Sakshatkar.com- Filmidata.com - Sakshatkar.org

दर्शक सिर्फ कंज्यूमर नहीं




इतना सब कुछ करते रहने कि ताकत आप कहां से जुटाते है. वह भी लेखन की दुनिया में ?

मैं तो कुछ भी नही कर रहा हूं. लिखने के साथ-साथ जो चीजें छूट गई हैं, उनकी भी तो सोचिये. फोटोग्राफी छूट गई है. एक्टिंग छूट गया है. इनके लिये भी समय निकालूंगा. अपनी फ़िल्म खड़ी करनी है, बतौर निर्देशक. उसके लिये भी तैयारी कर रहा हूं. सोचना भी तो एक बहुत बड़ा काम है. उससे बहुत सारे नये विचार या आईडियाज सामने आते हैं. स्पेनी फ़िल्मकार लुई बुनुएल तो कहता था कि एक आदमी को 24 घंटे में से 22 घंटे लिखने के लिये, सोचने के लिये और कल्पनाएं करने के लिये मिलने चाहिये. मजदूर तो बिना थके या रुके लगातार काम करते रहते हैं.

भोजपुरी फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़ने के पीछे जो वजह है, हमारे पाठकों को उसके बारे बताईये.


देखिये, हर कलाकार की एक अपनी ज़मीन होती है... उसकी मिट्टी, उसका प्रदेश, उसका एक खास कल्चर होता है. जिसको संबोधित करते हुए ही वह कुछ कहता या करता है. और जैसे- जैसे आप अपने काम में, हुनर में रमते चले जाते हैं, आपका वह काम किसी एक इलाके के लिमिटेशन से, उससे मुक्त होता जाता है. यह हर क्रिएटिव आदमी के साथ होता है. और फिर लेखन तो अपने नेचर से ही एक क्रिएटिव काम है. भोजपुरी सिनेमा से मेरा जुड़ाव तो इसी वजह से हुआ कि इन फ़िल्मों के माध्यम से अपने समाज, अपनी भाषा, अपने कल्चर को सामने लाया जाये. और फिर उसे टाईम और स्पेस कि लिमिटेशन से बाहर निकाला जाये. मेरी सभी फ़िल्मों में... अगर आपने गौर किया हो तो ये रिफ़्लेक्शन आपको मिलेगा.
आप टेलीविजन सीरियल के लिये भी लगातार लिख रहे हैं, हिन्दी फ़िल्मों के लिये भी काम किया और कर रहे हैं. जाहिर है ये सभी अलग अलग माध्यम और भाषा कि चीजें हैं. इनकी तुलना आप कैसे करेंगे.
आपके इन सवालों के जवाब के लिये तो मुझे एक पूरी किताब लिखनी पड़ेगी. भोजपुरी और हिन्दी अपनी भाषा और काफी हद तक अपने कल्चर की वजह से अलग अलग तो हैं लेकिन इनके जो दर्शक हैं उनकी प्रोब्लम्स, उनकी समस्याएं तो एक ही हैं. लेकिन भोजपुरी फ़िल्म इंडस्ट्री की समस्या ये है कि वो अपने दर्शको को सिर्फ़ ग्राहक समझता है. जिसे हम उपभोक्ता कहते हैं. ये गलत है. ये किसी भी इंडस्ट्री के लिये खतरनाक है. दर्शक किसी भी देश, समाज या भाषा से आये वो सबसे पहले वहां का एक नागरिक होता है. उसकी अपनी कुछ समस्याएं होती हैं. उसके देश-प्रदेश कि कुछ समस्याएं होती हैं. वो सिर्फ कन्ज्यूमर नहीं होता है. हिन्दी सिनेमा अब इस सोच से मुक्त हो रहा है. लेकिन भोजपुरी ! मैं तो कभी कभी यह सोचकर ही बहुत परेशान हो जाता हूं कि भोजपुरी सिनेमा में एक भी ऐसी फ़िल्म नही है जो राष्ट्रीय स्तर पर स्टैंड करे. ऐसा क्यूं है ! आपको हैरानी होगी, यहां आज भी बहुत कम ऐसे एक्टर्स होंगे जो फ़िल्म साईन करने से पहले स्क्रिप्ट कि डिमांड करते होंगे. सेट पर शूट के समय डायलॉग में तब्दीली का कोई मतलब आपको समझ में आता है ! लेकिन ये होता है. और ये सब ऐसे दौर में हो रहा है जब बिहार और उत्तरप्रदेश में ही नही, पूरे भारत में “रंद दे बसंती” और “ब्लैक” जैसी फ़िल्में पसंद की जा रही हैं. “लगान” का जो बैकड्रॉप है, वो भले ही इतिहास है लेकिन जो कल्चर है, जो बोली है, वो तो गांव-गंवई के है ना. लेकिन क्या बेजोड़ कहानी थी. उसकी पटकथा बहुत उम्दा है.
तो आप ये कहना चाहते हैं कि भोजपुरी फ़िल्मों में अच्छी पटकथा का अभाव है ?

