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केजरीवाल से अलग हुए आशुतोष के बारे में आप ये सब कतई नहीं जानते होंगे...


अजीत अंजुम
वरिष्ठ पत्रकार
जनवरी 2014 की कोई तारीख थी। मैं ‘न्यूज 24’ के अपने दफ्तर में बैठा था। तभी ‘आईबीएन7’ में काम करने वाले दोस्त संजीव पालीवाल का उदयपुर से फोन आया। उठाते ही एक सूचना ठक्क से कान में गिरी- ‘आशुतोष ने इस्तीफा दे दिया है।’ मेरे जुबान से बेसाख्ता निकला- क्या? इस्तीफा दे दिया? कैसे? कब? क्यों? सारे बेसब्र सवाल एक साथ मैंने झोंक दिए। हमेशा की तरह ठंडे दिमाग से बात करने वाले शांत चित्त संजीव पालीवाल ने जो बताया, उससे एक बार फिर चौंका।
संजीव से पता चला कि अब आशुतोष केजरीवाल की पार्टी जॉइन करने जा रहा है। मैंने उनसे एक-दो सवाल और पूछे फिर तुरंत उनका फोन काटा। मेरे भीतर तब तक इतनी बेचैनी पैदा हो चुकी थी, जो संजीव के जवाबों से शांत नहीं होने वाली थी। मैंने तुरंत आशुतोष को फोन मिलाया। उसका फोन लगातार बिजी आ रहा था। मेरा वश चलता तो उसके फोन में जबरन प्रवेश कर उस तक पहुंचता कि ये सब कर दिया और हमें बताया तक नहीं लेकिन ये मुमकिन न था।
बेचैन आत्मा की तरह मैंने ‘आईबीएन7’ के ही पत्रकार मित्र अनंत विजय समेत उनके कुछ सहयोगियों को फोन किया और जानने की कोशिश की कि क्या आशुतोष दफ्तर में हैं? बताया गया कि वो लोगों से मिल-जुल रहे हैं। उनकी विदाई की तैयारी हो रही है। मैंने इतनी देर में ‘आजतक’ के एडिटर सुप्रिय प्रसाद और ‘एबीपी न्यूज’ के मिलिंद खांडेकर से लेकर ‘इंडिया टीवी’ के एडिटर रहे विनोद कापड़ी तक, कई लोगों को फोन खटखटा दिया, इसी बेचैनी में कि आशुतोष के बारे में अब तक किसे क्या पता है? सबको तब तक उतना ही पता था, जितना मुझे। किसी को पहले से कोई भनक नहीं थी और आशुतोष ने बम फोड़ दिया था। कुछ ऐसे भी थे, जिनके लिए ये कोई चौंकाने वाली जानकारी नहीं थी क्योंकि बीते कुछ महीनों से आशुतोष अपने विचारों, अपनी बहसों और अपनी टिप्पणियों की वजह से आम आदमी पार्टी के करीबी और सिंपेथाइजर माने जाने लगे थे।
उन दिनों दिल्ली में कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार चला रहे केजरीवाल के ‘वृहद सलाहकार मंडल’ के सदस्य के तौर पर आशुतोष, एनके सिंह, अभय दूबे, पुण्य प्रसून बाजपेयी समेत कई पत्रकारों का जिक्र होता रहता था। दोस्त होकर भी मैंने कभी आशुतोष से इस बारे में पूछा नहीं और उन्होंने कभी कुछ बताया भी नहीं। पूछता तो भी नहीं बताता, शायद इस वजह से भी मैं अपनी जिज्ञासाओं को दूसरों से मिली आधी-अधूरी जानकारियों से शांत करता रहा। आशुतोष पेट का जितना गहरा है, मैं उतना ही हल्का। मेरे पेट में बात पचती नहीं, जब तक एक -दो मित्रों से ये कहते हुए बता न दूं कि किसी से कहिएगा मत, सिर्फ आपको बता रहा हूं। इस मामले में आशुतोष का हाजमा इतना दुरुस्त है कि उसे किसी किस्म के हाजमोला की जरुरत नहीं होती।
