Ambrish Kumar : अजीत अंजुम शुरू से मजाक उड़ाते रहे हैं, कार को लेकर. अपने पास कोई गाड़ी नहीं है. आमतौर पर रिक्शा, टेम्पो, ऑटो या फिर उबर से चला जाता हूं. दिल्ली में अजीत अंजुम भारी सी गाड़ी रखते थे जब हम लोग डीटीसी वाली बस से चलते थे. तब भी वे कार की काफी चर्चा करते थे. कल लखनऊ आए तो मेरे पास कोई वाहन नहीं था जल्दी घर पहुंचने के लिए ताकि उन्हें बुला सकूं…
खैर आज उन्होंने लखनऊ के किसी बड़े भारी संपादक की गाड़ी की फोटो डाल दी. अब जब चर्चा में गाड़ी हो तो हम जैसे पैदल पत्रकार की कुंठा तो बढ़ेगी ही. यह ठीक नहीं है. बहरहाल भारी गाड़ी आप भी देखें. हालांकि इस मामले के चलते वे सेफ नहीं हैं क्योंकि दिल्ली नहीं जिला गाजियाबाद में रहते हैं. फिर भी हम लोग तो हैं न. फोटो- अजीत अंजुम. अजीत ने जो लिखा है उस पर भी नजर डालें.
Ajit Anjum : कल रात लखनऊ में एक बहुत बड़े संपादक ( संम्पादक) को देखा… लाल रंग की इस गाड़ी पर सवार, बिल्कुल रंगबाज टाइप… स्टाइल से उतरे और होटल ताज में दाखिल हो गए. आप भी देख लीजिए. संपादक जी गाड़ी के नंबर प्लेट पर अपने पद और कद के साथ विराजमान हैं… नंबर ऐसे लिखा है कि 9055 तो समझ आ रहा है, बाकी कुछ दूतावास टाइप लिखा है…
कायदे से तो नंबर प्लेट की ऐसी-तैसी करने के जुर्म में संपादक जी का तुरंत चालान किया जाना चाहिए लेकिन क्या पता पुलिस वाला सलाम भी ठोकता होगा… फोटो तो मैंने कल रात खींची थी लेकिन लखनऊ में रहते हुए डर से पोस्ट नहीं किया. आज दिल्ली आकर लगा कि अब डर काहे का. राह चलते या पास से गुजरते लोग भी कितना ‘सम्मान’ से देखते होंगे कि देखो कितना ‘बड़ा संपादक’ ( संम्पादक ) जा रहा है. है न? इनके अखबार को कितना सरकारी विज्ञापन मिलता होगा?
उपरोक्त दोनों वरिष्ठ पत्रकारों के एफबी स्टेटस पर आए ढेरों कमेंट्स में से कुछ यूं हैं…
Suresh Pant संपादक का घोषित “संम्पादक” होना ही बता रहा है कि कितना भारी सम् पादक है।
Ramesh Parida एक ये हैं, और एक एम. चलपति राव थे, नैशनल हैरल्ड के सम्पादक, जिनका संपादकीय नेहरुजी सुबह पढा करते थे. ढाबे पर बैठे चाय मंगवायी, जब चाय आई, बैठे बैठे परलोक सिधार चुके थे.
Sudhir K S Dixit हां…हां…हां। सर, बड़े अख़बार की नक़ल ही मारनी थी, तो ‘अमर ऊर्जा ला’ ही रख देते नाम ‘संम्पादक’ जी। और वाहन का नंबर तो मध्यप्रदेश के छतरपुर ज़िले के आरटीओ वाला है। काफ़ी ऊर्जावान हैं महाशय।
Raj Kr Pandit इ सरवा त हिन्दी का भी माई/बाप कर दिया संपादक लिखने मे, संपादक भी नही लिखने जानता है। हद है पत्रकारीता का…
Sarojini Bisht हम्म्म्म….अपने पद और कद को वजनी बनाने के लिए आधे म् के साथ बिंदी भी दे दिए हैं ऊपर अब कोई शक नहीं इनके सम्पादक होने पर
Vimalendu Singh कम्बख्त संपादक तो ठीक से लिख लेता
Prabhakar Mani Tewari संपादक की स्पेलिंग भी भारी है….
