-योगेन्द्र यादव-
जो पुणे में हुआ वो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि डॉक्टर सुहास पलशिकर ने अपने पूरे अकादमिक करियर में लोगों को अंबेडकर के बारे में सिखाया है, खुद मेरे लिए वो अंबेडकर पढ़ाने वाले गुरु समान रहे हैं और ऐसे व्यक्ति पर कुछ अनपढ़ लोग अंबेडकर के नाम पर हमला करें, इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण और विडंबना की बात और क्या हो सकती है.
रही मेरी अपनी सुरक्षा की बात, मुझे नहीं लगता है कि मुझे इस बारे में खास चिंता है. जीवनभर सार्वजनिक जीवन में दलित साथियों के साथ काम किया है, दलित आंदोलन के साथ काम किया है और अगर नासमझी में किसी ने कुछ कर भी दिया तो भी दलित आंदोलन के साथ काम करने का एक छोटा हिस्सा होगा, और क्या कहें.
पिछले 24 घंटे की घटनाओं के आधार पर संसदीय लोकतंत्र के बारे में अपनी धारणा बदलना तो वाजिब नहीं होगा. मैं संसद का सम्मान करता हूं, एक संस्था के रूप में. हमारे जो सांसद हैं और देश के राजनेता हैं, मैं उनका भी सम्मान करता हूं क्योंकि मैं राजनीति में आस्था रखता हूं.
'सांसदों की नासमझी'
राजनीति इस देश की प्राणवायु है. जो अच्छा है, बुरा है- दोनों राजनीति के जरिए होता है और राजनीति को सिर्फ इसलिए खारिज कर देना कि कुछ राजनेताओं ने हल्के किस्म की हरकत की ये बहुत बड़ी भूल होगी. इतना जरूर है कि कल और कल ही नहीं, इससे भी पहले संसद में एक-दो बार पाठ्य पुस्तकों पर बात हुई है, इससे पहले हिंदी में हुई थी और प्रेमचंद की कहानी पर चर्चा हुई थी.
उन सबमें सांसदों ने जिस नासमझी का परिचय दिया है, जिस पाठ्य पुस्तक ने अंबेडकर को स्थापित करने की कोशिश की, उस पाठ्य पुस्तक को अंबेडकर विरोधी करार दिया है.
बिना एक शब्द पढ़े किसी चीज के बारे में राय व्यक्त की ये सब सांसदों की और संसद की गरिमा के अनुरूप नहीं है और मुझे यकीन है कि इस भेड़चाल से मुक्त होकर हमारे देश की संसद कुछ बेहतर सोच सकेगी.
और अगर नहीं सोचती तो एक नागरिक के नाते मेरा फर्ज है कि मैं संसद को चेताऊं, संसद को बताऊं लेकिन उस संस्था का निरादर करना भूल होगी.
अगर हम ईमानदारी से बात करें तो हमें पूरे समाज को इस दायरे में लेना चाहिए. सवाल केवल संसद के भीतर हो रही असहिष्णुता का नहीं है, संसद के बाहर भी ये हो रहा है.
चाहे वो किसी धर्म के मामले में हो, चाहे कोई फिल्म बन जाती है अभी भी हमारे समाज को इन मूल्यों का आदर करना चाहिए कि कुछ चीजें होती हैं जिन्हें सरकार के अंकुश से बाहर रखना चाहिए, जिन्हें समाज के अंकुश से बाहर रखना चाहिए. एक स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था में कुछ ऐसे कोने होने चाहिए जिन्हें बहुमत से मुक्त रखा जाना चाहिए.
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कपिल सिब्बल ने कहा कि ऐसी पाठ्य पुस्तकों की बिक्री तुरंत प्रभाव से रोक दी गई है
ये समझना हमारे समाज के लिए बहुत कठिन रहा है. तमाम तरह की घटनाओं में हमने देखा है और मैं समझता हूं कि समाज ठोकर खाकर सीखता है. उस ठोकर में एक-दो छोटे लोग शहीद हो जाते हैं, वो छोटी बात है.
