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कॉरपोरेट राजनीति तैयार है


संदीप पांडेय


लोकतांत्रिक राजनीति में कॉरपोरेट घरानों की घुसपैठ गंभीर चिंता का विषय है. सर्वविदित है कि राजनीति में धन की जरूरत पड़ती है. पहले यह धन जनता और पूंजीपतियों से चंदे के रूप में लिया जाता था. धीरे-धीरे चंदे की जगह वसूली शुरू हो गई. जिस तरह निजी कॉलेजों में डोनेशन देना मजबूरी है, उसी तरह औद्योगिक घरानों की भी राजनेताओं व राजनीतिक दलों को जबरन चंदा देना मजबूरी हो गई.
कॉरपोर्ट राजनीति

वसूली के इस कार्य में गुंडे-माफिया सहायक होते थे अत: राजनीति में उनकी एक भूमिका तय हो गई. धीरे-धीरे वे राजनीति में केंद्रीय भूमिका में आ गए. बहुमत जुटाने के वक्त उनका बाहुबल भी उपयोगी सिद्ध होने लगा. लेकिन पैसों की बढ़ती भूमिका से अब निजी कंपनियों ने राजनीति पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया है.

निजी कंपनियों पर पूरी तरह हावी हो चुकी हैं. अब तो निजी कंपनियां सरकारी नीतियां तक तय करने लगी हैं. इनके प्रतिनिधियों की सरकारों में घुसपैठ होती है, कहीं तो सीधे मंत्री के ही रूप में. हम जिन्हें जन प्रतिनिधि चुनते हैं, उनमें से बहुत से निजी कंपनियों के दलाल हो जाते हैं.

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 2जी स्पेक्ट्रम की आवंटन नीति को खारिज कर 122 लाइसेंस रद कर देने से यह साफ हो गया है कि केंद्र सरकार के मंत्रियों ने देश को बेशर्मी से लूटा है. कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री ने ए. राजा को 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन न करने का सुझाव दिया था. किंतु प्रधानमंत्री का यह बयान तर्कसंगत नहीं लगता कि गठबंधन सरकार को बचाने की मजबूरी में वह राजा पर अंकुश नहीं लगा पाए थे. इस पूरे कांड के लिए प्रधानमंत्री जिम्मेदार हैं और उन्हें इस्तीफा देना ही चाहिए.

इसी तरह उत्तर प्रदेश में किस पैमाने पर भ्रष्टाचार हो रहा था इसका अंदाजा मायावती द्वारा अपने ही मंत्रियों को निकालने की संख्या से लगाया जा सकता है. यह बात गले नहीं उतरती कि प्रदेश में जो कुछ भी हो रहा था उसकी मुख्यमंत्री को कोई जानकारी नहीं थी. क्या पोंटी चड्ढा या बाबू सिंह कुशवाहा को बहनजी का संरक्षण प्राप्त नहीं था? जैसे केंद्र के भ्रष्टाचार के लिए प्रधानमंत्री दोषी हैं उसी तरह उत्तर प्रदेश के भ्रष्टाचार के लिए मायावती दोषी हैं.

चूंकि मुख्यधारा के सभी दल पूंजीपति हितों के संरक्षक बने हुए हैं, तो जनपक्षीय नीतियां कैसे बनेंगी? महंगाई कैसे दूर होगी? गरीब-अमीर के बीच खाई कैसे पटेगी? कुपोषण कैसे दूर होगा? महिलाओं में खून की कमी, मातृत्व मुत्यु दर कैसे कम होगी? सभी बच्चे कब पढ़ पाएंगे? बेरोजगारी कैसे दूर होगी? क्या यह लैपटॉप और गाय बांटने से दूर होगी?

उत्तर प्रदेश में सत्ता के दावेदार सभी बड़े दल भ्रष्ट हैं. कुछ सांप्रदायिक रंग में रंगे हैं. राजनीति से भ्रष्टाचार खत्म हो, इसमें अपराधियों की घुसपैठ खत्म हो और राजनीति को पेशा मानने के बजाए सेवा भावना से आए व्यक्ति ही जन प्रतिनिधि बनें, तब कहीं जाकर राजनीतिक तस्वीर बदलनी शुरू होगी. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के संदर्भ में यह समझना जरूरी है कि भ्रष्टाचार की मूल वजह हमारी राजनीतिक व्यवस्था का कॉरपोरेट वित्त पोषण है. जब तक राजनीतिक व्यवस्था का चरित्र नहीं बदलता तब तक भ्रष्टाचार से पीछा छुड़ाना संभव नहीं है. चुनावी राजनीति की बड़ी पूंजी पर निर्भरता समाप्त करने का एक तरीका यह है कि राज्य चुनाव का खर्च उठाने की जिम्मेदारी लें.

आजकल युवा नेताओं का बोलबाला है. किंतु क्या ये सामान्य युवा हैं? 30-40 वर्ष की आयु में कौन सा सामान्य युवा किसी राष्ट्रीय-प्रादेशिक दल का नेता बन सकता है, वह भी बिना किसी जमीनी आधार के. ये तथाकथित युवा नेता तो सामंती वंशवादी परंपरा की देन हैं जिन्हें पार्टी नेतृत्व विरासत में मिल गया है.

लोकतंत्र में यह सवाल तो कोई पूछ ही नहीं रहा कि नेता का बेटा कैसे नेता बन गया? यह तो घोर अलोकतांत्रिक बात है. जिस दल के अंदर लोकतंत्र नहीं है वह लोकतंत्र को कैसे मजबूत करेगा? भ्रष्टाचार और अपराध की नींव पर टिकी सामंती सोच वाली राजनीति एक भ्रष्ट-आपराधिक-सामंती व्यवस्था का ही निर्माण कर सकती हैं. ऐसी राजनीति को जड़-मूल से खत्म किए बगैर हम सही लोकतंत्र का सपना साकार नहीं कर सकते.

आज लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र विरोधी दल व्यवस्था पर हावी हैं. ये सत्ता को अपनी जागीर समझते हैं और मनमाने ढंग से काम करते हैं. यदि अन्ना हजारे जैसा कोई व्यक्ति इन्हें चुनौती देता है, तो ये लोकतंत्र की दुहाई देने लगते हैं. भ्रष्टाचार को बढ़ावा देकर, अपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को संसद व विधानसभाओं में पहुंचाकर, दलों को निजी कुनबे की तरह चलाते हुए राजनेता लोकतंत्र व संसद की गरिमा को बढ़ा रहे हैं या गिरा रहे हैं?

राजनीति से मुद्दे गायब हो गए हैं इसलिए संसदीय बहस या कार्यवाही की गंभीरता भी खत्म हो गई. क्या हमारे संविधान निर्माताओं में से किसी ने सोचा होगा कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब विधायक सदन में बैठ कर अश्लील तस्वीरें देख रहे होंगे? क्या इस तरह की कार्यवाही से सदन की गरिमा नहीं गिरती?

लेकिन फिर भी राजनीतिक दल अपने तौर-तरीके बदलने को तैयार नहीं. वे उन्हीं भ्रष्ट व आपराधिक पृष्ठभूमि वालों पर निर्भर हैं जो उनकी सरकारें बनवा सकते हैं. राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण इन दलों के लिए बड़ा मुश्किल हो गया है कि वे गलत तरीके और लोगों को छोड़ कर सही को अपना लें. अन्ना हजारे के आंदोलन की तरह अब जनता ही उन्हें बदलने को मजबूर करेगी. अगर वे फिर भी नहीं सुधरते, तो जनता उन्हें अपने मताधिकार से खारिज कर देगी.
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