बीते चार-पांच महीनों के दौरान भी हम कई बार आशुतोष से मिलते रहे। घंटों बैठते रहे। दुनिया भर की बातें करते रहे। लिखी जा रही उसकी किताब पर पर बात होती रही। इतना तो समझ चुके थे कि अब वो लंबे समय तक केजरीवाल की पार्टी में नहीं रहेगा। मंगलवार को भी उनके पढ़ने-लिखने को लेकर बात हुई लेकिन ये नहीं कहा कि कल उसके इस्तीफे की खबर सरेआम होने वाली है। पिछली बार की तरह इस बार भी संजीव पालीवाल ने ही अमर उजाला वेबसाइट की खबर का लिंक भेजा तो पता चला कि हो गया, जो होना था।
‘आईबीएन7’ से इस्तीफे के दिन भी मैं आशुतोष से बात होने के पहले और बाद होने के बाद बहुत देर तक चिढ़ा रहा कि इतना बड़ा फैसला कर लिया और हमें बताया तक नहीं। घंटा दोस्त हैं हम लोग। एक हम हैं कि सारी बातें एकतरफा पाइपलाइन से सप्लाई करते रहते हैं, एक ये आदमी है कि कुछ भनक ही नहीं लगने देता।
खैर, आशुतोष ‘आईबीएन7’ से अपना सामान समेटकर बाहर निकला और दो-चार दिन यार-दोस्तों के बीच बैठकी के बाद केजरीवाल की 'अंतरंग मंडली' में समाहित हो गया। उसके इस्तीफे के साथ ही चर्चा होने लगी थी कि वो दिल्ली के किसी इलाके से लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। मैंने दो-चार ये भी पूछा तो उसने हां -ना -देखेंगे टाइप का ही जवाब दिया लेकिन उनकी बातों से लगता था कि रास्ता उसी तरफ जा रहा है। भले वो खुलकर न बोले। खैर, वो दौर केजरीवाल के उठान का दौर था। दिल्ली में अन्ना आंदोलन के गर्भ गृह से निकली आम आदमी पार्टी की कांग्रेस के बाहरी सपोर्ट से सरकार बन गई थी। मीडिया के बड़े हिस्सा देश में वैकल्पिक राजनीति के योद्धा के तौर पर केजरीवाल को प्रोजेक्ट कर रहा था। उनके नाम की मुनादी की जा रही थी। तो लोगों ने यही माना कि आशुतोष ने लोकसभा के लिए ही संपादक की नौकरी और पत्रकारिता छोड़ी है। चैनल में रहते हुए पहले अन्ना आंदोलन, फिर केजरीवाल की पार्टी का सपोर्ट करते दिखने की वजह से पहले भी उनकी आलोचना होती रही थी। हम जैसे दोस्ते भी गाहे-बगाहे तंज कसकर उसे सुलगा देते थे। अपने को सही मानने के उसके तर्क जब तू-तू-मैं-मैं का माहौल क्रिएट करना लगता तो या तो मैं चुप हो जाता, या वो।
आशुतोष का हमेशा यही तर्क होता था कि देश एक नए किस्म की क्रांति का चश्मदीद बन रहा है और इस क्रांति का हिस्सा बनने के लिए मैं एक बार अपने रास्ते बदलना चाहता हूं। वो क्रातंकारी इतिहास का किरदार बनने पर आमादा था, अदना ही सही। एक दोस्त के नाते मुझे हर वक्त लगता था कि ये आदमी राजनीति में चलेगा कैसे? वोट मांगने से लेकर चंदा मांगने तक और कार्यकर्ताओं को खुश रखने से लेकर केजरीवाल के गुड बुक में लंबे समय तक बने रहने के लिए जरुरी शर्तें कैसे पूरा करेगा? औपचारिक मुलाकातों, बातों या मीटिगों में टू द पॉइंट बात करने वाला, ‘मैं सही सोचता हूं’ जैसे आत्मरचित इगो को ढ़ोने वाला, जरूरी मौकों पर भी कदम पीछे खीचने की बजाय दो कदम आगे बढ़ जाने वाला और किसी के प्रति अपनी नापसंदगी को अक्सर सहेजकर रखने वाला आशुतोष नेतागीरी की मायावी दुनिया में टिकेगा कैसे?