Rishikant Singh संपादक लिखने भी नहीं आया महाशय को।
Khushdeep Sehgal ‘संम्पादक’…वाकई बहुत बड़े वाले हैं…
Punit Tripathi एक लाल बत्ती की कमी रह गई है
Mukesh Singh Sengar मेरी जांच में पता चला है कि ये गाड़ी मध्य प्रदेश में छतरपुर के किसी रितु नाम के शख्स के नाम रजिस्टर्ड है, कोई गुंडा पत्रकार लग रहा है
Surya Prakash Rai ये पत्र फाड़ टाइप के सम्पादक लोग अपने स्वार्थ में सबकी ऐसी की तैसी किए हुए हैं ।
Abhishek Gupta जिन ज़नाब को ठीक से संपादक (संम्पादक) लिखना नहीं आता वो किस “अमर ऊर्जा” के साथ सीना ताने घूम रहे हैं…इलेक्शन से पहले ऐसे सैकड़ों अखबार और “संम्पादक” कुकुरमुत्ते की तरह उगते हैं, लाखों करोड़ों बनाते हैं और चम्पत हो जाते हैं…और फिर ये तो “ममाने” से आए हैं सर ज़रूर कुछ खास काम रहा होगा रिश्तेदारी में, जरा गाड़ी का नंबर तो देखिए….ये 9055 कुछ कुछ BOSS जैसा नहीं लग रहा….
Zareen Siddiqui गाड़ी और घर में इतना बड़ा संपादक लिखवाते हैं अंदर नेताओं और अधिकारियों की चरण वंदना करते हैं ऐसे ही लोगों मीडिया की गरिमा को कलंकित करते हैं
Sandeep Sinha सर जो जितना बडा बोर्ड लगये वो उतना ही अँगूठा टेक रहता.है..कुछ जगहो पर तो घर के.सामने बडा सा.बोर्ड भी मिलेगा ….लेकिन सर इनके साथ एक खास बात होती है ..इनका दबदबा बहुत.होता है..मतलब काम आप करे और पत्रकरिता का सारा फ़ायदा ये उठाते है.
Satyendra PS ये अपराधी हैं। जिन्होंने पत्रकार और पत्रकारिता का यह हाल कर दिया है कि सामान्य पत्रकार अब अपनी गाड़ी पर प्रेस का स्टिकर लगाने में डरता है कि सामान्य लोग उसे अपराधी न समझने लगें।
Vir Vinod Chhabra तमाम किस्म की ऊर्जा से भरपूर संपादक है। ज़रूर ऊर्जा विभाग के अफसरों का चहेता भी होगा। जब तक हम बिजली विभाग में नौकरी पर रहे तब ऐसे लोग बहुत आया करते थे, इंजीनियर ऑफिसरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग को लेकर। यानी दलाल।
Bunty Tripathi इस कार की कीमत कम से कम 16 लाख है
आशू अद्वैत सर ध्यान से देखिए 9055 को यह बॉस (BOSS) लिखा दिखेगा
Adarsh Gupta इस सजधज से सम्पादक जी जो चाहते थे वह मिल गया इतनी चर्चा और कैसे भी मिलना मुश्किल था ।बदनाम हुए तो क्या नाम तो हुआ। इस गाड़ी को छोटा मोटा पत्रकार तो अफोर्ड भी नही कर सकता।
Pravin Dubey भोपाल में भी ऐसे सरकार द्वारा वित्त पोषित पत्रकारों की भरमार है सर… मैं कभी सरकार को इसके लिए ग़लत नहीं मानता… वो तो सिर्फ बोली लगाती है जिन्हें बिकना है वे बिक जाते हैं…. कुछ तो गले में पट्टा बांधकर सरकार के खूंटे से बंधने को तैयार रहते हैं
Khushdeep Sehgal उनकी ऊर्जा जो अमर है…यहां भी नकल ऐसे की है कि एक प्रतिष्ठित अखबार के नाम का भ्रम हो…
Sabhar- Bhadas4media.com