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कुछ अनुभव पत्रकारिता के (1)

म जालंधर, पंजाब से उठ कर कई जगह पत्रकारिता के अनुभव समेटे अर्जुन शर्मा के कुछ संस्मरण प्रकाशित करने जा रहे हैं. पेश है उस की पहली कड़ी...-संपादक

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पत्रकारिता से जुड़े लोगों के पास अनुभवों का खजाना होता है। पत्रकार जब अपनी कलम से समाज की बुराइयों का बेधन शुरू करता है तो उसके सामने कठिनाइयां आती हैं। कुछ को धंधेबाजी के मौके मिलते हैं। कुछ आंख मूंदने की कीमत ले लिया करते हैं। बाहर वालों के लिए पत्रकारिता किसी विशेष आकर्षण से कम नहीं लेकिन जो पत्रकारिता की दुनिया के हिस्सा हैं वो लाख कठिनाइयों के बावजूद इससे दूर नहीं हो पाते। वो वो कोई और काम करने लायक नहीं रह जाते। जैसे जहाज के पंछी को जहाज पर ही रहना होता है वैसे ही पत्रकारिता से जुड़े लोग इस विचित्र दुनिया को छोड़ कर कहीं खुश नहीं रह पाते, संतुष्ट नहीं हो पाते। छपास की आदत, बाइलाइन, एक दिन का इतिहास निर्माता होने का भ्रम, जनता में पहचान... ये सब जीवन का हिस्सा बन जाता है।

पत्रकारिता-अनुभवों का खुलासा आसान नहीं

कुछ अनुभव पत्रकारिता के, ये शीर्षक मेरे जेहन में तब से फंसा हुआ है जब आल इंडिया रेडियो जालंधर से प्रसारित होने वाले युवाओं के कार्यक्रम में मुझे बतौर सब्जैक्ट चुना गया व इंटरव्यू लेने वाली जमात का आदमी होने के बावजूद उस कार्यक्रम में मुझे इंटरव्यू देना था। यह वर्ष 1995 की बात है। तब पत्रकारिता में आए हुए मुझे सात साल हुए थे व उन दिनों मैं प्रतिष्ठित राष्ट्रीय दैनिक नवभारत टाइम्स का पंजाब में एकमात्र संवाददाता था। कार्यक्रम का शीर्षक यही था...कुछ अनुभव पत्रकारिता के....। जब मुझे इस प्रोग्राम में शामिल होने का न्यौता मिला तो कार्यक्रम की आयोजिका श्रीमति रश्मि खुराना से मैंने कहा कि मैं पत्रकारिता जैसे ग्लैमरस पेशे में जरूर हूं पर अनुभवों के लिहाज से इंटरव्यू देने वाली मेरी स्थिति अभी बहुत ज्यादा ठोस नहीं है। पर उन दिनों एक नामवर राष्ट्रीय दैनिक का प्रतिनिधित्व पूरे पंजाब में केवल मैं ही करता था व वो कार्यक्रम युवा पत्रकार के अनुभवों के आधार पर सृजित किया गया था, सो मेरी कोई सुनवाई नहीं हुई। जब मैं हॉट सीट पर बैठा व रिकार्डिंग शुरु हुई, तब मेरे मन में न केवल एक खौफ सा छा गया बल्कि इस कार्यक्रम की सार्थकता का विश्लेषण मुझे डराने भी लगा। पत्रकारिता में अनुभवों को लेकर कहीं कोई ऐसा सवाल न पूछा जाए जो किसी विवादित अनुभव से ताल्लुक रखता हो या रेडियो पर किसी के खिलाफ ही कुछ उगल न बैठूं। अभी कैरियर के लंबे रास्ते तय करने थे व सात सालों में ही मैं कई बड़े लोगों के साथ पहले ही बहुत सारे विवाद मोल ले चुका था। कहीं उन विवादित विषयों पर बातचीत न हो जाए। तब मुझे लगा कि पत्रकारिता के अनुभवों का खुलासा करना आसान काम नहीं है। जैसे तैसे उस इंटरव्यू में आए तीखे सवालों के गोलमोल जवाब देकर जान बचाई पर बातचीत का क्रम काफी रोचक रहा।

इस घटना के तीन साल बाद मेरे सामने ऐसे हालात आए कि मुझे मजबूरन उस दौर के बहुत से अनुभव बाकायदा कलमबद्ध करने पड़े। यह बात वर्ष 1998 की है व मैं तब शिमला में दिव्य हिमाचल समाचार पत्र का प्रादेशिक ब्यूरो प्रमुख था। उसके बाद अनुभव कलमबद्ध करने का सिलसिला जम नहीं पाया व वापिस पंजाब आकर अनुभवों की नई पारी खेलने में जुट गया।

पत्रकारिता एक ललित कला (फाईन आर्ट) है। इसके स्वरूप में चाहे बहुत से बदलाव आए हैं पर जिस प्रकार मीडिया का व्यवसायीकरण हुआ उतनी तेज़ी से ही समाचार माध्यम जनता की जरूरत भी बनते गए। पत्रकारिता से बावस्ता लोगों के अनुभवों का दायरा बहुत विशाल हो जाता है। समाचारपत्र के जूनियर रिपोर्टर से लेकर ब्यूरो चीफ के स्तर तक व कार्यकारी संपादक से मालिक के बीच की सीढ़ी पर बैठे लोगों के पास विविध प्रकार के अनुभव होते हैं। यह पक्की बात है कि जब समाज के हर वर्ग के साथ किसी न किसी रूप से जुड़ा पत्रकार अपनी कलम से समाज की बुराईयों का बेधन शुरु करता है तो उसे कठिनाइयां भी आती हैं। धंधेबाजी के मौके भी मिलते हैं व आंखें मूंदने की कीमत भी मिल जाया करती है पर इन सारे संदर्भों के बावजूद एक बात तय है कि पत्रकारिता जहां इस पेशे से बाहर वाले लोगों के लिए विशेष प्रकार के आकर्षण से कम नहीं है वहीं पत्रकारिता, दुनिया का शायद पहला विचित्र व्यवसाय है जिसमें विचर रहा व्यक्ति चाहे हालात से लेकर पेशे की मज़बूरियों व हो रहे शोषण के खिलाफ पत्रकारिता को जितना मर्जी कोस ले, हज़ार बार तौबा कर ले कि कोई और काम कर लेगा, पर जहाज के पंछी को जिस तरह जहाज पर ही जाना होता है वैसे ही पत्रकारिता से बावस्ता लोग इस विचित्र दुनिया को छोड़ कर कहीं भी खुश नहीं रह सकते, संतुष्ट नहीं रह सकते। छपास की आदत,बाई लाईन,एक दिन के इतिहास निर्माता होने का भ्रम व अखबार छपने के बाद जनता में चटकारे पर संपादक द्वारा आज का चर्चा भी किए बिना आने वाले कल के लिए दौड़ लगवाने वाले हालात। उफ...। पत्रकारिता के सम्मोहन में फंस कर आकाश छूने वालों को भी मैं जानता हूं व किसी दौर में पत्रकारिता के हीरो रहे लोगों के गुमनामी भरे आखिरी दौर भी मैंने देखे हैं। कई स्वं-मोहित व आत्म मुग्धता के शिकार 'महान' पत्रकारों की अतार्किक इगो को देखा व भुगता भी है जो अपनी सही स्थिति का बिना कोई मूल्यांकन किए दूसरे पत्रकारों, खास तौर पर पेशे में आए नए लोगों को कीड़े मकौड़ों से ज्यादा नहीं मानते। ऐसे लोगों की चढ़त व पतन दोनो दौर देखे हैं। इस पेशे में आए धंधेबाजों के बने महलों की नींव भी देखी है,पत्रकारिता की आढ़ में गुंडागर्दी का भी गवाह रहा हूं तो कहीं बेहद विनम्र व सचमुच महान लोगों के चरण स्पर्श करने का फख्र भी हासिल है, जो बहुत कुछ होते हुए भी कभी अपने मुंह से अपने बारे में एक शब्द कहना भी गुनाह समझते। कुछ भी कहें हमारे पेशे में एक खास किस्म का ग्लैमर है, फिल्मी दुनिया जैसा। जैसे रजत पट पर छाया हुआ सितारा धीरे-धीरे अपनी आभा खोता हुआ गुमनामी के अंधेरे में गुम हो जाता है व अचानक एक दिन फिर से छा जाता है वैसा ही दौर पत्रकारिता में भी आता है। पर.... इसके साथ पत्रकारिता की पीड़ा भोगने वालों को भी जानता हूं जिन्हें इस पेशे ने तनाव, डिप्रैशन व सेहत खराब करने जैसे दर्द दिए हैं पर इसके बावजूद वे बात करते हुए कई बार अतीत की उन सुनहरी यादों में खो कर सब गम भूल कर अपने दौर की विशेषताओं व नए दौर की कुरीतियों पर विषवमन करने से नहीं चूंकते। ऐसी मानसिकता वालों को कुछ लोग सनकी मान लेते हैं तो कुछ लोग दर्द के मारे मासूम करार देते हैं जिनके पास बीती यादों को दोहराने के अलावा कुछ और नहीं बचता। कुछ भी कहें,पत्रकारिता के जिस दौर की मैं पैदायश हूं तब और आज के दौर में बहुत बदलाव आ चुके हैं। पहले जहां तकनीक इतनी विकसित नहीं थी वहीं पत्रकारिता में मूल्यों का आदर होता था। संघर्ष तब भी था आज भी है पर फर्क इतना है कि पहला दौर योग्यता का था, आज ज्यादातर तरक्की के पीछे योग्यता का उतना ज्यादा दख्ल नहीं रहता बल्कि जोड़तोड़ में महारत व तरक्की देने वाले को खुश करने की योग्यता रखने वाले के लिए तरक्की की गुंजायश ज्यादा है। मूल्यों का भी नए दौर में काफी पतन हुआ है। खास तौर पर छोटे स्तर से शुरुआत करने वाले के लिए मूल्यों व नैतिकता की बात सोचते हुए पत्रकारिता में जीवित रहना ही बहुत बड़े संघर्ष के गवाह बनते-बनते, किसी हादसे का शिकार होने जैसा है। संपादकों के मायने बदल चुके हैं। कामकाज के तौर तरीकों में व्यापक बदलाव आ चुके हैं इसलिए पुराने दौर को ढूंढने की कोशिश को अहमकाना कोशिश करार दिया जा सकता है। हालांकि पत्रकारिता में आए मुझे बीस साल हुए हैं पर पिछले पच्चीस साल से इस पेशे से जुड़े लोगों व साथियों की मानसिकता को मैं अच्छी प्रकार जानने बूझने का विनम्र दावा तो कर ही सकता हूं। वैसे अपने अनुभवों को लिखने की प्रेरणा मुझे वरिष्ठ साहित्यकार सुरेश सेठ जी द्वारा तीन दशक पहले लिखी गई एक पुस्तक 'शहर वही है' तथा गीता डोगरा द्वारा लिखित आत्मकखा के कुछ पन्नों 'बयान दर्ज हो' से भी मिली। खास तौर पर सुरेश जी की पुस्तक में उनके जीवन का तमाम जिक्र न होते हुए केवल छोटे-बड़े साहित्यकारों के साथ उनके अनुभवों का बेहद रोचक शैली व साहित्यक अंदाज में विवरण मिलता है। मेरी उम्र अपनी आत्मकखा लिखने लायक नहीं है और न ही जीवन में इतनी ज्यादा उपलब्धियां हासिल कर पाया हूं कि आत्मकथा लिखने बैठ जाऊं पर इन दो किताबों से इतना संकेत जरूर मिला कि अपने अनुभव लिखने के लिए उम्र का विशेष दख्ल नहीं होता।