जिस दिन आशुतोष ने औपचारिक तौर 'केजरीवाल की टोपी' पहनी, उस दिन उसे मैंने 'न्यूज 24' पर अपने शो 'सबसे बड़ा सवाल' में गेस्ट के तौर पर बुलाया और पत्रकार के नेता बने आशुतोष को बेमुरौवत होकर जितना छील सकता था, छीलने की कोशिश की। वो हंस-हंसकर जवाब देता रहा। ऐसा लगा जैसे वो कायांतरण करके ही स्टूडियो आया था। कुछ ये भी कह सकते हैं कि मेरा लिहाज था कि तीखे तंज झेलता रह गया। शायद किसी दूसरे को अपनी आदत के मुताबिक थोड़ा जवाब देता।
इसी बीच 2014 के लोकसभा चुनाव का ऐलान हो गया। आशुतोष चांदनी चौक से ‘आप’ के उम्मीदवार घोषित हो गए। मैं ‘न्यूज24’ का मैनेजिंग एडिटर था, लिहाजा एक दोस्त होकर भी उनके साथ कभी उनके लोकसभा क्षेत्र में नहीं गया। न जाने और साथ न खड़े होने का मलाल भी कभी हुआ, लेकिन नेता हो चुके मित्र के साथ मैं संपादक रहते मैदान में नहीं दिख सकता था। हां, कभी-कभार उसका हालचाल उससे या उनकी पत्नी मनीषा से पूछता रहा। उसके प्रचार में लगे कुछ लोगों से भी बात होती रही। चुनाव के दौरान लाखों के फंड के जरूरत होती है। आशुतोष के हाथ तंग थे। पार्टी ने भी शायद उसे चुनाव मैदान में उतारकर खुद अपना इंतजाम करने के लिए छोड़ दिया था। कुछ दोस्तों ने उसकी कुछ मदद भी की।
कांग्रेस के अरबपति उम्मीदवार कपिल सिब्बल और बीजेपी के दिग्गज हर्षवर्धन के मुकाबले आशुतोष मजबूती से लड़ा, लेकन तीन लाख वोट पाकर भी करीब एक लाख से हार गया। लोकसभा के दरवाजा उसके लिए खुलने से पहले ही बंद हो गए। लगा कि ये आदमी हताश हो जाएगा। लाखों की ग्लैमरस नौकरी छोड़कर राजनीति में धक्के कब तक खाता रहेगा, लेकिन आशुतोष ने कभी ऐसा अहसास ही नहीं होने दिया कि वो अपने फैसले पर पछता रहा हो। उसने लगातार तीन सालों तक पार्टी के लिए पूरी वफादारी से काम किया। निजी बातचीत में भी उसने कभी केजरीवाल या पार्टी के तौर-तरीकों को लेकर नाराजगी नहीं जाहिर की। कई मौकों पर हम जैसे दोस्त उसके बयानों, उसकी पार्टी के फैसलों या तौर-तरीकों को लेकर रपेटते रहे लेकिन वो हमेशा प्रवक्ता ही बना रहा। भिड़कर, लड़कर हमेशा हावी होने की कोशिश करता रहा।
एक बार दिल्ली के फॉरेन कॉरेस्पोंडेंट क्लब में हमारी बहस के दौरान आशुतोष मीडिया में काम कर रहे हम जैसों को रीढ़विहीन और टीवी संपादकों को सत्ता का चाटूकार कहने लगा तो गुस्से में मैंने कई अप्रिय सवालों से उसे घेर दिया। उसे यहां तक कह दिया कि जब सब मिलकर केजरीवाल की डुगडुगी बजा रहे थे, तब आप लोगों को पत्रकारिता सही कैसे लग रही थी? किसी भी नेता के लिए आंख मूंदकर बिछ जाना सही कैसे है, चाहे केजरीवाल हों या मोदी? आईबीएन7 से आपके कार्यकाल में छंटनी हुई तो आप तमाशबीन क्यों बने रहे? उसी समय क्यों नहीं इस्तीफा दे दिया था? आपने इस्तीफा चुनाव के चार-पांच महीने पहले या दिल्ली में केजरीवाल सरकार बनने के बाद क्यों दिया? ये वो सवाल थे, जो सोशल मीडिया पर भी लगातार आशुतोष का पीछा कर रहे थे। जवाब उसके