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आखिर क्यों RSTV से अलग हुए वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल...



राज्य सभा टीवी (RSTV) की नींव के पत्थरों में से एक राजेश बादल अपने सहयोगियों के साथ चैनल को नित नई ऊचाइंयों पर ले जाने के प्रयास में लगातार जुटे रहेलेकिन अब उन्होंने चैनल से इस्तीफा दे दिया है। उनके इस्तीफे की पीछे की वजह को लेकर तमाम तरह के सवाल उठ रहे हैं, जिसके बाद उन्होंने हर सवाल का जवाब अपनी फेसबुक पर दो पोस्ट के जरिए दिया जिन्हें हम यहां आपके साझा कर रहे हैं-  
नमस्ते ! राज्य सभा टीवी 
एक न एक दिन तो जाना ही था। हां थोड़ा जल्दी जा रहा हूं। सोचा था जून जुलाई तक और उस चैनल की सेवा कर लूंजिसे जन्म दिया है। लेकिन ज़िंदगी में सब कुछ हमारे चाहने से नहीं होता। कोई न कोई तीसरी शक्ति भी इसे नियंत्रित करती है। आप इसे नियति,क़िस्मत, भाग्य या भगवान-कुछ भी कह सकते हैं। सो यह अवसर फ़रवरी में ही आ गया।
अजीब सा अहसास है। सात साल कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला। लगता है कल की ही बात है। कुछ भी तो नहीं था। शून्य से शुरुआत। कितनी चुनौतियां, कितने झंझावात।  कभी लगता- चैनल प्रारंभ नहीं हो पाएगा। लोग हंसते थे- संसद के चैनल में क्या दिखाओगेसदन की कार्रवाईकौन देखेगाराज्यसभा टीवी में नया क्या होगा? कितनी आज़ादी मिलेगीवग़ैरह वग़ैरह।
मैं और मेरे साथी निजी क्षेत्र के चैनलों या अख़बारों से आए थे, इसलिए संसद की कार्रवाई के कवरेज का अनुभव तो था, लेकिन संसद के नियमों के मुताबिक़ अन्दरूनी कामकाज में अनाड़ी ही थे। फिर भी क़ायदे-क़ानून की मर्यादा और सीमित संसाधनों से आग़ाज़ तो कर ही दिया। यह पहले दिन से ही साफ़ था कि हम संसद के चैनल हैं।  सदन में जिस तरह सभी दलों को अपनी आवाज़ रखने का अधिकार और अवसर मिलता है, उसी तरह हमने राज्यसभा टीवी को भी सच्चे अर्थों में संसद का चैनल बनाने का प्रयास किया। हर राजनीतिक दल को समुचित प्रतिनिधित्व दिया और बिना किसी पूर्वाग्रह के हर लोकतांत्रिक आवाज़ को मुखरित किया।
अनेक साथी पत्रकारिता में सौ फ़ीसदी निष्पक्षता की बात करते हैं। पर मेरा मानना है कि सौ फ़ीसदी निष्पक्षता नाम की कोई चीज़ नहीं होती। निजी चैनलों में भी नहीं। ऐसा कौन सा चैनल या अख़बार है, जिसका कोई मैनेजमेंट न हो। अगर मैनेजमेंट है तो उसके अपने हित होंगे ही। कोई भी समूह अख़बार या चैनल धर्मखाते में अपनी कमाई डालने के लिए शुरू नहीं करता। राज्यसभा टीवी के मामले मे भी ऐसा ही है। हां सबको आप कभी संतुष्ट नहीं कर सकते। जिस दल की सरकार होती है, उसके सदनों मे नेता होते हैंप्रधानमंत्री होते हैं- उन्हें आपको अतिरिक्त स्थान देना ही होता है। चाहे यूपीए की सरकार रही हो या फिर एनडीए की। यही लोकतंत्र का तक़ाज़ा है। हां अगर आप सिर्फ़ बहुमत की बात करें और अल्पमत को स्थान न दें तो यह भी लोकतांत्रिक सेहत के लिए ठीक नहीं है। हमने भी यही किया और लोगों के दिलों में धड़के। आप सब लोगों ने इस चैनल पर अपनी चाहत की बेशुमार दौलत लुटा दी।
अब जब मुझे इस चैनल से विदा होने का फ़ैसला भारी मन से लेना पड़ रहा है तो दुख के साथ एक संतोष भी है। इस चैनल को जिस ऊंचाई तक पहुंचा सका वह भारत के टेलिविज़न संसार का एक बेजोड़ नमूना है। हमने अच्छे कार्यक्रम बनाएअच्छी ख़बरें दिखाईं और सार्थक तथा गुणवत्ता पूर्ण बहसें कीं। न चीख़ पुकार दिखाई और न स्क्रीन पर गलाकाट स्पर्धा मे शामिल हुए। चुनावों को हमने हर बार एक नए ढंग से कवरेज किया। कभी मुझे कट्टर कांग्रेसी कहा गया तो कभी अनुदार राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी।  
मुझे ख़ुशी है कि मैंने अपने को सिर्फ़ एक प्रोफ़ेशनल बने रहने दिया। अभी भविष्य के बारे मे कुछ नहीं सोचा है। आपको मेरी नई पारी के लिए शायद कुछ दिन प्रतीक्षा करनी पड़े। इसलिए अपना प्यार बनाए रखिए। मैं अभी कुछ दिन ख़ामोश रहना चाहता था, मगर मीडिया में लगातार आ रही ख़बरों के कारण आपसे दिल की बात कहना ज़रूरी समझा। आपके दिल और दिमाग़ में जगह मिलती रहेगी तो मुझे ख़ुशी होगी।  राज्यसभाटीवी के बारे मे कुछ और अच्छी बातें आगे भी करता रहूंगा। 
आप सभी के प्रति अत्यंत सम्मान के साथ!