बीते दौर के अनुभवों को लिख देने से बहुत सारे अपनों के रूठने का जोखिम तो है ही पर मेरी कोशिश रहेगी कि किसी पर निजी आक्षेप लगाने से बचूं व प्रस्तुति में मिठास को कायम रखूं पर यदि कुछ तथ्य ही कड़वे निकल आएं तो मैं उस मामले में बेईमानी नहीं करूंगा। मेरा ख्याल है कि पिछले दो दशकों में पंजाब या हिमाचल के किसी पत्रकार ने अनुभव लिखने का जोखिम नहीं उठाया। हां कुछेक लोगों ने उपन्यास की शैली में अपनी भड़ास निकालने जैसी कोशिशें तो की हैं। पर किस रचना को गंभीरता से लेकर उसे इज्जत बख्शी जाए, ऐसे फैसले तो पाठकों की अदालत में ही हुआ करते हैं।

किस्सा सांध्य मिलाप का......

सांध्य शुरू न हुई, दिल टूटा सपने टूटे

यह किस्सा काफी रोचक है। एक संभावित अखबार, जिसके प्रकाशन की तैयारियों को लेकर मैने बहुत दिल से काम किया, उसके प्रस्तावित स्वरूप की रचना की,उसमें जान डालने की सारी कवायद की व अंतत तीन महीने बाद उन सारी कोशिशों की शवयात्रा भी मेरे घर ही आई, एक फाईल के रूप में जो सांध्य मिलाप को शुरु करने की तैयारियों की गवाह है व मेरे पास आज भी सुरक्षित है। मैने अपना कैरियर हिंदी मिलाप से शुरु किया था। वर्ष 1988 में परम आदरणीय यश जी ने इस दसवीं पास दिशा विहीन नौजवान को हिंदी मिलाप में पत्रकार बनने का अवसर दिया था। यश जी के साथ बहुत सी यादें जुड़ी हुई हैं। मैं यह मानता हूं कि मेरे हाथ से प्लास व पेचकस लेकर,कलम थमा कर मेरे जीवन का अध्याय बदलने वाले श्री यश ही थे। (पत्रकारिता में आने से पहले मैं इलैक्ट्रिशन का काम करता था) शायद यही कारण है कि मिलाप भवन के साथ मेरा भावनात्मक रिश्ता है। ईमानदारी से कहूं तो हिंदी मिलाप के लगभग मृतप्राय हो जाने के बावजूद भी पता नहीं क्यों मेरी यह धारणा रही है कि मिलाप की संभावनाएं पूरी तरह से समाप्त नहीं हुईं।

बात वर्ष 2000 की है। दो जून को श्री यश की बरसी का वार्षिक आयोजन था। उन दिनों मैं अमर उजाला के जालंधर संस्करण में स्टाफ रिपोर्टर हुआ करता था। यश जी के सपुत्र विश्वकीर्ति (जिन्हें हम शुरु से ही विक्की भाजी कहते हैं।) ने चार लाइनों की खबर भेजी जिसमें स्व. श्री यश की बरसी से संबंधित हवन यज्ञ का विवरण था। यश जी के प्रति मेरी श्रद्धा कभी भी छुपी नहीं रही सो तत्कालीन सिटी चीफ यूसुफ किरमानी ने वो खबर मुझे लिखने को दी। मैने उसे विस्तार में बना दिया व श्री यश की कद्दावर शख्सियत पर भी दो पैरे लिख दिए। तीन जून को विक्की का फोन आया,'अर्जुन, मिलाप के दफ्तर में आओ, तुमसे काम है।' ऐसा अक्सर ही होता था, जब साल में एकाध बार विक्की बातचीत के लिए बुला ही लिया करते थे। मैं गया तो उन्होंने बड़ी गंभीरता से मेरे सामने मिलाप का सांध्य संस्करण शुरु करने का प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव ज्यादा रोचक इसलिए लगा क्योंकि उसे शुरु करने की पूर्व तैयारियों से लेकर संपादन का सारा काम मेरे कंधों पर डालने की पेशकश की गई। उस समय जालंधर में कोई भी सांध्य दैनिक नहीं था। उत्तम हिंदू करीब दशक पहले ही डेली मार्निंग हो चुका था, जय नंदन बंद हो गया था व सांध्य चिराग को बंद हुए भी काफी समय बीत चुका था। मैदान खाली था व संभावनाएं बेहतरीन थीं। मैने सहर्ष यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। न्यूज कोआर्डीनेटर का अप्यांटमेंट लैटर व अमर उजाला के मुकाबले अच्छा वेतन। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि जिस अखबार के दफ्तर से कैरियर शुरु किया था (व तत्कालीन परिस्थितियों के चलते ज्यादा समय टिक नहीं पाया) वहीं पर बारह साल बाद संपादक के आस-पास के पद पर मुझे दोबारा चुना गया था। खास तौर पर उन परिस्थितियों में जब हिंदी मिलाप के सामने अस्तित्व का संकट था जिसे पुनर्जीवित करने के लिए शहर में उपलब्ध कई वरिष्ठ पत्रकारों के बजाए मुझ पर यह दॉव लगाया गया।