पास भी था लेकिन बहस ने इतना आक्रामक रुख ले लिया कि हम दोनों एक दूसरे की बात सुनने-समझने के दायरे से बाहर निकल गए। वहां मौजूद वरिष्ठ पत्रकार शैलेश के साथ हमारी पत्नियों को बीच-बचाव करना पड़ा। मैं जानता हूं कि आईबीएन7 के अपने उस दौर में भी आशुतोष बहुत बेचैनियों से गुजरा था। अपने तरीके से उसने संस्थान में अपना विरोध भी दर्ज कराया था। कुछ हद तक कॉरपोरेट पत्रकारिता की मजबूरियों के कैदी आशुतोष के लिए आज इतना ही कह सकता हूं कि ‘कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं कोई बेवफा नहीं होता’।
खैर, उस रात की बहस का नतीजा ये हुआ कि हम लंबे समय के लिए एक दूसरे से दूर हो गए। दोनों ने सोचा कि ऐसी बाता-बाती और लड़ाई होने से बेहतर है कम मिलना। तो हम कम मिलने लगे। मुझे लगता था कि यार कभी तो अपनी कमियां भी मानों। रैली में मत मानों। मीटिंग में मत मानों। सार्वजनिक जगहों पर मत मानों। मीडिया के सामने मत मानों। विरोधियों के सामने मत मानों लेकिन जब आपस में दोस्त की तरह बात कर रहे हैं, तब तो अपने को थोड़ा ढ़ीला छोड़ो। आशुतोष की दाद देनी पड़ेगी कि उसने कभी अपने को ढीला नहीं छोड़ा। आप इसे खूबी मानें या खामी। उसके जाने के बाद हम जरूर कहते कि यार ये कैसा आदमी है, कभी तो मान ले कि इसकी पार्टी या ये खुद भी गलत हो सकता है।
आशुतोष ऐसा ही है। उसे जो बात जहां कहनी और जहां माननी होगी, वहीं कहेगा और वहीं मानेगा। चैनल में राजदीप सरदेसाई अगर उसके बॉस थे, तो संस्थान के बारे कुछ कहना होगा तो उन्हीं से कहेगा। पार्टी में जो कहना होगा, पार्टी नेतृ्त्व से कहेगा। बाकी जगह वो लूज कैनन बनकर हल्का नहीं होगा। यही उसकी खासियत है। यही उसकी ताकत है और यही बात उसे औरों से अलग करती है।
आशुतोष ने पत्रकारिता में अपने करियर का पीक देखा है। लंबे अरसे तक ‘आजतक’ जैसे चैनल के ऊंचे ओहदे पर रहा। नामचीन एंकर रहा। उसके बाद करीब आठ साल तक आईबीएन7 का संपादक रहा। चैनल का प्रमुख चेहरा रहा। लाखों की सैलरी सालों-साल पाता रहा लेकिन उसका रहन-सहन और लापरवाह अंदाज किसी संघर्षशील पत्रकार की तरह ही रहा। दो जींस। ढीले-ढाले, एक दो पैजामे, कुछ पुराने टी-शर्ट। पत्नी मनीषा की खरीदी हुई दो-तीन शर्ट्स और साधारण सी सैंडिल। गाड़ी के नाम पर जब कंपनी ने लंबी गाड़ी दे दी तो आशुतोष ने वो गाड़ी अपनी पत्नी के हवाले करके अपने लिए छोटी गाड़ी ले ली। कई बाहर जाना हो अपने बैग पैक में दो मुड़े-तुड़े कपड़े रख लिया और चलने को तैयार। एंकर था तो सबसे घटिया और पुरानी टाई और बेमेल शर्ट पहनकर टीवी पर अवतरित हो जाता। मैं कई बार मनीषा को फोन करता कि इस बंदे को स्क्रीन के लिए कुछ कायदे के कपड़े खरीदवा दीजिए। वो कहतीं क्या करें अजीत जी, ला भी देती हूं तो पता नहीं कहां रख देता है और वही घिसी हुई टाई पहनकर बैठ जाता है। कोई दिखावा नहीं। भौतिक चीजें हासिल करने का कोई शौक नहीं, जो दुर्भाग्य से हम जैसों के भीतर कुछ हद तक पैदा हो गया है।