कहीं न कहीं ये प्रतीकों की राजनीति है और ये खौफ है कि यदि मैं एक सही चीज के पक्ष में खड़ा दिखाई न दिया तो न जाने मुझे क्या हो जाएगा. ये खौफ कल हमने काफी संजीदा सांसदों में भी देखा जो अन्यथा बड़े संजीदा लोग हैं सही तरीके से सोचते हैं. उसकी वजह मैं समझता हूं वो एक बुनियादी कमजोरी में है, जो केवल मानसिक कमजोरी नहीं है. जो लोग जमीन से दलित समाज के लिए राजनीति कर रहे हैं, जो दलित समाज के दुख-दर्द और उनके संघर्ष में शामिल हैं उन्हें इन संकेतों की राजनीति से खौफ नहीं होगा.
अमूमन जो लोग जमीन पर कुछ नहीं कर रहे होते हैं लेकिन फिर भी अपनी दुकान ठीकठाक रखना चाहते हैं, वो इन संकेतों की राजनीति में ज्यादा उलझते हैं. कांचा इलैया ने जो कहा वो मैं सुन नहीं पाया लेकिन जो रिपोर्टिंग मैंने सुनी वो सुनकर मुझे बहुत अफसोस हुआ क्योंकि खुद डॉक्टर अंबेडकर ये नहीं मानते थे. उन्होंने खुद कहा कि 'हीरो-वर्शिप' लोकतंत्र के लिए बड़ी खतरनाक बात है.
असहमति की रक्षा
रही बात इन पाठ्य पुस्तकों की. इनमें सिर्फ अंबेडकर पर कार्टून नहीं हैं, इसमें नेहरू पर कई कार्टून हैं, इसमें इंदिरा गांधी पर अनेक कार्टून हैं. गांधी जी के बारे में कार्टून हैं और जाहिर है कार्टून किसी का महिमामंडन नहीं करते, ये विधा है जो चोट करती है और जो लोग इस विधा का क, ख, ग नहीं समझते हैं, उन्हें कुछ समझने की जरूरत है और हां, हमें इस किस्म की प्रवृत्ति का बाकायदा निषेध करना चाहिए. लेकिन ये लड़ाई है जो सिर्फ एक कानून से, सिर्फ एक सरकार से, सिर्फ संसद के दो सदनों से न लड़ी जाएगी न हारी जाएगी न जीती जाएगी.
इसके लिए हमें, आपको, सबको सड़क पर आकर खड़ा होना होगा. जो व्यक्ति अपने आप को जनतांत्रिक मानता है, वो अपने आप से एक बात पूछे, क्या मैंने कभी ऐसे व्यक्ति के अधिकार की रक्षा की जिससे मैं असहमत था. ये मैं समझता हूं एक कसौटी होनी चाहिए. जिससे मैं असहमत हूं, क्या मैं उसके न्यूनतम अधिकार की रक्षा करने के लिए खड़ा होने को तैयार हूं. जिस दिन हम सब ये करने को तैयार होंगे, लोकतंत्र सुदृढ़ होगा.
अरुण शौरी की किताब वास्तव में डॉक्टर अंबेडकर के विरुद्ध आलोचना करते हुए, काफी तीखी और कई बार एक मर्यादा के पार आलोचना करती किताब थी, मैं उसकी भी रक्षा करुंगा. जो उन्हें तथ्य लगते थे, उन्होंने उसके आधार पर लिखा था, एक लोकतंत्र में वो कहने का भी सम्मान होना चाहिए. जिससे असहमत हैं, उसके अधिकारों की रक्षा करना एक लोकतांत्रिक मूल्य है.