पांच जून को मैने अमर उजाला में त्यागपत्र दिया व बत्तीस साल छह महीने की आयू में मिलाप भवन में पूरी सजधज व संपादक जैसी अकड़ के साथ प्रवेश कर गया। वहां मुझे एक इतिहास लिखना था, अपनी योग्यता को प्रमाणित करके दिखाना था और छोटी सी उम्र में यह सब एक बड़ी चुनौती जैसा था। खैर बैठकों का दौर शुरु हुआ। मैने रंगमंच के एक अनुभवी पर बेरोजगारी का दंश झेल रहे कलाकार विंसेट फ्रैंकलिन को अपना सहयोगी बनाया और काम शुरु कर दिया। जैसे ही मीडिया जगत में यह बात फैली कि मिलाप का सांध्य संस्करण बहुत जल्द आने वाला है,चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया। मिलाप में फिर से रौनकें लगने लगीं। शहर के 'मूर्धन्य' पत्रकारों में एक खास किस्म की बहस छिड़ गई। खास तौर पर सांध्य मिलाप का कर्ता-धर्ता मुझे बनाए जाने पर तो ज्यादातर पत्रकारों ने नाक मुंह सिकोड़ा,'यह मुंह और मसूर की दाल' जैसे तंज कसे गए। खास तौर पर मुझ से बीस साल सीनियर पत्रकार अशोक सूरी की समस्या यह थी कि वे हिंदी मिलाप में पिछले बारह साल से पार्ट-टाइम उप-संपादक के तौर पर काम कर रहे थे। वे घोषित रूप से मेरे हर कदम के विरोधी रहे हैं व अपने अंदर छिपी कुंठा को उन्होंने सार्वजनिक करने से कभी परहेज नहीं किया। उन्हें मुझ पर इस बात को लेकर गुस्सा था कि मिलाप के इस महत्वाकाक्षी प्रौजेक्ट की तैयारी के दौर में वे हिंदी मिलाप के डेस्क पर आया करते थे पर विक्की ने उन्हें सांध्य मिलाप के संदर्भ में शामिल करना तो दूर उनसे बात तक नहीं की थी। हालांकि इसमें मेरा कसूर नहीं था व मैने तो पहली बैठक में ही विक्की को सलाह दी थी कि सूरी जी को भी इस परियोजना में शामिल किया जाए पर विक्की ने पूरी सख्ती से इनकार कर दिया था। मेरी भावना से बेखबर सूरी हमेशा अपने चिड़चिड़े अंदाज में ताने मारते ही मुझ से मिलते,प्रस्तावित अखबार की खिल्ली उड़ाने वाले अंदाज में मेरे सामने ही ढेरों बददुआएं देते व कहना बेटी को सुनाना बहू को वाले अंदाज में अप्रत्क्षय रूप से यह ताना कसना नहीं भूलते कि दुनियां में आजकल काबलियत का नहीं चमचागिरी का जमाना है। हालांकि पूर्वाग्रहों से ग्रसित इस व्यक्ति के भीतर की योग्यताओं का मैं सदा ही कायल रहा हूं। पहले पन्ने की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खबरों को कंपाइल करने में उनका कोई सानी नहीं है। डेस्क के काम में उनकी प्रतिभा नायाब है। फील्ड के काम में भी वे कामयाब हैं पर शब्दों की जादुगिरी दिखाने वाली कला उनमें न होने के कारण वे सदा ही क्रिएटिव राइटिंग के जबरदस्त आलोचक रहे हैं। उनकी जुबान कुछ ज्यादा ही कड़वी व दृष्टिïकोण फिल्मी राजकुमार जैसा है जिसे दुनिया में अपने अलावा सभी अधूरे लगते हैं। मेरे विरोध का ले-देकर उनके पास यही तर्क था कि यह बच्चा क्या जाने अखबार क्या होती है और पत्रकारिता क्या होती है। मजेदार बात यह है कि उनकी भावनाओं की मुझे मुक्कमल जानकारी थी पर मेरे मन में उनके प्रति कभी द्वेष भावना इसलिए नहीं आई क्योंकि वे बहुत सीनियर थे व अपना काम अच्छे से करना जानते थे पर उनकी बदजुबानी सदा ही उनका सारा खेल चौपट कर देती थी। सूरी साहिब की एक बात सबसे खास है कि वे जरूरत से ज्यादा बड़बोले होने के बावजूद टांग खिंचाई जैसे खेल खेलना उन्हें नहीं आता। वे अकेले ही मेरे आलोचक थे,ऐसा भी नहीं था। दूसरा नम्बर हिंदी मिलाप के चतुर खिलाड़ी भारत भूषण का था, वे प्रबंधक थे। उनकी फितरत का उल्लेख मुहावरे की भाषा में करना हो तो पंजाबी की प्रसिद्ध उक्ति 'उज्जड़े बागां दे गालड़ पटवारी' उनके 'बहुमुखी' व्यक्तित्व का खुलासा करने के लिए प्रयाप्त है। वे पहले दिन से ही सांध्य मिलाप के आईडिए के विरोधी थे पर जुबान से कुछ न बोलते हुए अपनी शारीरिक भाषा व हाव-भाव से जता देते थे कि उनकी पुरानी सल्तनत में कोई भी सेंधमारी नहीं कर सकता। तीसरे सज्जन लाला जी थे जिनके 'समाज सेवक' पिता अविनाश चड्ढा ने उनका नाम पवन कुमार रखा था पर शराब को जीवन का एकमात्र लक्ष्य मानने वाले पवन को लाला कहलवाना पसंद था। लाला का काम था, हिंदी मिलाप के दफतर में बैठ कर उल्टी-सीधी ही नहीं बल्कि बचकाना हरकतें करते रहना। किसी न किसी बहाने से ऊपर की मंजिल पर मिलाप परिवार के निवास में जाकर विक्की की शराब की बोतल से पैग पी आना और शाम ढलने के बाद विक्की के लिए सोढ़े बर्फ के इंतजाम में जुट जाना लाला की रुटीन थी। उसका बाप अखबारों में चित्र छपवाने का एडिक्ट था व उसके नाम के साथ समाज सेवक शब्द जरूर छपे इसका जुगाड़ करना भी उसे आता था। समाज की उन्होंने कितनी सेवा की इसका तो कोई विवरण नहीं मिलता पर बड़ा बेटा शराब के दिन रात सेवन के कारण चल बसा था,बुढ़ापे की लाठी छोटा बेटा लाला मौत से शर्त लगाने वाले अंदाज में शराब का रसिया था और समाज सेवक जी को कभी भी इन छोटी-मोटी बातों की परवाह नहीं थी। लाला मानसिक रोगी था व किसी के भी हल्के से उकसाने पर कोई भी हरकत कर सकता था। हिंदी मिलाप के स्टाफ में तीन महिलाएं भी थीं जिनमें दो कंप्यूटर आप्रेटर व एक डेस्क सहयोगी प्रोमिला वर्मा। ऐश्वर्य राय जैसी इस सुंदरी को मैं जब भी देखता तो सोचता कि लाला जैसा बेवकूफ यदि इसके साथ कोई अभद्रता करे तो सुंदरी कैसी प्रतिक्रिया दे सकती है। पर कुछ ही दिनों में मुझे पता चल गया कि सुंदरी भी विचित्र किस्म की है। छोटी सी बात से खुश होती तो दमकने लगती और छोटी सी बात से नाराज होती तो चार दिन उसका मुंह टेड़ा रहता। इतने सारे विचित्र चरित्रों के बीच विक्की का रवैय्या बहुत खटकता। वो सारी प्रक्रिया से उदासीन हद तक लापरवाह था व सारा दिन मिलाप भवन की ऊपरी मंजिल पर अपनी आरामगाह में बादशाहों की तरह पड़ा टीवी देखता रहता,अखबारें व पत्रिकाएं पढ़ता व मूड़ होने पर ही नीचे उतरता। हालांकि मेरे साथ उसका व्यवहार बेहद दोस्ताना था पर मुझे यह बात बहुत ज्यादा खटकती कि यश जी जैसे महान पत्रकार का बेटा एक महत्वाकाक्षी प्रोजेक्ट शुरु करने जा रहा है पर उसकी पल-प्रतिपल की प्रगति में दिलचस्पी क्यों नहीं लेता? इस प्रकार के धुंध भरे व रहस्यमय वातावरण में मैं प्रतिबद्ध था कि सांध्य मिलाप के माध्यम से अपनी योग्यता को साबित करना है,शायद यही कारण था कि बिना माहौल की गंध को पहचाने मैं युद्ध स्तर पर जुट गया। जालंधर शहर को खबरों की ज़द में लेने के लिए जो व्यूह रचना की गई उसके तहत दैनिक जागरण में जूनियर रिपोर्टर के पद पर काम कर रहे पर योग्यता के लिहाज से विश्वास के लायक युवा पत्रकार विनय राणा को मैने सिटी चीफ के तौर पर चुना। विनय में संभावनाएं काफी भरपूर थीं व कलाकार होने के कारण खबरों को समझने व लिखने का उसका नजरिया मेरे विचारों को सूट करता था। विनय उत्साही भी था, इसके अलावा वो ऑन-लाईन काम करना भी जानता था तथा जालंधर के पत्रकारिता जगत में वो पहचाना भी जाता था। हमारी टीम के तीन सदस्य हो गए थे। धीरे-धीरे कुछ नए लोगों ने भी संभावित अखबार में हाथ आजमाने के लिए दस्तक दी। मैने नए लोगों को भी पूरा महत्व दिया जिनमें राजेश योगी,पवन शर्मा व अन्य लोग थे जो पत्रकारिता को कैरियर बनाना चाहते थे। जून महीने के अंत तक हमारा नेटवर्क काम करने लगा। हिंदी मिलाप के पन्नों में जहां पहले जालंधर डेटलाइन लगभग नदारद रहा करती थी व पत्रकार सम्मेलनों में भी हिंदी मिलाप का कोई नामलेवा नहीं बचा था वहीं दूसरे अखबारों की तरह हिंदी मिलाप में भी एक पन्ने व कभी कभी उससे भी ज्यादा खबरें जालंधर से छपने लगीं हालांकि हमारा काम सांध्य अखबार निकालना था पर प्रयोग के तौर पर भी और वैसे भी हिंदी मिलाप हमारे पास एक ऐसा मंच जरूर था जो डमी छापने से कई गुणा बेहतर था। असल में किसी भी अखबार के निकलने से पहले तैयारी का दौर बड़ी छटपटाहट भरा होता है क्योंकि फील्ड के लोग काम तो करते हैं पर उनका काम बाहर की दुनियां को नहीं दिख पाता व उनकी गतिविधियों की पहुंच दफ्तर के भीतर संपादक तक ही होती है। ये स्थिति कई बार निराशा भर देती है पर यदि वही काम अभ्यास के दौरान भी छपा हुआ दिखे तो टीम में हौसला बना रहता है। हमारी ऐसी ही स्थिति थी। टीम में पूरा उत्साह था। हमें इंतजार संसाधनों का था। जैसे कि कंप्यूटर,फील्ड स्टाफ के लिए वॉकी सेट(क्योंकि उन दिनों मोबाईल की काल बहुत महंगी थी व सांध्य अखबार की डेडलाईन व भागदौड़ को समेटने के लिए यह सोचा गया था कि ताजा खबर देने के लिए रिपोर्टर सीधे संपादकीय विभाग के संपर्क में रहेंगे, जिसके लिए मोटरोला कंपनी के वॉकी सेट किराए पर लेने की योजना थी) व सांध्य अखबार का अलग से संपादकीय विभाग। जुलाई शुरु हो गई, अखबार निकालने की डेडलाइन 15 अगस्त रखी गई। सारी टीम मुस्तैद थी पर मालिक का कोई अता-पता ही न था। फिर पता चला कि विक्की गर्मी की छुट्टियां बिताने शिमला गए हैं। संपर्क किया गया तो उन्होंने काफी उत्साहित होकर कहा कि हिंदी मिलाप के स्वरूप में आ रहा बदलाव शिमला में भी नोटिस किया गया है। वे जल्दी ही वापिस आकर सारे प्रबंध करेंगे। 15 जुलाई के आसपास विक्की शिमला से वापिस लौटे। उनकी गैरहाजरी में हिंदी मिलाप के पुराने स्टाफ के लोगों ने मेरी टीम को जम कर हतोत्साहित किया। तंज कसे गए। सांध्य मिलाप के जन्म को लेकर विक्की की निष्ठा पर सवाल उठाए गए। नई टीम के सदस्यों का मनोबल बनाए रखने के लिए मुझे बड़ी मशक्कत करनी पड़ी। स्थिति यह हो गई कि एक दिन सवेरे आकर देखा तो पाया कि हमारे संयुक्त टेबल पर लगा फोन का सेट गायब है। कोई तसल्लीजनक जवाब न दे। भारत भूषण व सूरी जी की व्यंग्य भरी मुस्कान से मेरी टीम चिढ़ी बैठी थी। मुझे यह देख कर धक्का लगा कि सांध्य मिलाप के लिए तैनात फौज की पस्ती का यह आलम था कि मिलाप भवन की पुरानी लायब्रेरी वाले कमरे में पड़े लकड़ी के पलंग पर सभी ढ़ेर हुए बैठे थे। मुझे हकीकत फिल्म का वो दृष्य याद आ गया जब जंग में मार खाने के बाद दर्रों में भटक रहे भारतीय सैनिक 'हो के मजबूर मुझे उसने बुलाया होगा' जैसा निराशाजनक गीत गाते फिल्माए गए थे। उस वक्त मेरी मनोस्थिति भी अपने साथियों से भिन्न नहीं थी क्योंकि सांध्य मिलाप को लेकर अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई थी। पर टीम लीडर होने के नाते मैं निराशाजनक विचारों को दिमाग से झटक कर फिर से टीम के उत्साह को बढ़ाने की सोचने लगा। मैने विक्की के बेटे विशाल को प्रेरित किया कि वो अपने पापा के दफ्तर में आकर बैठे व शुरु किए गए काम को गति दे। विशाल अभी बीसेक साल का था। उसने पापा के दफ्तर को खुलवाया व मीटिंग कॉल की। विरोधी खेमा बेहद निराश था पर मेरी टीम उत्साह से भर गई। विशाल ने विश्वास दिलाया कि जल्द ही सारे संसाधन उपलब्ध करवा दिए जाएंगे। पेज़ों पर क्या-क्या जाना है, हम उसकी योजना में जुट गए। नए-नए कालम सोचे जाने लगे। पहले पन्ने का ले-आऊट बनाया गया। अखबार के संभावित साइज़ को मापने के लिए एक डम्मी छापी गई। अखबार का नारा घड़ा गया 'आज की खबरें आज' विज्ञापन नीति बनाई जाने लगी ताकि सांध्य मिलाप को मुनाफे का प्रॉजैक्ट बनाया जा सके। निसंदेह सांध्य मिलाप को लेकर मैं काफी भावुक था क्योंकि इसकी सफलता ने मेरे गुरु श्री यश के घराने को फिर से अखबारों की दुनिया में चर्चित करवाना था। मैं अपने साथियों का मनोबल बढ़ाने के लिए उन्हें अपने घर रात के खाने व ड्रिंक पर बुलाया करता। भविष्य पर चर्चा की जाती,नए-नए सपने बुने जाते। हालांकि हाहाकारी स्थिति को मैं भांप चुका था व इस बात को लेकर चिंतित था कि जो लोग मेरी एक आवाज पर एक हुए हैं उनका भविष्य क्या होगा? मैं किसी को बताता नहीं था कि विक्की के साथ इतनी दूरी आ गई है कि हम दोनों एक ही भवन में होते हैं पर मुझे उनसे बात करने में भी कठिनाई हो रही है। क्योंकि जब नीचे से मैं फोन करता हूं तो विक्की उठा कर कहता है कि अभी आया। पर न तो वो आते हैं न ही दोबारा फोन उठाते हैं। मेरी समझ से बाहर था कि यह सब हो क्या रहा है। मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता था कि विक्की ने हम सबको बेवकूफ बनाने के लिए यह सारा प्रपंच किया है। आखिर हमारी तो उससे कोई दुश्मनी भी नहीं थी! ऊपर से कोढ़ में खाज वाली स्थिति यह थी कि हिंदी मिलाप का स्टाफ हमें दूसरे खेमे का मान कर चलते हुए असहयोग से लेकर मजाक उड़ाने की मुद्रा में था। मैं बेहद मानसिक तनाव के हालात में था, तभी मेरे पुराने मित्र व लुधियाना के पत्रकार अशोक सिंघी मिलाप के दफ्तर में आए। मैं कंप्यूटर कक्ष में था, वे आधा घंटा बेसब्री भरा इंतजार करते रहे। मैने बाहर आते ही चायपानी पूछा तो उन्होंने कहा कि बाहर चलो कोई जरूरी बात करनी है। मैं उनके साथ मिलाप भवन से बाहर निकला। कडक़ती गर्मी में हम सामने की चाय वाली दुकान पर पहुंचे, वहां दैनिक भास्कर के डिप्टी जीएम व संपादकीय सलाहकार श्री भल्ला खड़े थे। मुझे सिंघी ने बताया कि वो आजकल लुधियाना से दैनिक भास्कर के लिए काम कर रहे हैं व जालंधर से भास्कर को मेरी सेवाएं दरकार है। मैं सोच में पड़ गया क्योंकि जालंधर से भास्कर का काम अशोक सूरी देख रहे थे व पार्ट टाइम मिलाप में आकर मेरे पर तंज कसा करते थे। भास्कर का प्रबंधन उनके काम से संतुष्ट नहीं था। यह विचित्र विडंबना थी कि एक तरफ मैं सांध्य मिलाप के अनिश्चित भविष्य को लेकर जूझ रहा था और भास्कर प्रबंधन का ऑफर बड़े अप्रत्याशित तरीके से मेरे सामने था। फिर मेरे मन में आया कि यदि मैं इन परिस्थितियों में मिलाप छोड़ कर चला गया तो संदेश यह जाएगा कि मैं अपने साथियों व सांध्य मिलाप को बीच मझधार छोड़ कर चला गया । हालांकि मुझे यह भी दिख रहा था कि मिलाप प्रबंधन सांध्य संस्करण को लेकर गंभीर नहीं है। फिर भी रणछोड़ या भगौड़ा होना मुझे कबूल न हुआ। मैने बड़ी विनम्रता से उनको ऑफर के लिए धन्यवाद दिया व बताया कि मैं इस समय एक प्रौजेक्ट का सूत्रधार हूं इसलिए बीच में छोडऩा मेरे लिए संभव नहीं है। वे चले गए। और मैं अनिश्चय से भरे मिलाप भवन में जा घुसा।

