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उस ने मरना भी चाहा तो आहट सुनाई दी


-दयानंद पांडेय-

उस ने मरना भी चाहा तो आहट सुनाई दी / हम आप को हीरो कैसे मानें राजेश शर्मा?

‘उस ने मरना भी चाहा तो आहट सुनाई दी।‘ सरीखी कविताएँ लिखने वाले राजेश शर्मा आज अपनी मौत नहीं मरे, तकलीफ इस बात की भी है। मरना सभी का तकलीफदेह होता है पर राजेश शर्मा अपने लिए ऐसी शर्मनाक मौत चुनेंगे किसी को यह मालूम नहीं था। शायद उनको भी नहीं। वह तो आज सुबह जब दफ्तर के लिए चले तो अपनी नतिनी से बाकायदा टाटा, बाय-बाय करते हुए हंसी खुशी चले थे। पर दफ्तर तक आते-आते उन्हें क्या हो गया कि एक नहीं दो-दो सुसाइड नोट लिखे। एक दफ्तर की मेज पर टेलीफोन के नीचे दबा दिया और दूसरा ड्राइवर के हाथ घर भेज दिया। दोनों चिट्ठियों का मजमून लगभग एक था पर पत्नी को भेजी चिट्ठी में हाशिए पर उन्होंने लिखा, “मैं शर्मिंदा हूं। ”



सचमुच हम सब शर्मिंदा हैं कि एक मित्र, एक कवि, एक संवेदनशील व्यक्ति की तकलीफ को समझ नहीं पाए। समझने की कोशिश भी नहीं की। वह तो कोई दो साल से अपनी तकलीफ, अपनी बीमारी, अपने डिप्रेशन की चर्चा जब तब, जिस-तिस से करते रहते थे। पर सबने उसे ‘रूटीन’ में ले लिया। और लेते रहे। वह भी। ‘जो सुनना तो कहना ज़रूर’ उन का इकलौता कविता संग्रह है। इसी शीर्षक कविता में वह कहते हैं, ‘इसी लिए चुप्पी नहीं भाषा होनी चाहिए/ भाषा वह जो कहती हो/ एक-एक, शब्द वह जो करता हो/ ईंट-ईंट स्तब्ध।” तो सचमुच आज हर कोई यह खबर सुनकर स्तब्ध रह गया। अवाक रह गया। ‘प्रकारांतर पाठ’ कविता में वह लिखते हैं, ‘जब से मैं कार्यमुक्त हुआ/ हमारी दिलचस्पी बीमारियों में बहुत बढ़ गई है/ यह बीमारी पेर लेती है/ खीज देती है/ सोख लेती है।’ लेकिन राजेश तो अभी अगले साल रिटायर होने वाले थे और उन का दामाद अभी कह रहा था कि इस समय तो वह बिलकुल ठीक थे। तो क्यों किया राजेश ने ऐसा? राजेश शर्मा की एक कविता है, ‘अच्छी कविता किताब में नहीं होती/ अच्छी कविता किताब बंद कर देती है।‘ उन की इस कविता को क्या उन की आत्महत्या की प्रतिध्वनि में ही सुनें? राजेश शर्मा एक संवेदनशील और सामर्थ्यवान कवि थे। पर ‘चर्चित’ और ‘प्रसिद्ध’ नहीं थे। तो क्या ‘चर्चित’ और ‘प्रसिद्ध’ न हो पाना ही उन के जीवन के लिए कठिन हो गया?