असहिष्णुता और निरक्षरता
"कृत्रिम तरीके से ओढी गई संवेदनशीलता हमारे समाज में विकसित की जा रही है. मैंगलूर में पब वाली हरकत हो, शिवाजी के नाम पर हरकत हो, चाहे वो अरविंदो वाली किताब के बारे में हो, सलमान रुश्दी के बारे में, इन तमाम मामलों में विरोध करने वाला, असहिष्णुता दिखाने वाला, दूसरे विचार का गला घोंटने वाला वर्ग दरअसल आधुनिक शिक्षा लिए हुए, किसी न किसी आधुनिकता का सपना लिए होता है, मैं समझता हूं ये हमारे समाज का आधुनिक रोग है और हमें इसकी आधुनिक काट बनानी होगी."- योगेंद्र यादव
इस लिहाज से मैं अरुण शौरी के किताब लिखने और छापने के अधिकार की रक्षा करना चाहूंगा. लेकिन एनसीईआरटी वाली किताब बुनियादी तौर पर एकदम भिन्न है क्योंकि डॉक्टर अंबेडकर के दर्शन को हमारे संविधान में स्थापित करने और उनके महत्व को स्थापित करने का एक भाव इसमें अंतर्निहित है.
ये न सिर्फ हमारे समाज की असहिष्णुता का परिचय है बल्कि हमारी राजनीतिक निरक्षरता का भी परिचय है. कल तक जो आरएसएस, बीजेपी वाले करते थे, वही आज अंबेडकर के नाम पर हो रहा है, परसों किसी और नाम से हो जाएगा. लेकिन असहिष्णुता के साथ ही ये निरक्षरता का भी लक्षण है कि अब हम पढ़ना भी नहीं चाहते कि हम किस चीज का विरोध कर रहे हैं.
हर लोकतंत्र का अपना एक मिजाज होता है. उसकी अपनी एक गति होती है. उसके अपने गुण होते हैं, उसकी अपनी सीमाएं होती हैं. यूरोप के लोकतंत्र की कहानी दरअसल इतनी गौरवमय है नहीं क्योंकि वो समाज एक सीमित अर्थ में लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा कर सका लेकिन जहां-जहां विविधता का सवाल आया, उन समाजों को बहुत दिक्कत हुई. वैचारिक सहिष्णुता और संस्थाओं की स्वायत्तता हमारे लोकतंत्र की बहुत बुनियादी खामियां हैं जिसमें हम मर्यादाएं बना नहीं पाए.
आधुनिक रोग
मर्यादा का उल्लंघन हुआ या नहीं, उससे पहले ये देखना होगा कि मर्यादा है क्या और इसके बारे में हमारा समाज, हमारा लोकतंत्र कुछ स्वस्थ परम्पराएं अभी विकसित नहीं कर पाया है. जहां हम किसी चीज से असहमत होते हैं, वहीं हम उस चीज पर पाबंदी लगाना चाहते हैं, चाहे कोई किताब हो नया विचार हो. इस सहिष्णुता को विकसित कर सकना हमारे लोकतंत्र के लिए बहुत गहरी चुनौती है.
आज ये असहिष्णुता सिर्फ दाएं बाजू से या बाएं बाजू से नहीं आ रही है बल्कि ये चारों तरफ से आ रही है. इस स्वायत्तता और सहिष्णुता को दीर्घकालीन परिपाटी के तौर पर विकसित करना होगा.
हर समाज अपने 'सेंस ऑफ ह्यूमर' को अलग-अलग विधा में अलग-अलग स्थान पर अलग-अलग तरीके से व्यक्त करता है. अपने ही समाज के बारे में हिंदुस्तानी जिस तरह से चुटकुले सुनाते हैं, मैं समझता हूं दुनिया में उसका कम मुकाबला होगा, परम्परागत समाज में राम के बारे में क्या नहीं बोला गया, क्या नहीं लिखा गया.
कृत्रिम तरीके से ओढी गई संवेदनशीलता हमारे समाज में विकसित की जा रही है. मैंगलूर में पब वाली हरकत हो, शिवाजी के नाम पर हरकत हो, चाहे वो अरविंदो वाली किताब के बारे में हो, सलमान रुश्दी के बारे में, इन तमाम मामलों में विरोध करने वाला, असहिष्णुता दिखाने वाला, दूसरे विचार का गला घोंटने वाला वर्ग दरअसल आधुनिक शिक्षा लिए हुए, किसी न किसी आधुनिकता का सपना लिए होता है, मैं समझता हूं ये हमारे समाज का आधुनिक रोग है और हमें इसकी आधुनिक काट बनानी होगी.
(योगेन्द्र यादव वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. ये लेख बीबीसी से साभार)