जुलाई भी समाप्त हो गया था। मौसम में परिवर्तन का दौर था। बारिश और आंधी बड़े जोरों पर थीं पर हमारी हालत बीच में लटकी हुई थी। हमें कुछ भी स्पष्ट नहीं था कि हमारा क्या होने वाला है। संसाधनों के नाम पर हमें कुछ भी उपलब्ध नहीं करवाया गया। आखिरकार पांच अगस्त को मैने विक्की से सीधी भिडंत का मूड बनाया। मैं और विनय ऊपर चले गए व विक्की की आरामगाह का दरवाजा खटखटाया। विक्की ने बाहर आकर कहा कि वे नीचे आ रहे हैं पर मैने कहा कि आप कई बार कह कर नीचे नहीं आए हमसे साफ-साफ बात करें कि आपका मूड़ क्या है। विक्की ने अपने दफ्तर की चाबियां माली को सौंपी व दफ्तर खोलने का हुक्म दिया। तभी उसने भारत भूषण को बुलाया। हम नीचे दफ्तर में विक्की का इंतजार कर रहे थे। भारत आया,उसके हाथ में लिफाफे थे। उसने कहा कि अब आप जिद मत करें विक्की आपसे नहीं मिलेंगे, आप लोगों का आज तक का वेतन है, इस अध्याय को यहीं समाप्त करें। और सांध्य मिलाप के मार्केट में न आने की आधिकारिक पुष्टि हो गई। हम बुझे मन से अपने-अपने घर चले गए। विनय व योगी दैनिक जागरण में वापिस चले गए और मैं अमर उजाला में वापिस आ गया। एक ऐसे योद्धा की तरह जिसे लड़ाई के लिए तो तैयार किया गया पर अपनी क्षमता दिखाने का अवसर नहीं दिया गया। विक्की की जगह कोई और होता तो शायद झगड़ा भी होता क्योंकि उस व्यक्ति ने हमारे सपनों की हत्या की थी पर विक्की यश जी के पुत्र थे, इस कारण मैं विक्की से नहीं लड़ पाया। खैर समय बीतता गया और मैं दैनिक जागरण में बतौर विशेष संवाददाता काम करने लगा। श्रीमति स्वर्ण यश(विक्की की मां जी) की मृत्यु हुई तब मैं काफी देर बाद विक्की से मिला, अफसोस करने के लिए। हमारी बातचीत फिर से शुरु हो गई। सांध्य मिलाप की भ्रूण हत्या वाले दौर के तीन साल बाद विक्की ने एक दिन मुझे ड्रिंक पर बुलाया। शायद बीते दौर में जो विक्की ने हमारे साथ किया था उसकी मेरे द्वारा कोई शिकायत न किए जाने को लेकर भी उसके मन पर कुछ बोझ था। शराब के दौर में विक्की ने कबूल किया कि उससे गलती हुई क्योंकि उसे पंजाब केसरी के मुख्य संपादक विजय चोपड़ा ने सांध्य न निकालने को कहा था। मैंने हैरानी से सवाल नहीं किया कि आप पर उनका आखिर ऐसा क्या प्रभाव है कि आपने अपने भविष्य के बेहतरीन प्रौजेक्ट से हाथ खींच लिए? असल में उन दिनों अमर उजाला व दैनिक जागरण की आमद के चलते पंजाब केसरी के सामने कड़ी चुनौती के हालात थे। व मेरे बारे में उनकी रॉय शायद यही थी कि मैं भी बागी हूं जो सांध्य मिलाप के फ्रंट से उन्हें कोई नुक्सान पहुंचा सकता था। हालांकि ऐसा कुछ भी नहीं था। पर विक्की अपनी उस भूल के लिए बहुत पछताए। आखिरकार हिंदी मिलाप के पतन के बाद सरकारी तौर पर सुविधाओं से लेकर छोटे-बड़े कामों को लेकर विक्की, चोपड़ा परिवार पर निर्भर करते थे व मानिसिक तौर पर उनके आगे दबैल थे। यह तथ्य मन को दुखी ही करने वाला है कि हिंदी मिलाप,यश जी वाला हिंदी मिलाप कितना असहय व मजबूर हो चुका है। विक्की ने अपने बाप की विरासत को मिट्टी में मिला दिया। अफसोस...अफसोस!