मुद्राराक्षस की मानें तो यह बात भी हो सकती है। मुद्रा मानते हैं कि. “शायद उन के लेखन को, उन के काम को जो मान्यता न मिल पाना है, यह भी हो सकता है। जो क्रिएटिव सेटिसफैक्शन नहीं मिल पाया। यही वजह है कि ऐसी घटना हो गई। कम से कम अस्सी प्रतिशत तो वही है। जो एकांत था उन का, मित्रों का एकांत, यही बात हो गई थी।” मुद्रा जोड़ते हैं, “पर एक बहुत संवेदनशील कवि, कहानीकार, व्यक्ति और मित्र का न रहना, बहुत गहरा दुख दिया। साहित्य की दुनिया में ऐसी घटना बहुत कम होती है।” लेकिन नरेश सक्सेना राजेश की आत्महत्या को उन के दफ्तर सूचना विभाग से जोड़ कर देखते हैं। वह कहते हैं कि, “वह सूचना विभाग पहले तो उन के रचनाकार को खा गया फिर डिप्रेशन दे कर आज उन्हें ही खा गया।” वह बुदबुदाते हैं, ”इधर तो उन का व्यवहार भी बदल गया था। मित्रों के साथ भी।” राकेश राजेश की जिंदादिली को याद करते हैं और कहते हैं कि, ”विश्वास ही नहीं हो रहा अभी भी। उन की जिंदादिली विश्वास करने ही नहीं देती।”




आज के बुजदिल राजेश शर्मा सचमुच ही जिंदादिल थे। कम लोग जानते हैं कि उन्हों ने एक विधवा से विवाह किया था दो बेटियों सहित। ऐसा उन्हों ने आदर्शवादी होने के नाते किया था। आज यह बात कुछ सामान्य लग सकती थी। पर बरसों पहले जब उन्हों ने ऐसा किया था तब यह आसान नहीं था। एक ज़मीन तोड़ी थी राजेश शर्मा ने।

राजेश शर्मा की ज़िंदगी में पांच हीरो थे जवाहर लाल नेहरू, नौशाद, दिलीप कुमार, सुनील गावस्कर और सितार वाले बिलायत खां। पर जब इलाहाबाद में राजेश शर्मा ने एक विधवा से विवाह किया था तो वह भी इलाहाबाद में हीरो माने जाते थे। खास कर जिन स्थितियों में उन्हों ने किया। हेमवती नंदन बहुगुणा तक ने उन्हें सलाम किया था। पर राजेश शर्मा ने कभी अपने इस हीरो रूप की चर्चा या प्रचार नहीं किया। दोनों बेटियों तक को इस बात का एहसास नहीं होने दिया। और बहुत संभव है बेटियां अभी भी इस बात से अनभिज्ञ हों। पर यह हमारे तब के हीरो राजेश शर्मा का बड़प्पन था। लखनऊ में जैसे एक समय यशपाल, भगवती चरण वर्मा और अमृतलाल नागर की त्रिवेणी थी ठीक वैसे ही एक समय मुद्राराक्षस, प्रबोध मजूमदार और राजेश शर्मा की भी तिकड़ी थी। उन दिनों यह तीनों हर शाम काफी हाउस में सब से कोने वाली मेज पर मिला करते थे। दिसंबर, 1978 में राजेश शर्मा से मेरी पहली भेंट काफी हाउस के मेज पर मुद्राराक्षस ने करवाई थी। राजेश शर्मा गोरखपुर के एक हिंदी दैनिक में कुछ समय रहे थे। उन्हों ने गोरखपुर का होने के नाते तुरंत मुझे जोड़ लिया था। एक कवि के इलाज के लिए हम सब आए थे। और चारबाग के एक होटल मे ठहरे थे। होटल का नाम सुनते ही वह बोले, ”काहें पैसा फूंक रहे हो।” कह कर वह होटल से सामान उठवा कर अपने डालीगंज वाले घर ले गए। हफ़्ते भर तक रहने की बात थी, बीमार थे। पर वह ले गए और खुशी-खुशी। जैसा कि कई लोग उन पर ‘अपरिचित’ हो जाने का आरोप लगाते हैं पर मुझे ऐसा कभी नहीं लगा। वह तो हमेशा परिचित ही मिले। सिर्फ़ आज के दिन 4 मार्च, 1997 को छोड़ कर।