हां, ये ठीक है कि अच्छी सैलरी होने की वजह से नोएडा में दो फ्लैट हो गया, जिसका मोटा लोन अब भी उसके माथे पर चिपका है। कुछ बैंक बैलेंस हो गया। इसका भी हिसाब-किताब आशुतोष को पक्के तौर पर नहीं पता होता है। कॉलेज में प्रोफेसर पत्नी ही उनकी वित्त मंत्री भी हैं और तमाम ऐसे मामलों में उनकी जरुरतों का ख्याल रखने वाली दोस्त भी। नौकरी छोड़ने के बाद आशुतोष मेट्रो में चलते रहे हैं। बाद में उन्होंने मारुति की सबसे छोटी गाड़ी खरीद ली। बड़ी गाड़ी के नाम पर उनके पास सरकारी मेट्रो तो है ही। आशुतोष ने कभी ऐसे शौक पाले ही नहीं, जो उसे गुलाम बना ले।
आशुतोष ने जब लोकसभा चुनाव का पर्चा भरा तो लोन पर खरीदे गए उसके फ्लैट और उसके बैंक बैलेंस को जोड़जाड़ कर उसे करोड़पति घोषित करके ट्रोल किया जाने लगा। जबकि मैं दावे के साथ कह सकता हूं आशुतोष ने जो भी अर्जित किया, उसमें सेटिंग-गेटिंग का एक टका भी नहीं है। सैलरी से मिले और टैक्स काटकर अकाउंट में ट्रांसफर हुए पैसे के अलावा एक पैसा इधर-उधर का उसके पास आया नहीं। आ ही नहीं सकता। उसे कोई खरीद नहीं सकता। कोई कीमत देकर उससे कोई फायदा नहीं उठा सकता। दमदार और वजनदार संपादक रहते हुए आशुतोष नेताओं, मंत्रियों, नौकराशाहों से सजे सत्ता के गलियारों में कभी देखा नहीं गया। नार्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक में बैठने वाले सत्ताधीशों की निकटता पाने में कभी उसमें चाह ही नहीं रही।
यूपीए -2 के दौर में जब आनंद शर्मा के सूचना प्रसारण मंत्रालय मीडिया के हाथ बांधने की साजिशें कर रहा था, तब आशुतोष सबसे अधिक मुखर और आक्रामक था। ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स के साथ संपादकों की बैठक में कपिल सिब्बल समेत बड़े मंत्रियों की मौजूदगी में भी अगर सबसे अधिक बेफिक्र होकर कोई मनमोहन सरकार के मठाधीशों को खरी -खोटी सुना सकता था, तो वो आशुतोष था। ऐसे एकाध मौकों पर तो दूसरे संपादकों को बीच-बचाव करके आशुतोष को शांत करना पड़ा। वो चाहता तो इतने लंबे अरसे तक संपादक रहते हुए कुछ दूसरे पत्रकारों की तरह ‘मालदार’ और ‘नेटवर्कर’ बन ही सकता था, लेकिन वो नहीं बना। ठोक कर खबरें चलाता रहा। तमाम बड़े नेताओं को अपनी हॉट सीट के सामने बैठाकर तीखे और बेखौफ सवाल पूछता रहा। किसी भी कीमत पर नहीं बिकने वाले संपादकों की फेहरिश्त में टॉप पर बना रहा, क्योंकि सत्ता के अंत!पुर में अपनी जगह बनाने का ख्वाहिशमंद कभी वो रहा ही नहीं। हां, विचार के तौर पर उसे केजरीवाल में संभावना दिखी तो लाखों की नौकरी छोड़कर उनकी रथयात्रा में शामिल हो गया। विचार रखना कोई गुनाह नहीं। विचारहीन तो मुर्दे होते हैं।