दिव्य हिमाचल के साथ शुरु एक सफर


हे अर्जुन

अपने ठिठुरते कुरुक्षेत्र में जाने से पहले

तनिक रुक कर, सुन ज़रा ध्यान से!

दिव्य हिमाचल से होकर

तुम्हें प्रवेश करना है हिमाचल में, और

छूना है हिमाचल की 'ज़मीन' को

उस 'ज़मीन के सत्य' को!

जिस ज़मीन पर सदैव बर्फ गिरती आई है!

लोग वहां जाते हैं सैलानी बन कर और-

लौट आते हैं बर्फ पर स्केटिंग करके!

तुम्हें वहां स्केटिंग नहीं करना है

तुम अर्जुन पत्रकार हो-

तुम्हें तो वहां रिपोर्टिंग करना है!

रिपोर्टिंग और स्केटिंग में फर्क करना है!

ध्यान से बर्फ हटाना है, ध्यान से कलम चलाना है!

बर्फ के नीचे सोये हैं सदियों से पांचों पाण्डव!

सोये पांचों भाईयों को अपनी 'कलम' से जगाना है!

तेरी कलम से बनी 'पग-डण्डी' पर-

दिव्य हिमाचल को आना है!

दिव्य हिमाचल के पीछे समस्त हिमाचल को आना है!

सो हे अर्जुन!

ध्यान से कलम चलाना है, ध्यान से बर्फ हटाना है!

(शिमला के लिए प्रस्थान करने से पहले मेरे बड़े भाई सरीखे दोस्त, कवि व साहित्यकार शैलेन्द्र सहगल द्वारा मेरे मार्गदर्शन हेतू, शुभकामनाओं व नसीहतों सहित चंद लाईनें लिख तोहफे में दी गई कविता)

अभी तीस साल का भी नहीं हुआ था कि एक बड़ा मौका मिल गया। चंडीगढ़ (व बाद में धर्मशाला से भी)से प्रस्तावित अखबार दिव्य हिमाचल में प्रादेशिक ब्यूरो प्रमुख के रूप में मेरी शिमला के लिए नियुक्ति हो गई। एक पुराने मित्र व वरिष्ठï पत्रकार विजय पुरी व मैने दिव्य हिमाचल में एक ही दिन इंटरव्यू दिया व दोनों चुने गए। हालांकि समाचारपत्र प्रबंधन की पहले दिन से यही मान्यता थी कि अखबार का फोकस हिमाचल पर ही रखा जाएगा पर प्रधान संपादक बी.आर.जेतली खुद खबरों की दुनिया में एक बड़ी हस्ती के तौर पर जाने जाते थे। उनकी मान्यता थी कि पंजाब, खास तौर पर जालंधर, उत्तर भारत में अखबारों की राजधानी है इसलिए जालंधर में एक स्टाफर होना बहुत जरूरी है। बुनियादी तौर पर विजय को शिमला के लिए चुना गया व मेरा चयन जालंधर के लिए किया गया था। पर दो महीने बीतते ही बहुत कुछ उलट-पलट हो गया। इत्तफाक की बात है कि 1991 में जब मैं दैनिक जागरण (तब नोएडा से प्रकाशित) के लिए काम करना चाहता था तब नोएडा स्थित दैनिक जागरण कार्यालय के बाहर सिगरेट के खोखे पर मुझे विजय मिला था। विजय तब शिमला से दैनिक जागरण का स्टाफ रिपोर्टर था। उसी के बताए आईडिए से मैने जालंधर से दैनिक जागरण के लिए अप्लाई किया व मेरी नियुक्ति हो गई। तब से विजय के साथ संबंध थे। दिव्य हिमाचल के दफ्तर में 16 अगस्त 1997 को मुलाकात हुई, उसी दिन नवभारत टाइम्स के पहले पन्ने पर मेरी बाईलाईन बॉटम छपी हुई थी। चौदह अगस्त को वाघा बार्डर पर मोमबत्तियां जलाने वाली कथा की विश्लेषणात्मक रिपोर्टिंग पर आधारित उस प्रकाशित खबर के चलते जेतली साहिब को संदेह था कि मैं शायद ही इंटरव्यू देने आऊं। मेरी तरफ से ये स्थिति थी कि मैं कुछ नया करने के लिए तड़प रहा था और नवभारत जैसे विश्वस्नीय बैनर में कम स्पेस के चलते खुद को स्थापित रखने के लिए मुझे बहुत भागना पड़ता था। हालांकि नवभारत टाइम्स के लिए पंजाब से मैं अकेला ही काम कर रहा था व चंडीगढ़ से श्री गौतम पंजाब, हरियाणा व चंडीगढ़ को प्रादेशिक स्तर पर देखते थे।