बाद में वह डालीगंज का मकान छोड़ कर सरकारी कालोनी ओ.सी.आर. की दसवीं मंज़िल पर आ गए। उन दिनों वह परेशान रहते। कहते, ”सो नहीं पाता हूं। ट्रकों की रात भर की आवाजाही सोने नहीं देती।” वह अंतत: गोमती नगर में एक ‘घर’ बनवा कर रहने लगे। पर क्या पता था कि यह ‘घर’ जल्दी ही बिसर जाएगा उन्हें और कि चौदह मंज़िले ओ.सी.आर. का भूगोल जानना उन्हें इतना कायर बना देगा कि वह जिंदगी से ही छलांग लगा बैठेंगे।

खाने-पीने के शौकीन रहे राजेश शर्मा ने इन दिनों खाना-पीना लगभग तज दिया था। एक मित्र की पार्टी में बीते दिनों वह ताज होटल में मिले। बड़े इसरार के बाद उन्हों ने बस सूप लिया। बोले, ” डॉक्टरों ने अब सब कुछ मना कर दिया है। उबला खाना ही अब नसीब है।” फिर वह अपने डिप्रेशन और डायबिटिक होने की चर्चा में लग गए। पर तब हमेशा ही की तरह हम लोगों ने उनके डिप्रेशन को रूटीन में लिया था।

नवीन जोशी राजेश शर्मा की कविताओं को सदानीरा नदी की तरह मानते थे। उन की कविताएं हैं भी ऐसी ही। राजेश शर्मा खुद भी सदानीरा नदी थे। पर अपनी सदानीरा नदी को वह गंदले नाले की ओर क्यों ले गए, वह भी शायद ठीक से जान नहीं पाए होंगे। जानते होते तो सुसाइड नोट के साथ ही पत्नी को मंजन भी क्यों भिजवाते वह। लिखा कि, “पिछले कुछ महीनों से जीवन से दिलचस्पी पूरी तरह समाप्त हो चुकी है और हर चीज़ से तबीयत ऊब गई है। बिना कारण पैदा हुए इस अवसाद का सिलसिला अब मैं समाप्त करने जा रहा हूं।” सचमुच पूछना चाहता हूं राजेश शर्मा कि आपने ऐसा क्यों किया? ऐसा कौन सा अवसाद था जो बिन कारण था? हम आप को हीरो मानते थे पर कायरता क्यों कर दी आप ने? क्यों? ऐसे में हम आप को हीरो कैसे माने राजेश शर्मा? अपना यह अवसाद हम किस छलांग के हवाले करें भला? राजेश शर्मा, सुन रहे हैं आप? लिखते तो आप थे कि “ जो सुनना तो कहना ज़रूर।” तो अब यह सुन कर क्या कहना चाहेंगे? कि आप की कविता ही सुनूं : “शायद हमें पता था/ अधिक रुकना खतरनाक होता है” या कि : “ जिंदा आदमियों ने/ उस से कहा-/ तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं/ हमारी लिस्ट/ बहुत लंबी है....।” या कि : ‘ पर हर बात की बात में/ एक बात बचती है/ उस बची हुई बात में/ वह बहुत बेचैन था/ बहुत अकेला था/ डरे हुए जानवर की तरह/ कभी-कभी/ एक असहाय आदमी की तरह...।” या कि : “बेशर्म बीज की तरह/पड़ जाए हमारे मन में।” की तरह इस घटना को भी गांठ लें।




दयानंद पांडेय

अपनी कहानियों और उपन्यासों के मार्फ़त लगातार चर्चा में रहने वाले दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ। हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए। 33 साल हो गए हैं पत्रकारिता करते हुए। उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई डेढ़ दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं।

लोक कवि अब गाते नही पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद सम्मान तथा कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान।

बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), 11 प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण), सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’ नाम से प्रकाशित।

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