खबर  भडास ४ मीडिया डाट से साभार  लेकर जनता टीवी के   गुरबिंदर सिंह की लगा रहा हु जरा आप भी पढ़े | 

खबर दिखाना नहीं बल्कि ब्‍लैकमेलिंग करना चाहता है जनता टीवी--

तो गुरबिंदर सिंह को अब पचीस लाख रुपये चाहिए। वह भी मानहानि के मुआवजे के तौर पर। उन्‍हें लगता है कि भड़ास4मीडिया ने उनके सम्‍मान की अट्टालिका को ढहा दिया है और अब उसके पुनर्निर्माण पर गुरबिंदर सिंह के हिसाब से पचीस लाख रुपयों का खर्चा आयेगा। अब पता नहीं कि इस रकम को पाने का ख्‍वाब देख रहे गुरबिंदर सिंह सपने में मिलने वाली इस रकम का क्‍या करेंगे।
मसलन, अपनी तथाकथित इज्‍जत किसी ठेले-कबाड़ीवाले से वापस खरीदेंगे या इसे अपने उस बिजनेस में लगा देंगे जहां से वे अपनी इज्‍जत गंवाने के बाद अपनी इसी शैली में रकम हथियाते हैं और फिर इज्‍जत गंवाकर उसके पुनर्निर्माण के लिए दूसरों से पैसा उगाहते हैं। यानी, इधर इज्‍जत गई, रकम आयी। रकम आयी तो इज्‍जत गई। इज्‍जत की मीनार बनाने-ढहाने का यह सनातन धर्म-क्रम लगातार चलाये रखने में ही व्‍यवसाय खोजते रहने वाले गुरबिंदर सिंह जैसों के लिए क्‍या आपको नहीं लगता कि यह डिमांड बहुत कम है। लेकिन ऐसे लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता। जैसे भी, जहां से भी, जितनी भी और जब भी रकम मिले, खींच लेने का हौसला रखते हैं यह लोग। ईमानदारी का चोला इस तरह खुद-ब-खुद उनके कंधे पर आ ही जाता है। लेकिन अब उन लोगों को कैसे चुप कराया जाए जो उनकी हकीकत से वाकिफ हैं।
मैं जानता हूं गुरबिंदर सिंह को। जनता टीवी में इस शख्‍स को भले ही वाइस प्रेसीडेंट कहा जाता हो, लेकिन यह आदमी है पत्रकारिता के नाम पर पूरा का पूरा दल्‍ला। पैसा कमाने के लिए किसी भी स्‍तर तक नीचे झुक जाने वाला। ऐसे लोगों को सिर्फ पैसा चाहिए। माध्‍यम चाहे जो हो, उससे गुरेज नहीं। बहुत पहले एक शेर सुना था:-
सौ जूतों से कम रूतबा गालिब नहीं होता,
इज्‍जत वो खजाना है, जो कभी कम नहीं होता।
यह शेर मुकम्‍मल तौर पर गुरबिंदर सिंह पर सटीक बैठता है। पैसा ही गुरबिंदर सिंह का धर्म है, माई-बाप है और पैसों के सामने इज्‍जत-आबरू के तनिक भी मायने नहीं। दूसरों के सामने खुद को एक समझदार और जिम्‍मेदार पत्रकार दिखाने-बताने का शौक रखने वाला यह शख्‍स अपने इस शौक का लबादा जल्‍दी ही उतार कर अपनी करतूतों-ख्‍वाहिशों का खुलासा सामने वाले पर आखिरकार कर ही देता है।
मैं मिल चुका हूं गुरबिंदर सिंह से। कोई पांच महीना पहले की बात है। महुआ न्‍यूज में नये घुसे बदमिजाज, बदतमीज, बेअंदाज तुर्कों की करतूतों-कारगुजारियों से मैं तंग आ चुका था। वहां क्‍या–क्‍या हुआ, इस पर फिर कभी चर्चा करूंगा, लेकिन अपने जीवन में दूसरी बार अपने आवेग-आवेश को मैंने बमुश्किल नियंत्रित किया और महुआ न्‍यूज को इस्‍तीफा थमाकर बेरोजगारी का रास्‍ता पकड़ लिया। इसके पहले के मेरे ऐसे सारे फैसलों के चलते प्रभावित मठाधीशों को मैं छठी का दूध याद दिला चुका हूं। हां, हां, कुटम्‍मस तक कर चुका हूं ऐसे लोगों की।
दरअसल मेरे जैसे लोग वेतनभोगी नहीं, बल्कि वेतनजीवी होते हैं। दो जून की रोटी, पारिवारिक दायित्‍वों का निर्वहन, कालेज में पढ़ते बच्‍चों के प्रति कर्तव्‍य, अनिवार्य देनदारियां और कभी-कभार की दारू के चलते महीने तीसरे हफ्ते से ही बजट ठीक वैसे ही कुलबुलाना शुरू कर देता है, जैसे भूख के दौरान आंतें। नौकरी के लिए हम अभिशप्‍त होते हैं। वे लोग तो खासतौर पर, जो दारू के मामले में परजीवी होने के बजाय खुद खरीद कर पीने में गर्व महसूस करते हैं। तो, इधर महुआ न्‍यूज से इस्‍तीफा दिया और उधर दूसरी नौकरी की खोज शुरू हो गयी। एक मित्र ने सलाह दी कि जनता टीवी वाले यूपी लॉंच करना चाहते हैं। मालिक हैं गुरबिंदर सिंह। नम्‍बर मिला तो फोन मिला दिया। गुरबिंदर सिंह ने ढाई बजे का वक्‍त दिया। नोएडा से मैट्रो पकड़ी। डिब्‍बे में मोबाइल इयर-फोन कान पर लगाये गाने सुनती लड़कियों में अपनी बेटियों को खोजते-देखते मैं जनता टीवी के दफ्तर पहुंच गया।