दिव्य हिमाचल के संदर्भ में सूत्रधार प्रमोद कृष्ण खुराना थे। हमारा प्रेम तब तक छह साल पुराना हो चुका था। खुराना जी इस प्राजैक्ट में डायरैक्टर मार्केटिंग थे। उनके प्रयासों से मैने इस इंटरव्यू को देने का जुगाड़ किया था जबकि दिव्य हिमाचल प्रबंधन के लिए ये बड़ी बात थी कि टाइम्स ग्रुप से जुड़ा आदमी उन्हें ज्वाइन करने का इच्छुक था।

दूसरी तरफ विजय की स्थिति थोड़ी पतली थी। वो उन दिनों हिमाचल सेवा नामक अखबार में काम करके वक्त काट रहा था। उसे किसी ठोस मंच की जरूरत थी। हमारी मित्रता भी थी तथा हम दोनों कमसे कम इस अपवाद से भी मुक्त थे कि कुत्ते को कुत्ता काटता है। असल में पत्रकारिता के महत्व व पत्रकार को मिलने वाले महत्व के कारण हमारे पेशे में ये कहावत उल्टी हो चुकी है। इस पेशे में कुत्ते को कुत्ता काटता है। बहरहाल विजय और मैं दोनों ही इंटरव्यू को पास कर गए। उसके बाद दफ्तर से बाहर निकले तो मौसम में नमी युक्त गर्मी थी। विजय ने कहा कि माता मनसा देवी के मंदिर (जो दिव्य हिमाचल के चंडीगढ़ आफिस से थोड़ी दूरी पर ही था) में माथा टेकने के बाद ही बाकी की बातें करेंगे। हम मंदिर से फारिग हुए तो विजय ने पेशकश की कि मैं उसके साथ एक दिन के लिए शिमला चलूं। उन दिनों हरियाणा में शराबबंदी थी और शिमला में शराब बहुत महंगी थी। सो हमने दो बोतल शराब ली और पंचकूला के नाके (जहां पर अक्सर ही हर बस की तलाशी होती थी) को पैदल ही पार किया व उसके आगे वाले स्टाप से बस पकड़ ली।

दिव्य हिमाचल-2

जंग शुरु होने से पहले मोर्चे का मुआयना

पंजाब के नमीयुक्त व चिपचिपे मौसम के उलट शिमला में मौसम बेहद खुशगवार था। जाबली पर बस चायपानी के लिए रुकी तो हमने शराब की बोतल से तूम्बा-तूम्बा लगाने का फैसला किया। हम दोनों खुश थे। दोनों की नौकरी का एक ही संस्थान में जुगाड़ हुआ था। हम दोनों की ट्यूनिंग बहुत अच्छी थी। हम एक-दूसरे को बधाईयां देते हुए जाम पर जाम चढ़ा रहे थे। समय शाम का था। हमने बस के कंडक्टर को भी दो पैग लगवा दिये तथा हरियाणा रोड़वेज की उस बस के ड्राईवर को बंसी लाल व कंडंक्टर को भजन लाल कह कर चिढ़ाते हुए मस्ती के आलम में शिमला पहुंच गए। रात ठंडी थी, बरसात भी हो रही थी। हमने बाकी बची बोतल को खाली किया व टहलने के लिए शिमला के रिज मैदान पर चले गए। रात को वापिस लौट कर खाना खाया। दूसरे दिन सुबह मैने विजय से विदा ली और जालंधर के लिए रवाना हो गया। शिमला की हसीन वादियां पीछे छूटती गई और मैं आने वाले प्रदेश पंजाब के मौसम का सामना करने के लिए खुद को तैयार कर रहा था पर न जाने क्यों हिमाचल को छोड़ कर वापिस जाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। शायद हिमाचल मुझे खींच रहा था।

बाईस अगस्त को मुझे दफ्तर से बुलावा आया तथा मुझे अपना बोरी बिस्तर समेट कर पन्द्रह दिन के लिए चंडीगढ़ आ जाने का आदेश हुआ। मैं तेईस अगस्त को सवेरे चंडीगढ़ आफिस में था। अभी कैबिन बन रहे थे। नए महा प्रबंधक राजीव जेतली ने ज्वाइन कर लिया था। खुराना जी व मेरा रिश्ता चाहे बेहद गहरा था। चंडीगढ़ जब भी जाता, खुराना जी के घर ही रात रहता था, खुराना जी का जालंधर प्रवास मेरा गरीबखाना ही होता। पर आफिशियल प्रोटोकोल व नए लोगों के प्रबंधन के चलते मैने खुद ही फैसला किया कि मुझे अपने व खुराना जी के संबंधों को एक सीमा से बाहर जाहिर नहीं करना चाहिए। मेरी समस्या राजीव जेतली ने हल कर दी। वैसे राजीव जेतली मुझे बहुत चालू रकम लगे पर हम दोनों जात भाई थे (नाम के साथ शर्मा लिखता हूं वैसे मैं जेतली परिवार से हूं) इसलिए राजीव पहले दिन से ही मुझे छोटा भाई मानने लगे। ऊपर से तुर्रा ये कि हमारे प्रधान संपादक श्री बी.आर.जेतली, राजीव के चाचा थे व जेतली फैक्टर के चलते वे भी मुझे विशेष स्नेह देने लगे। हमारे जातिगत समीकरणों पर कभी कभी हमारे संपादकीय सलाहकार राधे श्याम शर्मा जी ये टिप्पणी जड़ दिया करते थे कि यहां तो जेतली ही कब्जा करेंगे।

खैर, राजीव जेतली ने सैक्टर सैंतालिस वाले कंपनी के गैस्ट हाऊस में मुझे ठहरा दिया। मैं सुबह दस बजे दफ्तर जाता। वहां बैठ कर अखबारें पढ़ता और इंतजार करता कि जिस काम के लिए मुझे बुलाया गया है, उसकी मुझे सूचना दी जाए। मैं खुराना जी से पूछता भी पर वे इंतजार करने का इशारा कर दिया करते।

तीन-चार दिन बाद विजय पुरी अपना स्कूटर लिए चंडीगढ़ आ धमका। उसे वहां पहुंचा देख कर प्रबंधन को तो कुछ खास फर्क नहीं पड़ा पर राधे श्याम जी की भवें कुछ तनीं। असल में विजय को चंडीगढ़ बुलाया ही नहीं गया था। इस दौरान राधे श्याम जी व जेतली साहिब ट्रिब्यून के रिटायर्ड ब्यूरो चीफ श्री वी.पी.प्रभाकर को लेकर शिमला चक्कर लगा चुके थे। प्रभाकर जी को दिव्य हिमाचल प्रबंधन ने चंडीगढ़ के ब्यूरो चीफ के तौर पर चुना था।

