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हम भी दलाल तुम भी दलाल फिर काहे का मलाल

हम भी दलाल तुम भी दलाल फिर काहे का मलाल -- मीडिया कितना मजबूर है यह मैंने अपनी आखो से बरेली में देखा  था | जब बरेली से बहेरी जाना था | मुझे बस बरेली डाक खाने से पकडनी थी , हमारे चाचा जमुना हमें डाक खाने पे छोड़ के चले गए और बोले यार तुम यही से बस पकड़ लेना |

डाकखाने के सामने ही बरेली जेल है और जेल के बाजू में छोटा सा खोका उधर खड़े होते है पोलिसे वाले ? मै खड़ा खड़ा बस का इंतजार कर रहा था तभी मेरी नजर एक आदमी पड़ी जो पोलिसे वाले से ३५ रूपये ले रहा था | मै थोडा सा करीव खसक गया | भाई जान अपनी मोटर साइकिल पर पैर जमाये पोलिसे वाले से बतिया रहा थे  आज कितनी कमाई हुयी है  |

जब मोटर साइकिल वाला थोडा सा आगे बड़ा तो मैंने उसे हाथ देके रोक लिया और कहा लिफ्ट दे दो थोड़ी दूर तक  तो वह हसने लगा अरे यार हम तो पास  ही जा रहे है . बातो बातो में मैंने  कहा यार तुम्हारे मुह से रिश्वतखोर पत्रकार की बू सी आ रही है | वो बोला यार तुमे कैसे मालूम की मै पत्रकार हु |

मैंने कहा हम भी तुम्हारी विरादरी के है भाई तो भाई पहचान लेगा एक भाई इमानदार दूसरा चोर ? वैसे किदर काम करते हो तो वह झट से बोला मै वीकली पेपर का मालिक हु | मै बोला वीकली पेपर के मालिक रिश्वत में ३५ रूपये केवल |
तुमे शर्म नहीं आती है ३५ रूपये की रिश्वत लेते हुए यार . .वह बोला , क्यों गंगवार जी फटी फटी बाते कर रहे हो | जब ये पोलिसे वाला  १० रूपये ले सकता है तो मै ३५ रूपये क्यों नहीं |

ये भी दलाल मै भी दलाल फिर कहे का मलाल क्यों गंगवार जी ? ठीक कही न तब तक मेरी बस आ गयी मै लपक के बस में चढ़ गया |

सुशील गंगवार
मीडिया दलाल.कॉम