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मायावती पर सत्ता का नशा धीरे-धीरे चढ़ता गया


जनता सब जानती है : ‘चढ़ गुंडों की छाती पर, मोहर लगेगा हाथी पर’ के नारे के साथ 2007 के विधनसभा चुनावों में ऐतिहासिक विजय पताका फहरा कर सत्ता में आईं मायावती शुरू में तो कुछ सख्त तेवर और ठसक के साथ शासन व्यवस्था चलाई। सीमित संसाधनों के बावजूद महिलाओं, वृद्धों, दलितों के लिए ऐतिहासिक योजनायें पेश कर झलक दिया कि जिस उम्मीद से यूपी की जनता ने पंद्रह साल बाद पूर्ण बहुमत के साथ उन्हें सत्ता सौंपी है उसका वह सम्मान करेंगी। नोएडा एक्सप्रेस वे, गंगा कैनाल एक्सप्रेस वे, बीस करोड़ की आबादी के बोझ तले दबे राज्य में पांच लाख नई नौकरियां, राज्य कर्मचारियों को केन्द्र के समान वेतनमान देकर उन्होंने दिखाया कि वह सत्ता पाना ही नहीं सुशासन भी देना जानती हैं।
सख्त शासन की झलक में उन्होंने एक दलित का घर उजाड़ने पर अपने ही पार्टी के सांसद को अपने आवास से गिरफ्तार कर दिया। लेकिन जैसे-जैसे शराब का सुरूर धीरे-धीरे चढ़ता है, उसी तरह सत्ता का नशा भी धीरे-धीरे अपना रंग दिखाता है। दिखाया भी, एक साल के भीतर ही अपने जन्मदिन, यानी पंद्रह जनवरी को जिस राजशाही तरीके से पार्टी के लोगों द्वारा लाए गए भेंट को स्वीकार करती हैं, उसी जन्मदिन के लिए मायावती की नजरों में चढ़ने की खातिर पार्टी के लोगों में होड़ मची रहती है चढ़ावा चढ़ाने की, इसी चढ़ावे की व्यवस्था में औरेया के विधयक द्वारा एक इंजीनियर की हत्या हो गई। इसके बाद माया के मंत्री से लेकर विधायकों में होड़ मच गई कारनामे की। कभी अवैध जमीन कब्जा तो कभी बलात्कार, कभी केन्द्रीय परियोजनाओं के लूट के माध्यम से सत्ता का असली मजा लेने की जल्दबाजी में कब साढ़े चार साल का कार्यकाल बीत गया पता ही नहीं चला।
जब माया को होश आया तो कांग्रेस के युवराज यूपी में दस्तक दे चुके थे। इधर भाजपा भी उमा भारती के जरिये माया का मुकाबला करने मैदान में उतर गई। अपराध और गुंडागर्दी के कारण बदनाम समाजवादी पार्टी सत्ता से तो हाथ धो ही चुकी थी, लिहाजा छवि सुधरने के क्रम में उसने भी विदेश में पढ़े अपने युवराज अखिलेश को मैदान में उतार ही दिया। इधर मदमस्त सत्ता के बीच से ही पीस पार्टी, बुंदेलखंड कांग्रेस पार्टी, रालोद आदि माया से मुकाबले के लिए कमर कस चुके थे। जो थोड़ी बहुत उपलब्धि माया के खाते में थी वो भी भ्रष्ट मंत्रियों के कारण डूब गई। लिहाजा माया ने क्षति पूर्ति के लिए अपने तुरुप के पत्ते में से यूपी विभाजन का जिस तरह प्रस्ताव लाया वह फायदे की जगह नुकसान ज्यादा करेगा, इसकी भी पूरी संभावना है और अब लोकायुक्त की शह पर चुनावी बेला में वह मंत्रियों और विधायकों को पार्टी से निकाल रही हैं उसका फायदा कम नुकसान ज्यादा होगा। क्योंकि जनता अब बेवकूफ नहीं है उसे पता है कि वक्त आने पर किसे दुत्कारना है और किसे प्यार। बहरहाल जो भी परिणाम सामने आए लेकिन माया, मुलायम, उमा और राहुल सभी को सोचना चाहिए कि जिस जनता की उम्मीदों को वो पांच साल तक रौंदते हैं उसी जनता से वह किस मुंह से वोट मांगने जाएंगे।
लेखक संजय पांडेय दिल्‍ली में अमर भारती अखबार से जुड़े हुए हैं