बिल्कुल है. हिन्दी में भी है. 80 फ़ीसद से ज्यादा फ़िल्में फ़्लॉप हो रही हैं. और फिर हिट- फ़्लॉप को छोड़ भी दें. क्युंकि आप अपनी फ़िल्म को एक अच्छी फ़िल्म होने का दावा तो कर सकते हैं, हिट- फ़्लॉप कि भविष्यवाणी नही कर सकते. मैं बात कर रहा हूं, स्क्रिप्ट ओरिएंटेड फ़िल्मों की. सिनेमा तकनीकी रुप से विकसित तो हो रहा लेकिन दर्शक तकनीक देखने तो थियेटर जाता नहीं है. वह जाता है एक अच्छी कहानी कि खोज में. भोजपुरी में दिखाईये मुझे एक भी फ़िल्म, जो स्क्रिप्ट ओरिएंटेड हो. माफ़ी चाहूंगा, लेकिन भोजपुरी सिनेमा फ़ूहड़ता के चंगुल से निकल नही पा रहा है. बहुत बड़े स्तर पर बदलाव की ज़रुरत है. एकाध लोग ही इसके लिये कोशिश करते नजर आ रहे हैं. ऐसा तो नही है कि एक बोली या भाषा के रुप में भोजपुरी की बुनियाद कमजोर है. भिखारी ठाकुर अगर आपको याद नहीं आते हों तो और बात है. तो आखिर फ़िल्में अपनी जड़ों से इतनी उखड़ी हुई क्यूं हैं.
लेकिन दर्शकों कि पसंद और नापसंद का सवाल भी तो है

यह कह कर कि दर्शक यही पसंद करते हैं, पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता. दर्शक पेट से ही पसंद या नापसंद की बात सीखकर पैदा नही होता. इंट्रेस्ट बनानी पड़ती है. एक ईमानदार लेखक या निर्देशक अपना जो दर्शकवर्ग तैयार करता है, वह दर्शक समाज का हिस्सा होता है. उसकी अपनी एक समझ होती है या हम उसकी समझ को और मजबूत बनाते चलते है. डालिये न आइटम नंबर जितना डालना है, लेकिन इतना तो खयाल रखिये कि फ़िल्मों के गाने कहानी को आगे बढ़ा रहे हैं या नहीं. वो कहानी या नैरेटिव का हिस्सा हैं भी या नही. “गंगाजल” का आईटम डांस अगर आप गौर से देखें तो सब पता चल जायेगा. मैंने तो टीवी सीरियल्स के गाने भी लिखे है. एकता कपूर के लिये “सर्व गुण संपन्न” का गाना हाल ही में लिखा हूं. “भाग्यविधाता” के गाने मैंने लिखे. मैं हिट या फ्लॉप को सोच कर नही लिखता. साहित्य में तो कहा जाता है कि जब अभिव्यक्ति ईमानदार होती है तो देश-दुनिया के किसी न किसी हिस्से में पाठक मिल ही जाता है.
कहीं यह सब आप इसलिये तो नही कह रहे कि अब आपको मेनस्ट्रीम टीवी इडंस्ट्री में काफी काम मिल रहा है, हिन्दी फ़िल्म भी शुरु करने वाले हैं..

ऐसा बिल्कुल नही है. हिन्दी के बड़े- बड़े स्टार्स और मशहूर हस्तियां भोजपुरी इंडस्ट्री में आकर काम कर रहे हैं. मामला कुछ और है. मैं अगर आपकी शर्तों पर काम करने को तैयार हूं, तो आप क्यूं नही हैं. भोजपुरी को मैं विकसित होते देखना चाहता हूं. “ए वेडनसडे” फ़िल्म का एक डायलॉग है कि जब आपके घर में कॉक्रोच हो जाये, तो झाड़ू तो मारना ही पड़ता है. भोजपुरी सिनेमा इंडस्ट्री मेरे घर जैसा है इसीलिये इसके साफ़-सफ़ाई कि जिम्मेदारी भी मेरी ही है.
टीवी के लिये आपने जो काम किया या कर रहे है, उसमें कोई चैलेंज दिखता है आपको. मुझे तो नहीं दिखता कि ऐसा चैलेंजिंग काम हो रहा है, छोटे पर्दे पर.

बहुत सारे चैलेंजेज हैं भाई. आप जैसा सोच रहे है, वैसा बिल्कुल नही है. रोज-रोज अलग-अलग चुनौतियां है. टीआरपी की चुनौती से तो आप वाकिफ़ है. इसके अलावा सीरियल को ज्यादा से ज्यादा रियल बनाना या लिखना एक बड़ी चुनौती है. अब आप कुछ भी नही लिख सकते. या अगर लिखोगे तो उसे रिएलिटी के करीब रखना पड़ेगा. अलग अलग इलाके कि कहानियां है, तो वहां के पात्रों की बोली, उनका अन्दाज, उनका रहन-सहन, खान-पान सब पकड़ना पड़ता है. फिर इसका भी खयाल रखना है कि कहानी अगर मोतिहारी, बिहार के तरफ़ की है तो भी उसमें इतना ईमोशन या ड्रामा लाया जाये कि दुसरे राज्यों में भी लोग उन्हें पसंद करें और देखें. एक और बात है. “भाग्यविधाता” लिखना जब हम लोगों ने शुरु किया था तो हमें 7 बजे का टाईम-स्लॉट मिला था. जो कि बिल्कुल खाली जाता है. एक भी दर्शक नहीं मिलता है. हमने अपने काम से, अपने टीम-वर्क से, 7 बजे वाले टाईम-स्लॉट को एक तरह से प्राइम-टाईम में बदल दिया. ये बहुत चुनौती भरा काम था. टीवी में तो रोज नई-नई चुनौतियां हैं
यह साक्षात्कार जय भोजपुरी डॉट कॉम से साभार 
Thanks.. Mediasarkar.com