ऑफिस में भयानक बदबू थी। पता चला कि पिछले तीन दिन से पानी की मोटर खराब है और कई कर्मचारियों का पेट भी। करीब डेढ़ घंटे प्रतीक्षा की, फिर एसएमएस किया। कुछ देर बाद ही बुलावा आ गया। कांफ्रेंस रूम जैसे कमरे में ऑफिस ब्‍वाय ने मुझे बिठा दिया। बीस मिनट बाद एक लम्‍बा-गठीला युवक मेरे सामने था। तपाक से हाथ बढ़ाकर बोला:- मैं गुरबिंदर सिंह।
बात शुरू हुई। यूपी पर, यहां की राजनीति पर, प्रशासनिक हालत पर, नये चैनल की सम्‍भावनाओं पर, खबरों पर। गुरबिंदर का अंदाज जिज्ञासु था। मुझे अच्‍छा लगा। मैं भी बोला और खूब बोला। सवाल-जवाब हुए। कई बार उसका मोबाइल बजा और हर बार उसने संक्षिप्‍त सा जवाब दिया कि:- बाद में फोन करूंगा, अभी मीटिंग में हूं।
लेकिन यह दौर ज्‍यादा लम्‍बा नहीं चल पाया और गुरूविंदर आखिर खुल ही गया। बोला :- अगर आपको कोई धमाकेदार खबर मिले तो क्‍या करेंगे।
मैंने सहजता से जवाब दिया :- खेलेंगे उसे, जमकर खेलेंगे।
गुरबिंदर सिंह :- लेकिन अगर कोई ऐसी खबर मिले जिसमें कई मंत्री-सांसद-विधायक वगैरह की जेल जाने की नौबत हो, तब क्‍या करेंगे।
मैंने कहा :- उसे तो और भी बढि़या खेला जाएगा। ऐसा खेलेंगे कि धमाल मच जाए।
लेकिन उससे क्‍या होगा, गुरबिंदर ने सवाल उछाला।
मैंने कहा कि जब खबरों पर हम धारदार रहेंगे तभी तो चैनल को पसंद किया जाएगा।
लेकिन ऐसी खबरों को इनकैश भी तो किया जा सकता है :- गुरबिंदर सिंह के इस सवालनुमा जवाब पर मैं स्‍तब्‍ध रह गया।
लेकिन उसमें भी मैंने सकारात्‍मकता टटोलते हुए जवाब दिया :- चैनल का दिखना जरूरी है। चैनल ही नहीं दिखा तो बिकेगा कैसे।
लेकिन अगर माल नहीं आया तो चैनल चलाने का क्‍या फायदा। चैनल तो हम मुनाफे के लिए ही तो शुरू करना चाहते हैं यूपी में। लखनऊ से कई लोग मुझसे मिले हैं। उनका ऑफर है कि मैं उन्‍हें वहां खेलने दूं। इसके बदले में वे मुझे मोटी रकम देने को तैयार हैं। स्‍टाफ का खर्च भी वे ही उठाएंगे। खैर, आप ऐसा कीजिए कि वहां मोटे पॉलिटिकल या ब्‍यूरोक्रेटिक आसामी का मसाला खोजिये ताकि उन्‍हें निचोड़ा जा सके। हम आपको हिस्‍सा भी देंगे।
अब शक की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। फैसलाकुन मोड़ पर मैंने खुद को पहुंचाया और कुर्सी से खड़े होकर आखिरकार कह ही दिया :- तो इससे बेहतर है कि आप यहां जीबी रोड या सोनागाछी जैसा धंधा शुरू कर दें। यह सब मुझसे नहीं होगा। इतना कह कर मैं पीछे मुड़ा और वापस लौटने को हुआ ही था कि गुरबिंदर सिंह ने बेशर्मी की एक और सीमा पार करते हुए मुझे अपना विजिटिंग कार्ड दिया और बोला :- भविष्‍य में अगर मैं कभी उसके आफर पर तैयार होऊं, तो उसे बता दूं। मैंने कार्ड पर एक नजर डाली। लिखा था गुरबिंदर सिंह, वाइस प्रेसीडेंट।
सीढियों पर मैंने वह कार्ड मसल कर फेंक दिया। मैं तब भी जानता था और आज भी जानता हूं कि उस कार्ड की मुझे कभी भी जरूरत नहीं पड़ेगी। और अकेले मैं ही क्‍यों, पत्रकारिता में खुद्दारी रखने वाले ज्‍यादातर लोगों को भी गुरबिंदर सिंह जैसों के विजिटिंग कार्ड की जरूरत कभी नहीं पड़ेगी। हां, हाल ही मुझे पता चला कि लखनऊ में जनता टीवी ने फ्रेंचाइजी के तौर पर काम शुरू किया है। इसके लिए गुरबिंदर सिंह को हर महीने एक मोटी रकम पहुंचती है। यहां काम कर रहे लोग जनता टीवी के नहीं, बल्कि फ्रेंचाइजी हासिल करने वाले के कर्मचारी हैं।
कुमार सौवीर
वरिष्‍ठ पत्रकार, लखनऊ