"The Metadata is the Message: Social Media and the Rhetorics of Online Activism" पर विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने इस बात को मजबूती से रेखांकित किया कि हम नेट एक्टिविज्म के नाम पर अक्सर पीड़ित के पक्ष में और आरोपी के विरोध में खड़े तो होते हैं, उस पर एक के बाद एक सामग्री प्रसारित और हैश-टैग करते हैं, अच्छी बात है कि इससे कई ऐसी चीजें उघड़कर लोगों के सामने आ जाती है जो कि शायद मेनस्ट्रीम मीडिया के जरिए न आ पाएं लेकिन इसका दूसरा पक्ष ये भी है कि अपनी इस आपाधापी में हम पीड़ित करने का एक और संस्करण अपने इस नेट एक्टिविज्म के जरिए कर डालते हैं. तब हमारा ज्यादा से ज्यादा जोर इस बात पर होता है कि कैसे इसे लोगों की नजर में, उनकी प्राथमिकता में लाया जाए.
एलिजाबेथ जब ऑनलाइन एक्टिविज्म के संदर्भ में ये बात कह रहीं थी तो एक तरह से मुख्यधारा मीडिया के जो बुनियादी चरित्र हैं, उसके लक्षण ऑनलाइन एक्टिविस्टों में भी मौजूद होने की बात की तरफ इशारा था. और ये हम हिन्दी वर्चुअल पब्लिक स्फीयर में भी आसानी से देख पाते हैं. स्वघोषित मसीहे की शक्ल में हम वर्चुअल स्पेस पर किसी मुद्दे को लेकर एक्टिव तो हो जाते हैं लेकिन जिससे संबंधित हम अपनी बात रखनी शुरु करते हैं, सामग्री का प्रसारित करते हैं, हम उसकी पॉलिटिकली करेक्टनेस की बारीकियों में नहीं जाते और सद्इच्छा से उसे और गहरे रुप में पीड़ित कर जाते हैं. दूसरी बात कि कई बार उस मुद्दे को इतना संकुचित कर देते हैं कि वो मोहल्लेबाजी बनकर रह जाती है. सवाल-जवाब सत्र के दौरान नुपुर( मुझे उनके संबंध में कोई जानकारी नहीं है) ने बहुत सही कहा कि जैसे ही हम हैश-टैग्स पॉलिटिक्स में शामिल होते हैं, कई बार लोग हमारे खिलाफ ही खड़े हो जाते हैं जिसे कि हमने प्रतिरोध के रुप में खड़ा किया क्योंकि इस दौरान सारा जोर विश्लेषण से छिटककर मौजूदगी पर आकर टिक जाता है.
एलिजाबेथ जिस संजीदगी से विजुअल्स, वर्चुअल, साउंड, मीडिया और वर्चुअल एक्टिविज्म के बारे में, उसके भीतर सौदर्यबोध और प्रामाणिकता के सवाल पैदा होने को लेकर बात कर रही थी, मैं सुनते हुए साथ-साथ ये भी सोच रहा था कि अकादमिक दुनिया में खासकर हम जिस परिवेश में अकादमिक होने की बात करते हैं कि अधिकांश चीजें सतही, उथली और पाश्चात्य और सांस्कृतिक प्रदूषण का हिस्सा मानकर चलता कर दिया जाता है जबकि राजनीति, एजेंड़े, मैनिपुलेशन और प्रोपेगेंडा के बड़े स्तर के काम इन्हीं सब के बीच से होकर गुजरते हैं.
ये तो एक बात हुई, दूसरी बात जिसे कि मैंने सुनने के दौरान व्यक्तिगत स्तर पर महसूस किया कि वर्चुअल स्पेस और उसकी पॉलिटिक्स पर इतनी गंभीरता से बात करते हुए,सालों से उस पर काम करते हुए भी वो कुछ उन चीजों को अभी भी उतने ही महत्व से स्वीकार कर रही थीं जो कि एक अध्येता वर्चुअल स्पेस पर या तो गैरहाजिर है या कभी-कभार आता या प्राथमिक स्तर तक की समझ रखता है. मसलन उनसे जब एक श्रोता ने वर्चुअल स्पेस की सामग्री की विश्वसनीयता पर सवाल किया तो उन्होंने बहुत ही स्पष्ट रुप से जवाब दिया कि ऑथेंटिसिटी को परखने के लिए विधायिका,कानून से लेकर मेडिकल साइंस सब पहले से मौजूद हैं और उन्हें काम में लाया जाना चाहिए. मुझे तो जब मेरे स्टूडेंट्स फुटेज दिखाते हैं तो मैं पहला ही सवाल करती हूं- इसका स्रोत क्या है, इसका संदर्भ क्या है ? मुझे पॉप म्यूजिक की समझ नहीं है लेकिन अगर कोई इससे जुड़ी वीडियो मुझे दिखाता है तो मैं उसके संदर्भ औऱ आशय तक जाने की कोशिश जरुर करुंगी. मतलब ये कि एलिजाबेथ अध्ययन और ज्ञान के लिए उन परंपरागत तरीकों को बराबर से महत्व देती है.
मैं जब भी अपने मीडिया छात्रों को फेसबुक पर सक्रिय देखता हूं तो अच्छा लगता है कि वो एक ऐसी दुनिया से जुड़ रहे हैं जहां निरंतर मौजूदगी से हम जैसे सिलेबस मटीरियल सप्लायर की जरुरत और निर्भरता कम होगी लेकिन उन्हीं मुद्दों पर बात करते हुए लगातार आतंकित और निराश भी होता हूं कि इस क्रम में वो उतने ही उत्तर-साक्षर होते जा रहे हैं जिनके ज्ञान हासिल करने के बीच से पूरी की पूरी प्रक्रिया गायब होती चली आ रही है यानी सूचना के स्तर पर जानकार होते हुए भी संदर्भ और विश्लेषण के स्तर पर अपेक्षाकृत काफी कमजोर( ये कोई निष्कर्ष न भी हो तो एक चलन तो जरुर बनता जा रहा है)
वर्चुअल स्पेस को लेकर लगातार गंभीर काम कर रही एलिजाबेथ लॉश सचमुच मार्शल मैक्लूहान की उस पूरी अवधारणा की एक वायनरी खड़ी कर रही है जहां माध्यम ही संदेश है के मजाय मेटाडेटा के मैसेज होने का छद्म हमारे सामने हैं. वो हंसती हुई कहती है- मुझे समझ नहीं आता कि लोग इतने सारे डेटा लेकर क्या करेंगे( एक खास किस्म की बॉडी एक्सप्रेशन जिसका अभिप्राय ये कि ऑनलाइन एक्टिविज्म और मेटाडेटा के जरिए बॉडी और डोले-सोले बनाने की कवायद चल रही है शायद.
Sabhar-