जब चुभते हैं ज़िंदगी के कांटे  
राज्यसभा टीवी छोड़ने के फ़ैसले पर मित्रों और शुभचिंतकों की भावविह्वल करने वाली प्रतिक्रियाएं।
सच! मैंने तो कभी नहीं सोचा था। सभी को उत्सुकता है कि आख़िर मैंने छोड़ा क्योंकारण कोई बहुत रहस्य के परदे में नहीं है न ही मैं छिपाना चाहता हूं। अनेक मित्र क़यास लगा रहे हैं। उसमें आंशिक सच्चाई भी है मगर मैं उन्हीं तथ्यों और संदर्भों की अपने ढंग से व्याख्या करना चाहता हूं। शायद आप समझ सकें।
चालीस- इकतालीस साल के सार्वजनिक अनुभव से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि हर रिश्ते, शहर और नौकरी की अपनी एक तय मियाद होती है। ठीक वैसे ही, जैसे प्रत्येक दवा की अपनी डेट आफ एक्सपायरी होती है। यदि अवधि निकल जाए और आप उनसे दूर न हों तो ये तीनों आप पर रिएक्ट कर जाते हैं। यह साइड इफ़ेक्ट है।
यदि रिश्ते की एक्सपायरी निकल जाए तो वो आप पर बोझ बन जाता है और आपका जीना हराम कर देता है। शहर की एक्सपायरी निकल जाए और आप ज़बरन डटे रहें तो शहर आपको बाहर कर देता है या फिर आप अपनों के बीच उपहास का केंद्र बन जाते है,अपमानित होते हुए रोज़ मरते हैंरोज़ जीते हैं। यदि नौकरी की मियाद निकल जाए और आप अड़े रहें तो प्रमोशन नहीं पाते, अयोग्य और नाकाबिल आगे बढ़ जाते हैं, आपके सिर पर बैठा दिए जाते हैं आप अवसाद में चले जाते हैं। दिलचस्प यह है कि ये तीनों आपको अपने ढंग से पहले संदेश भी देते हैं बशर्ते आप उन संकेतों और संदेशों को पढ़ना जानें।
बीते दिनों राज्यसभा टीवी पर अनेक सवाल उठे। आरोप भी लगे। कोई सच साबित नहीं हुआ। मैंने कल ही लिखा था कि सौ फ़ीसदी निष्पक्षता नाम की कोई चीज़ नहीं होती। आज फिर दोहराता हूं। अपवाद हो सकते हैं, लेकिन इरादतन या जानबूझकर ऐसा कभी नहीं किया। आख़िर अपने आपको भी तो जबाव हमें देना होता है। जो भी किया, प्रोफ़ेशनल मापदंडों पर काम किया। शिकायतें तो घर के सदस्यों से भी होती हैं।
दिलचस्प तो यह है कि जब यूपीए सत्ता में थी तो मुझ पर दक्षिणपंथी विचारधारा का होने के आरोप लगे और जब एनडीए सत्ता में आई तो कहा गया मैं यूपीए के दौरान राज्य सभा टीवी में आया था तो मेरी प्रतिबद्धता उनके साथ थी। मेरी दृष्टि में किसी भी प्रोफ़ेशनल के लिए यह बहुत अच्छी बात है। मगर किसी प्रोफ़ेशनल को राजनीतिक नज़रिए से देखना कम से कम मेरी नज़र मे तो उचित नहीं है। हो सकता है कुछ पेशेवरों पर यह बात लागू होती हो लेकिन बहुमत तो अराजनीतिक प्रोफेशनल्स का ही है। सिविल एविएशन मिनिस्टर अगर इस्तीफ़ा दे तो क्या सारे पायलटों को इस्तीफ़ा दे देना चाहिएअगर रेलवे का मंत्री त्यागपत्र दे तो क्या सारे रेलवे के चालकों या टिकट कंडक्टरों को नौकरी छोड़ देनी चाहिए?
अफ़सोस! आज के दौर में पत्रकारों के लिए किसी न किसी दल से जुड़कर रहना शायद मजबूरी हो गई है। विचारधारा के आधार पर किसे पसंद किया जाए क्योंकि राजनीतिक दलों में विचारधारा बची ही कहांकुल मिलाकर स्थिति ठीक नहीं है। समाज और देश को भी इस चिंता में शामिल होना चाहिए।
(साभार: फेसबुक वाल से)
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