दिव्य हिमाचल के चेयरमैन भानू धमीजा, फिरोज़पुर की पैदायश थे व चंडीगढ़ में पंजाब यूनिवर्सिटी से टॉप करने के बाद अमेरिका गए थे जहां उन्होंने शादी की। कुछ पत्रिकाएं शुरु की व कुछ चल रही पत्रिकाओं का अधिग्रहण किया। सर्कुलेशन मैनेजर व मीडिया रिव्यू नामक पत्रिकाएं अमेरिका में अपना स्थान रखती थीं व किसी ऐसे मीडिया ग्रुप ने जो विभिन्न विषयों पर करीब 160 पत्रिकाएं प्रकाशित करता था, भानू धमीजा को ये पत्रिकाएं बेचने की ऑफर दी साथ ही साथ न बेचने की सूरत में व्यावसायिक मुकाबला करने की चुनौती भी दी। हां जितनी कीमत लगाई उसके चलते भानू धमीज ने पत्रिकाएं बेच कर भारत में एक बड़ा मीडिया हाऊस खोलने की योजना बना ली व अपने परिवार सहित भारत आ गए। यहां उनके मित्र कुल प्रकाश भारद्वाज व अन्य निकटतम मित्रों का पूरा कुनबा मौजूद था। अखबार का सपना लिए भानू धमीजा ने कई लोगों से संपर्क किया जिनमें प्रमोद कृष्ण खुराना एक थे जो मीडिया की दुनिया में काफी गुणी व्यक्ति माने जाते हैं। खुराना ने प्राजैक्ट पर काम शुरु किया। वैसे पहले दिव्य हिमाचल का प्रकाशन चंडीगढ़ से करने की बात सोची गई पर उसमें सबसे बड़ी कमी यह थी कि चंडीगढ़ से तो पहले से ही कई अखबार निकलते थे जो हिमाचल को कवर करते थे। इसलिए चंडीगढ़ से प्रकाशित होकर खुद को हिमाचल के अखबार होने का दावा तर्कहीन सा था। इसलिए धर्मशाला की पहाडिय़ों के नीचे मटौर नामक स्थान पर दफ्तर बनाया गया तथा प्रेस लगाए जाने की तैयारी की गई। हिमाचल को अपना कार्यक्षेत्र बनाने के पीछे भानू धमीजा की खास वजह और भी थी। पहली बात तो ये कि उनका परिवार अमेरिका जैसे ठंडे मुल्क का रहने वाला था व उत्तर भारत में कश्मीर व हिमाचल ही ऐसे प्रदेश थे जहां पर मौसम गर्म नहीं होता। दूसरा कुल प्रकाश भारद्वाज जो अखबार शुरु होने के बाद प्रबंध निदेशक बनाए गए, वे हिमाचल से थे। इसके अलावा हिमाचल से कोई भी स्तरीय अखबार नहीं निकलता था सो हिमाचल को कार्यक्षेत्र के लिए चुना गया। हालांकि ये प्रयोग आसानी से कामयाब होने वाला नहीं था क्योंकि जालंधर या चंडीगढ़ तो मीडिया की मंडी हैं जहां स्टाफ से लेकर मशीनरी सरीखे तमाम संसाधन उपलब्ध थे। पर ये सब जोखिम उठाने को भानू तैयार थे। प्रमोद कृष्ण खुराना का काम भानू को इतना भाया कि खुराना को डायरैक्टर मार्केटिंग का पद दे दिया गया। बी.आर.जेतली जी को मुख्य संपादक बनाया गया जो इंडियन एक्सप्रेस में विशेष संवाददाता के पद से रिटायर हुए थे व फ्री लांसर के तौर पर कई अखबारों व पत्रिकाओं में लिख रहे थे। रिपोर्टिंग की दुनिया में जेतली साहिब बेहद ऊंचे संपर्कों वाले पत्रकार थे, पर उन्हें संपादन का अनुभव नहीं था। दूसरी तरफ राधे श्याम शर्मा जो दैनिक ट्रिब्यून के कई साल संपादक रहने के बाद भोपाल स्थित माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के संस्थापक डायरैक्टर जनरल रहे थे उन्हें संपादकीय सलाहकार बनाया गया। वी.पी.प्रभाकर द ट्रिब्यून से रिपोर्टर का कैरियर शुरु करने के बाद ब्यूरो चीफ के पद से रिटायर हुए थे, उन्हें दिव्य हिमाचल का चंडीगढ़ में ब्यूरो चीफ बनाया गया। (क्रमश.. ..)

दिव्य हिमाचल-3

विजय के साथ शिमला वालों ने खेल खेला

जेतली साहिब का व्यक्तित्व बेहद गरिमामय था व वे बेहद मिलनसार थे पर नए अखबार के लिए जिस प्रकार के तेज़-तर्रार संपादक की जरूरत होती है वे वैसे नहीं थे। कई मामलों में भोले बालम जेतली साहिब दूसरों पर बहुत जल्दी भरोसा करने वालों में से थे और दिव्य हिमाचल संस्थान को उनकी नियुक्ति के थोड़े दिन बाद ही इस बात का अहसास हो गया था। पर जिस प्रकार जंग में जरनैल नहीं बदले जाते उसी नीति पर चलते हुए प्रबंधन ने बिना जेतली साहिब को हिलाए अनिल सोनी नामक पत्रकार को धर्मशाला की कमान देने का फैसला किया। वे हिमाचल की ही पृष्ठभूमि के एक अनुभवी व युवा पत्रकार थे व महाराष्ट में लोकमत ग्रुप के साथ कार्यकारी संपादक के तौर पर काम भी कर रहे थे। वे अपने घर हिमाचल में लौटना भी चाहते थे, उन्हें धर्मशाला से मोर्चा संभालने के लिए तैनात किया गया।

मैं और विजय चंडीगढ़ के सैंतालिस सैक्टर वाले गैस्ट हाऊस में महीना भर रहे। हम सुबह दस बजे पंचकूला स्थित दफ्तर पहुंच जाते, वहां विज्ञापन से संबंधित आंकड़े तैयार करने में हम खुराना जी को सहयोग देते। अखबार के मार्केट में आने में काफी समय था। हम शाम को वापिस अपनी रिहायश पर लौट आते। फिर शुरु होता पीने-पिलाने व बातों का दौर। विजय शिमला के पत्रकारों की राजनीति से बहुत आहत था। उसके पिता श्री देवराज पुरी भी पुराने पत्रकार थे जिनके साथ पूर्वाग्रह रखने वालों में हमारे संपादकीय सलाहकार राधे श्याम जी व वी.पी.प्रभाकर भी थे। उन्हें विजय की शिमला के लिए नियुक्ति रास नहीं आई थी। वे वहां से विजय का बिस्तर गोल करवाने व उसके स्थान पर दैनिक ट्रिब्यून के स्ट्रिंगर धनंजय शर्मा की तैनाती के चाहवान थे। विजय रोजाना मुझे शिमला के पत्रकारों की आदतों, उनके पूर्वाग्रहों व काम करने के विस्मयकारी तौर तरीकों के बारे में बताया करता था। हालांकि वे बातें तब मेरे किसी काम की नहीं थी पर सुनने में रोचक व खुला समय होने के कारण मुझे विजय के प्रवचन सुन कर मजा आने लगा था। विजय रोजाना ये शंका प्रकट करता कि उसका पत्ता साफ करवाने के लिए जहां शिमला के पत्रकार कमर कसे हुए थे वहीं ये दोनों महानुभाव भी उसकी छुट्टी करवाने के पूरे चाहवान थे। खास तौर पर दफ्तर के काम काज के दौरान भी विजय के साथ शर्मा जी व प्रभाकर साहिब का व्यवहार बेहद रूखा व समझ में न आने वाला था। खैर सवा महीने तक चंडीगढ़ रहने के बाद मैं जालंधर वापिस आ गया व विजय को शिमला भेज दिया गया।

अचानक अक्तूबर के दूसरे पखवाडे में मुझे चंडीगढ़ से जेतली साहिब का फोन आया। उन्होंने कहा कि संस्थान मुझे बर्फ में लगाने का इच्छुक है। मुझे शिमला भेजने का फैसला हो चुका था, विजय की आशंका सच साबित हो गई थी। उसे बिना मौका दिये, बिना उसे अपनी योग्यता के प्रदर्शन करने के, जंग शुरु होने से पहले ही मैदान से बाहर किए जाने के हालात थे। मैं शिमला तो जाना चाहता था पर विजय की जगह नहीं। मैने खुराना जी से बात की तो पता चला कि विजय की तैनाती न हो पाने का क्या कारण था और उसके स्थान पर मेरे चयन का क्या कारण था। बड़े अचरज की बात थी कि अखबार अभी मार्केट में भी नहीं आया था पर शिमला से विजय पर कई प्रकार के आरोप लगाती करीब डेढ़ सौ चिठ्ठिया चेयरमैन के नाम पर आई थीं। उन पत्रों में विजय के खिलाफ बहुत ज़हर उगला गया था। मैं चंडीगढ़ पहुंच कर चेयरमैन से मिला। मेरी दलील थी कि अखबार शुरु होने से पहले आम लोगों को कैसे पता चल सकता है कि अखबार के चेयरमैन का नाम व पता क्या है? यह सब शिमला के पत्रकारों द्वारा खेली गई गिमिक्स है। विजय को इस तरह काम शुरु करने से पहले ही हटा देना इसके साथ न्याय नहीं है। चेयरमैन अमेरिका जैसे व्यावहारिक मुल्क में रह कर आए थे सो उन्होंने मेरे इस विरोध को अन्यथा से न लेते हुए मेरी बात को गौर से सुना व अपनी बात की। उनका मानना था कि चाहे ये सारी शरारत शिमला के पत्रकारों की ही है पर इससे ये बात तो साबित हो ही जाती है कि विजय का अपने प्रोफैशन के लोगों में कितना विरोध है। इन हालात में यदि ज्यादातर पत्रकार विजय के खिलाफ हैं तो वे इसके काम में भी रुकावटें डालेंगे जो सीधे तौर पर हमारे अखबार को प्रभावित करेंगी। शिमला हिमाचल की राजधानी है। वहां का ब्यूरो प्रमुख यदि अपने पेशे के लोगों के साथ ही उलझा रहेगा तो इसी प्रदेश पर केंद्रित एक नए अखबार को जिस स्तर के काम की जरूरत होती है, वो विजय कैसे कर पाएगा? मुझसे पूछा गया कि शिमला के अलावा विजय के लिए कोई वैकल्पिक सलाह दूं। मैं क्या कहता? शिमला में विजय का परिवार था, बीवी-बच्चे थे। अंतत: मेरा सुझाव था कि विजय को अखबार से बाहर करने के बजाए धर्मशाला भेज दिया जाए। वहां भी उस जैसे होनहार पत्रकार की जरूरत होगी। मेरा सुझाव मान लिया गया। हो सकता है कि प्रबंधन भी पहले से ही इस विकल्प पर विचार रखता हो। मुझे बताया गया कि ख्याति प्राप्त पत्रकार अरुण शौरी जी ने पिछले दिनों अपने एक कॉलम में मेरा संदर्भ दिया था। इसके अलावा नवभारत टाइम्स जैसी विश्वस्नीय अखबार के साथ मेरे जुड़ाव व लिखने के रिकार्ड के चलते मुझ पर संस्थान ने भरोसा जताया। विजय द्वारा चंडीगढ़ प्रवास के दौरान मुझे बताया गया एक-एक तथ्य सच्चा साबित हो चुका था? उसकी शंका सच्ची साबित हुई थी व वे शिमला के पत्रकारों की राजनीति का शिकार हो गया था। पर मेरी स्थिति बेहद विचित्र थी। विजय मेरा दोस्त था, हम प्याला था। और कुदरत ने मुझे उस कुर्सी पर बिठा दिया था जो विजय का सपना थी।

