"जन्नत" से संसद का नजारा |
लेकिन जो सवाल संसद में उठे और जो जवाब अन्ना हजारे को चाहिए उनका वास्ता किसी आम हिंन्दुस्तानी से कितना है, यह पहली बार कश्मीरियों ने देखा और यह भी समझा कि कश्मीर में भी सियासतदान की तकरीर इससे अलग नही। श्रीनगर के लाल चौक इलाके में अपने छोटे से कमरे में फिरन और कागंडी में सिमटे जेकेएलएफ नेता यासीन मलिक हों या राजबाग इलाके के अपने घर में कलम थामे कश्मीर के सच को पन्नों पर उकेरते अब्दुल गनी बट। हर किसी ने संसद की बहस और अन्ना के आंदोलन को घाटी की उस हकीकत को पिरोने की कोशिश की, जिसमें सड़क पर तिरंगेकी जगह पत्थर उठाने का मतलब मौत होता है और संविधान की दुहाई देती सत्ता के लिये संसद का मतलब अपनी जरुरतों का ढाल बनाना और उससे इतर सवाल पर राष्ट्रभावना को उभारना। 29 की रात संसद की बहस देखने के बाद 30 दिसंबर की सुबह गुस्से भरे सवाल अगर यासिन मलिक के थे तो हुर्रियत कान्फ्रेन्स के अब्दुल गनी बट को अपनी किताब के लिये संसद की बहस ने ऊर्जा दे दी थी। बीतेएक महीने से "बियांड मी " यानी जो मेरे बस में नही नाम से किताब लिखने में मशगूल अब्दुल गनी बट को भरोसा है कि इस ठंड में वह अपनी किताब पन्नों पर उकेर लेंगे। उनके किताबी सफर की शुरुआत 1963से है। जब उन्हें प्रोफेसर की नौकरी मिली। लेकिन 1988-89 में जब पहली बार चुनाव में चोरी खुले तौर पर कश्मीरियों ने देखी और सैयद सलाउद्दीन {अब हिजबुल मुजाहिद्दीन के चीफ } को पाकिस्तान का रास्ता पकड़ना पडा और कश्मीर की सत्ता की डोर नेशनल कॉन्फ्रेंस ने दिल्ली के जरीये पकड़ी। तब जो सवाल कश्मीर में उठे वही सवाल आने वाले दौर में अन्ना हजारे के जरिए हिन्दुस्तान की जनता के सामने भी उठेंगे। क्योंकि चार दशक पहले शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर को लेकर सही सवाल गलत वक्तमें उठाया था और उसका हश्र शेख अब्दुल्ला ने ही भोगा। चाहे उसका लाभ आज उनकी पीढ़ियां उठा रही हैं। कमोवेश अन्ना ने भी सही सवाल गलत वक्तं में उठाया है क्योंकि अभी सत्ता की रप्तार जनता के हक के लिये नहीं बाज़ार और पैसा बनाने की है। और कश्मीर के सवालों को समाधन के रास्ते लाते वक्त मैंने { अब्दुल्ल गनी बट } भी यह महसूस किया कि जो मेरे बस में नहीं था,वह जिसके बस में था उसकी प्रथमिकतायएं कश्मीर को कश्मीर बनाये रखने की थी। बियांड मी कुछ वैसा ही दस्तावेज होगा और शायद आने वाले वक्त में सियासत को भी लगे और हिन्दुस्तानियों को भी क्या संसद के बस में वह सब है जो अन्ना मांग रहे हैं। इसीलिये हक का सवाल भी कहीं कानून तो कही लोकतंत्र और कहीं संविधान की दुहाई में गुम हो रहा है। ब़ट ने कश्मीर के आइने में संसद की बहस को अक्स दिखाया और यह सवाल जब उस हाशिम कुरैशी के सामने रखा, जिन्होंने 1971 में जहाज का अपहरण कर लाहौर में उतारा था तो शालीमार-निशात बाग की छांव तले बने अपने आलीशान घर में चिनार से लेकर अंगूर और अखरोट से लेकर लहसन तक के पौधों को दिखाते हुये कहा कि कश्मीर में सिसमेटे किसी भी कश्मीरी के लिये मौत का सवाल अब सवाल क्यों नहीं है, यह समूचे डाउन-टाउन के इलाके में घरों और दुकानों के बीच कब्रिस्तान को देखकर होता है। दर्जनों नहीं सैकड़ों की तादाद में कब्रिस्तान। और हर मोहल्ले में कब्रिस्तान। लेकिन पर्यटको की आंखें सवाल कब्रिस्तान को लेकर नहीं बल्कि कब्रिस्तान में भी निकले चिनार को देखकर करती हैं। चिनार की इसी छांव में कश्मीर वादी की दिली आग भी हर किसी पर्यटक को लूभाने लगती है। लेकिन पहली बार संसद में आधी रात तक की बहस कश्मीरियों में बहस जगाती है कि उनके सवाल क्यों मायने नहीं रखते। जिस तरह सर्दी के मौसम में बर्फ से पटे पड़े पहाड़ों पर चिनार अपनी सूखी टहनियों के जरिए किसी विद्रोही सा खड़ा नज़र आता है, कमोवेश इसी तरह ठंड के तीन महीनो में हर कश्मीरी चाय-रोटी, कहवा-सिगरेट या फेरन-कागंडी में सिमट कर रहते हुये उन नौ महीनों के दर्द को बेहद महिन तरीके से प्रसव की तरह सहता है। शायद इसीलिये मुंबई में खाली पड़े मैदान में अन्ना के आंदोलन को लेकर बेकरी की दुकान चलाने वाला इम्तियाज यह कहने से नहीं चुकता कि जो अन्ना कश्मीर पर दिये अपने टीम के एक सदस्य के साथ खड़े नहीं होते तो वह आंदोलन को कैसे आगे ले जाएंगे।और संसद के भीतर नेमा हाल नहीं है। लेकिन फिल्म राक स्टार बनाने वाले इम्तियाज अली को सड्डा हक के बोल कश्मीर से ही मिले। मौका मिले तो उनसे पूछ लीजिएगा "साड्डा हक कित्थे रख", क्योंकि उन्होंने कश्मीर में भी खासा वक्त गुजारा है। Sabhar-mediasarkar.com |