आशुतोष ने करियर में जो हासिल किया, अपने दम पर किया। अपनी मेहनत से किया। किसी बड़े बॉस को मस्का नहीं लगाया। किसी को खुश करने-रखने की कोशिशें कभी नहीं की। ये उनका स्वभाव ही नहीं है। तभी मेरे भीतर हमेशा ये ख्याल कौंधता रहा कि आशुतोष ‘आप’ के नेताओं से कैसे तालमेल बिठाएगा? तमाम तरह की विरोधाभासी छवियों वाले केजरीवाल के साथ कैसे और कितनी दूर तक चल पाएगा? जैसे-तैसे ही सही, चार साल तक तो आशुतोष चले ही। चार साल के इस सियासी सफर में आशुतोष ने बहुत कुछ देखा और झेला होगा लेकिन उनसे मीडिया वाला कोई उनके भीतर की भड़ास नहीं निकलवा सकता। आगे की बात तो राम जाने।
कभी अपने बयानों की वजह से तो कभी पार्टी के स्टैंड की वजह से आशुतोष ट्विटर पर लगातार गालियां पड़ती रही। आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा। ‘देशभक्त’ ट्रोल्स की जमात तो उसके पीछे आए दिन दाना-पानी लेकर लगी रही लेकिन उसने कभी इसकी परवाह नहीं की।
कुत्ते-बिल्लियों से प्यार करने वाला आशुतोष आए दिन अपने ‘पोको-लोको’ के साथ अपनी तस्वीरें ट्विटर पर चिपका देता हैं, बदले में न जाने क्या सुनता है। दिन भर में उसके ट्विटर टाइम लाइन पर उसे नीचा दिखाने वाले बेहूदे किस्म के कमेंट थोक भाव से गिरते रहते हैं। मैंने भी कई बार कहा कि यार क्यों कुत्ते-बिल्ली की इतनी पिक्चर लगाकर लोगों को गालियों के इतने आविष्कार का मौका देते हो, लेकिन उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। देखता-पढ़ता भी नहीं कि उसका मनोबल तोड़ने में जुटे भक्तों की ब्रिगेड उसके ट्विटर टाइम लाइन पर कितने तरह की ‘गटर गैस’ छोड़कर गई है।
आशुतोष इस मामले में बहुत क्लियर है। जो सोच लिया, सोच लिया। एक बार स्टैंड ले लिया तो ले लिया। अपने दोस्तों से ज्यादा रायशुमारी करने में भी शायद उसका यकीन नहीं। इसका कई बार उसे नुकसान भी उठाना पड़ा है लेकिन वो ऐसा ही है। पिछले साल के आखिरी महीनों में ये चर्चा जोरों पर थी कि राज्यसभा के लिए खाली हो रही सीटों के लिए केजरीवाल की तरफ से आशुतोष की उम्मीदवारी पक्की है। हम सबने आशुतोष के दर्जनों बार पूछा लेकिन हर बार उसने ये कहा कि पता नहीं किसका नाम होगा, किसका नहीं। पार्टी को जो तय करना होगा, करेगी। कभी उसने राज्यसभा के लिए बेचैनी या अपनी महत्वकांक्षाओं का इजहार नहीं किया। उसके भीतर कुछ चलता भी होगा, भीतर ही दबाए रखा उसने। बावजूद इसके, हम जैसे तमाम लोग मानकर चल रहे थे कि जिस ढंग से उसने अपना करियर छोड़कर इतने लंबे समय के लिए पार्टी के लिए दिन रात काम किया है और दिल्ली से गोवा तक में अपनी ड्यूटी निभाई है, उसकी उम्मीदवारी तो पक्की ही होगी। कुमार विश्वास की केजरीवाल से तनातनी और मतभेद की खबरें इस बात की तस्दीक कर रही थी कि शायद कुमार का नंबर न आए लेकिन आशुतोष के नाम कटने या नहीं होने की कोई वजह नहीं दिखती थी।
