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20 रुपये मुझ पर उधार


20 रुपये मुझ पर उधार
सुधीर तैलंग
जब मेरी और आलोक की दोस्ती हुई तो वे दोनों के ही स्ट्रगल के दिन थे, फाकामस्ती के दिन थे। तब मैं नवभारत टाइम्स था और आलोक जनसत्ता में। दोनों एक्सप्रेस बिल्डिंग के पीछे या फिर उडुप्पी में बैठकर खाना खाते और ज्यादातर चौबीसों घंटे साथ ही रहते। आलोक शुरू से ही दिलेर, अक्खड़ और मस्तमौला किस्म के इंसान थे। शरारतीपन उनके व्यक्तित्व का हिस्सा था। बाल सुलभ चंचलता जितनी उनकी बातों में दिखती, उतनी ही उनकी लेखनी में भी।
एक बात मैंने महसूस की कि राजनीति में जितने भी खूबसूरत नेता हुए उनमें से ज्यादातर का आकस्मिक निधन हो गया जैसे राजीव गांधी, संजय गांधी, माधव राय सिंधिया, राजेश पायलट या फिर वे पोलिटकली डेथ हो गए। उसी तरह पत्रकारिता में भी जितने बेहतर कलम के सिपाही थे, वे जल्दी ही हमारा साथ छोड़ गए। एसपी, उदयन शर्मा, राजेंद्र माथुर और अब आलोक तोमर। सभी बमुश्किल पचास वर्ष जिए।

आलोक ने जिंदगी को कभी भी सीरियस  नहीं लिया। जब उन्हें कैंसर होने का पता चला तो मैंने आलोक को फोन किया और कहा कि मैं तुमसे मिलना चाहता हूं। आलोक ने कहा कि जब मन आ जाओ लेकिन जब आना तो रास्ते में नाथू के यहां से एक किलो बालूशाही जरूर लेते आना। जब मैं उनसे मिला तो आलोक कहने लगे कि डाक्टर कह रहे हैं कि मुझे कैंसर हो गया है, लेकिन मुझे ऐसा तो कुछ महसूस नहीं हो रहा है। मैं उसकी दिलेरी देख कर दंग था। अगली सुबह सुप्रिया (आलोक तोमर की पत्नी) का फोन आया कि भैया आप जब अगली बार आइएगा को बालूशाही बमुश्किल एक-दो पीस ले आइएगा, क्योंकि कल रात भर में आलोक पूरी एक किलो बालूशाही खा गए।

हमारी दोस्ती की शुरुआती दिनों का ही एक और वाक्या याद आ रहा है। मैं अपनी प्रेमिका जो बाद में मेरी पत्नी बनीं, को डेट पर ले जाना चाह रहा था। लेकिन मेरे पास कुल जमा दो-तीन रुपये थे। मैंने आलोक से कहा तो उसने कहा कि लो मेरे पास बीस रुपये हैं, तुम ले जाओ। आलोक के वो बीस रुपये आज भी मुझ पर उधार हैं। आलोक के जाने पर व्यक्तिगत तौर पर मैंने जो खोया है वह तो खोया ही है। हिंदी पत्रकारिता ने भी एक ज्योतिपुंज खो दिया है। जिसकी और भी किरणें अभी बिरखनी बाकी थीं।
(मशहूर कार्टूनिस्ट)
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