तभी एक दिन दिल्ली से आम आदमी पार्टी के तीन उम्मीदवारों के नामों का ऐलान हुआ। इन नामों में आशुतोष का नाम नहीं था। पता नहीं आशुतोष को कितना झटका लगा था, हम जैसे कई लोगों को जरूर लगा था। कोई वजह समझ में नहीं आई कि ऐसा क्यों हुआ? मैंने इस बारे में आशुतोष से बहुत ज्यादा पूछताछ नहीं की। उसने भी हमेशा की तरह कुछ बताया नहीं लेकिन इस बीच वो खुद पार्टी से लगभग कट गया। मीटिंगों में जाना बंद कर दिया। इस बीच वो लिखने-पढ़ने में पहले से ज्यादा वक्त देने लगा। कई वेबसाइट के लिए कॉलम भी लिखने लगा। यानी वो अपनी उसी दुनिया में लौट रहा था, जहां से वो सियासत में आया था। अब जब उसके पार्टी छोड़ने की खबर आई है तो ये जानकारी भी सरेआम हुई है कि ‘केजरीवाल ने सुशील गुप्ता जैसे उद्योगपति को टिकट दिया था। साथ ही वह आशुतोष और संजय सिंह को राज्यसभा भेजना चाहते थे लेकिन आशुतोष ने स्पष्ट कहा कि उनका जमीर उन्हें सुशील गुप्ता के साथ राज्यसभा जाने की इजाजत नहीं देता है। चाहें उन्हें टिकट मिले या न मिले, सुशील गुप्ता को राज्यसभा नहीं भेजा जाना चाहिए। तब केजरीवाल ने उनकी जगह चार्टर्ड अकाउंटेंट एनडी गुप्ता का नामांकन करा दिया।’ 
आशुतोष के नाम नहीं होने और दिल्ली के सियासी सर्किल में पैसे वाले सेटर के तौर जाने-पहचाने वाले सुशील गुप्ता की उम्मीदवारी पर केजरीवाल की खूब आलोचना हुई लेकिन आशुतोष ने तब भी अपना मुंह बंद रखा। अब जब आशुतोष पार्टी का हिस्सा नहीं रहा, तब भी उसने मीडिया से यही गुजारिश की है कि बयान देने के लिए कोई रिपोर्टर उसे तंग नहीं करे।
केजरीवाल ने उसके इस्तीफे को अस्वीकार करते हुए ट्विटर पर इतना लिख दिया कि ‘हम आपका इस्तीफा कैसे स्वीकार कर सकते हैं। न, इस जन्म में तो नहीं।’ आप के कई और नेताओं ने भी ऐसी ही प्रतिक्रया दी है लेकिन आशुतोष को जानने वाले जानते हैं कि एक बार उसने फैसला कर लिया तो कर लिया। अब वो टस से मस नहीं होगा।
केजरीवाल के साथ रहते हुए आशुतोष ने थोक भाव से अपने दुश्मन बनाए। मोदी और मोदी की बीजेपी के खिलाफ अपने तीखे तेवरों और अतिरेकी बयानों की वजह से सोशल मीडिया पर खूब नश्तर झेले। टीवी चैनलों पर कई बार एंकर से इस कदर उलझा कि बहसें बदमगजी में तब्दील हो गई। मीडिया वालों को लंबे समय तक बीजेपी के खिलाफ बोलने-लिखने के लिए ललकारता रहा, इस वजह से अपने हमपेशा रहे कई रिपोर्टरों, संपादकों और एंकरों से उसके रिश्ते खराब हुए। शाम को चैनलों पर जमने वाले मजमों में केजरीवाल के प्रवक्ता के तौर पर बैठे आशुतोष ने कई बार आपा खोया। पार्टी की प्रेस कान्फ्रेंस के दौरान रिपोर्टर्स से उलझा। कई बार मुझे लगता था कि आशुतोष खुद को अपने को ‘डबल रोल’ में क्यों देख रहा है। संपादक भी। नेता भी। वो रिपोर्टर और एंकर से कहने लगता था कि मैं भी पत्रकार रहा हूं। बलां… बलां… तब मुझे भी गुस्सा आता था कि अरे भाई रहे होगे पत्रकार, अब आप नेता हैं और आपका एक एजेंडा है। आप अपने केजरीवाल के एजेंडे से चलिए। हमें सामूहिक नसीहत मत दीजिए। ज्ञान मत दीजिए। कुछ दोस्तों की मौजूदगी में एक दो मौकों पर यही सब मैंने मुंह पर बोल दिया तो हमारे बीच फिर तनाव पैदा हो गया। वहां भी किसी को बीच बचाव करना पड़ा।
आशुतोष मानें या न मानें लेकिन शायद आज उन्हें लगता होगा कि जिन लोगों के लिए, जिस ‘क्रांतिकारी पार्टी’ के लिए उन्होंने अपना सब कुछ दांव पर लगाया, वो इसकी हकदार नहीं थी। या ये कहें कि वो सुशील गुप्ताओं की तरह पार्टी के ‘लायक’ नहीं थे। चार साल में आशुतोष को इस पार्टी ने क्या दिया? उसकी पत्नी नौकरी नहीं कर रही होती और सेविंग न की होती तो घर चलाना मुश्किल हो जाता। वो तो उसकी जररुतें ही इतनी कम हैं कि हताश हुए बगैर चार साल तक वो टिका रहा।
आशुतोष जब चैनल में था, तब उसने छुट्टी लेकर अन्ना पर अंग्रेजी में किताब लिख दी। जब राजनीति में आया तो केजरीवाल के आंदोलन को अपनी किताब का विषय बनाया। मुझे लगता है कि किताब तो उसे अब लिखनी चाहिए। अपने अनुभवों पर। अपने साथ हुए गच्चे पर। आंदोलन के गर्भगृह से निकली और उम्मीदों की कब्र पर टिकी ‘क्रांतिकारी पार्टी’ पर। सैकड़ों लेख और तीन किताबें लिख चुके आशुतोष के घर में सैकड़ों किताबों की लाइब्रेरी है। पढ़ना-लिखना उसका सबसे खास शौक है। अब उसके पास इन सब के लिए पहले से ज्यादा वक्त होगा। उसकी एक और किताब लगभग लिखी जा चुकी है। अगली किताब का विषय वो चाहें तो खुद हो सकते हैं - ‘मैं आशुतोष’।
आशुतोष जब तक केजरीवाल की पार्टी में रहे, मैं सार्वजनिक मौकों पर उनके साथ ली जाने वाली तस्वीरों से भी बचता रहा कि कहीं सोशल मीडिया पर खामखा ट्रोल होने का कोई बहाना ये तस्वीर न बन जाए। उसके हिस्से की गालियों में मैं साझेदार नहीं बनना चाहता था। नेता बनने से पहले दोस्तों की महफिल में जब तस्वीरें खींची जाती थी, तो आशुतोष मुझे चिढ़ाते हुए कहता था कि ये फेसबुक पर मत डाल दीजिएगा। नेता बनने के बाद अगर कभी किसी मौके पर तस्वीर खींची भी गई तो मैंने कहा कि मैं आपके साथ फोटो खिंचा रहा हूं, यही बहुत है। फेसबुक पर डालने का जोखिम मैं नहीं मोल लूंगा। चार साल में मैंने आशुतोष के साथ अपनी तस्वीरें सार्वजनिक होने से बचता रहा। अब मैं अपनी तरफ से लगाई गई इस पाबंदी से मुक्त हूं क्योंकि हमारा आशु मुक्त है।
2002 में ‘आजतक’ में हम सब साथ काम करते थे। मैं, सुप्रिय प्रसाद, अमिताभ श्रीवास्तव, आशुतोष और संजीव पालीवाल। हमने अपने इस पांच सदस्यीय मंडली का नाम ‘पी-5’ रखा था। ‘पी-5’ के हम पांच अक्सर दफ्तर से फ्री होने के बाद किसी न किसी के घर पर आधी रात या सुबह तक बैठकी जमाया करते थे। बाद में अलग अलग चैनलों के हिस्सा बने और ‘पी-5’  की बैठकें भी कम हो गईं। अब एक बार फिर हम बैठेंगे आशुतोष। उस आशुतोष के साथ, जो अब नेता नहीं हैं। वैसे ही कभी साथ छुट्टियां मनाने जाएंगे, जैसे नेता बनने से पहले वाले आशुतोष के साथ जाया करते थे।
आखिरी बात, ऐसा नहीं है कि आशुतोष ने जिंदगी में समझौते नहीं किए होंगे या अपने संपादन काल में अपने चैनल की रेटिंग के लिए ‘स्वर्ग की सीढ़ी’ नहीं बनाई होगी, मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा कि ‘हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी। जिस को भी देखना हो कई बार देखना’
sabhar- Samachar4media.com