चेयरमैन के केबिन से बाहर आया तो विजय पुरी को एक कोने में उदास बैठे पाया। उसे हौसला देने के लायक शब्द नहीं मिले पर मैंने उसे धर्मशाला की नियुक्ति के बारे में चेयरमैन के दृष्टिकोण से अवगत करवाया। वो उठ खड़ा हुआ। उसकी आंखें तो नम थी पर जोश का संचार हो चुका था। हम दोनों नीचे कॉफी पीने के लिए आ गए। विजय इस बात से खुश था कि उसे संस्थान से बाहर का रास्ता नहीं देखना पड़ा। उसकी मान्यता थी कि वो धर्मशाला में अपना जौहर दिखाएगा। हालांकि परिवार से दूर होने से वो दुखी जरूर था पर इस बात पर उसे संतोष था कि वो शाख से ही गिरा है, नज़रों से नहीं गिरा। उसने मुझे याद दिलाया कि शिमला के पत्रकारों व उनकी गतिविधियों की जानकारी मुझे चंडीगढ़ प्रवास के दौरान ही हो चुकी है। उसने मुझे सावधान किया। शिमला में कदम फूंक-फूंक कर रखने की सलाह दी। शिमला जाने को लेकर मेरे मन पर पड़ा अपराध बोध समाप्त हो चुका था। मैने विजय से खुशी-खुशी विदा ली। जेतली साहिब ने मुझे कमरे को अंदर से कुंडी लगा कर पैग लगाने की सलाह दी तो चेयरमैन ने मुझ पर भरोसा जताते हुए मुझे अपने तुनीर के सारे तीरों को मुस्तैद करके पहाड़ पर चढ़ जाने की शुभकामना दी। खुराना जी को विश्वास था कि मैं दिव्य हिमाचल के संस्थापक प्रदेश ब्यूरो प्रमुख की कुर्सी पर बैठ कर उस पद के साथ न्याय करूंगा। जालंधर के वरिष्ठ साहित्यकार व अपने फील्ड के दौर के सबसे कामयाब खोजी पत्रकार (मौजूदा सहायक संपादक अजीत समाचार) श्री सिमर सदोष जी ने बहुत सा आशीर्वाद, शुभकामनाएं व नसीहतों के साथ मुझे विदा किया। और मैं इस उलटफेर के बारे सोच कर हैरान था। शिमला के मीडिया जगत के लोगों के जिस प्रकार के हालात विजय ने बताए थे व उन्हें विजय के साथ हुए हादसे के रूप में घटित होते हुए भी देखा था, उसने मुझे आशंकित तो कर दिया था, पर मैं आतंकित नहीं था। मुझे पता था कि शिमला के पत्रकार विजय के साथ हुए खेल की जानकारी मिलने के बाद दिव्य हिमाचल प्रबंधन की आगे की रणनीति का इंतजार कर रहे थे। ज्यादातर लॉबी धनंजय शर्मा को विजय का विकल्प मान कर चल रही थी। शिमला के बड़े पत्रकारों में सक्रिय व प्रभावी गढ़वाली लाबी थी व गढ़वाल की पृष्ठïभूमि वाला धनंजय शर्मा उनकी पहली पसंद था। वैसे भी धनंजय बड़े पत्रकारों का ताबेदार था। सो उस पर सभी की मेहरबानी थी। विजय को धर्मशाला रास आ गया था क्योंकि न तो वहां उसका कोई विरोध था और संपादक के रूप में आए अनिल सोनी के साथ विजय की पुरानी मित्रता थी। जब संस्थान की तरफ से शिमला में ये सूचना भेजी गई कि अर्जुन शर्मा शिमला के प्रादेशिक ब्यूरो के प्रभारी होंगे व धनंजय शर्मा नम्बर दो तो शिमला के पत्रकारिता जगत में हलचल हो गई। मेरे वहां रहने का प्रबंध प्रेस क्लब के उस एकमात्र कमरे में था जहां न तो ढंग का बाथरूम था और न ही पानी की कोई व्यवस्था। प्रोटोकोल के तौर पर धनंजय को मुझे रिसीव करना था, पर वे नहीं आया। मेरे साथ मेरे मित्र एडवोकेट अमरजीत सिंह राय शिमला तक मुझे छोडऩे गए थे। हालांकि मैं कई सालों से रात को घूंट लगाने का शौकीन था पर मैनैं पहले पहल शिमला में शराब से दूर रह कर स्थिति को वॉच करने का फैसला किया। हम रात के आठ बजे शिमला पहुंच गए। बाईस अक्तूबर का दिन था। सन 1948 में इस दिन भारतीय सेनाओं ने कश्मीर पर आधिपत्य जमाने के लिए पाकिस्तान की सेना को खदेडऩा शुरु किया था। शिमला के रास्ते में पड़ती टिंबर ट्रेल की ट्राली में सवार होकर उपर जाने व वापिस आने के दौरान मैने खुद को तैयार किया। मुझे भी एक मोर्चे पर ही भेजा गया था पर विजय की कृपा न होती तो मुझे वहां मिलने वाले उन नए शत्रुओं की जानकारी ही न होती जिन्हें मैं पहले कभी मिला नहीं था और मेरी नियुक्ति से जिनकी आशाओं पर पानी फिर गया था। बनिस्बत इसके, अब मैं शिमला में मिलने वाले अपने सभी कलम दवातिये भाईयों की हरकतों व जेहनियत तक का वाकिफ था। इसके विपरीत उनके ख्वाबों से भी बहुत बाहर की बात थी कि मैं उनके बारे में कुछ जानता हो सकता हूं।

दिव्य हिमाचल-4

खुराना थे दिव्य हिमाचल की जड़ लगाने वाले

मेरे शिमला जाने से पहले की बात है जिसका जिक्र यहां जरूरी है। दिव्य हिमाचल के डायरैक्टर मार्केटिंग प्रमोद कृष्ण खुराना ने उत्तरी भारत में अखबारों की लांचिंग के इतिहास में एक नया प्रयोग किया था। हालांकि इससे पहले दैनिक भास्कर ने राजस्थान में पैर जमाने के लिए बहुत से प्रयोग किए थे जिनके सारे प्रयोगों के कुछ हिस्सों को जोड़ कर खुराना जी ने एक ऐसी रणनीति तैयार की थी जो हिमाचल के पाठकों की कल्पना से भी परे थी। दैनिक भास्कर द्वारा राजस्थान में उस नीति को ज़मीन पर लाने के लिए जितना धन खर्च किया था, खुराना जी की स्ट्रैटजी का खर्चा भास्कर के मुकाबले में आटे में नमक जितना ही था। एक ब्राशर डिज़ाईन करवाया गया। जिसमें हिमाचल के पाठकों के मन में हलचल व कौतूहल पैदा करने के लिए बेहद प्रभावशाली ढंग से ये घोषणा की गई कि हिमाचल की मिट्टी से उसके प्रदेश के पाठकों के लिए पहला अखबार आ रहा है जो हिमाचल से ही प्रकाशित होगा व पहाड़ की आवाज़ होगा। इसके साथ एक पोस्टकार्ड था जिसको कोई भी हिमाचली भर कर भेज सकता था। उस पर लगने वाली टिकट का खर्च भी दिव्य हिमाचल प्रबंधन ने खुद वहन करना था। इसके अलावा उस ब्राशर में यह आफर थी कि जो भी पाठक इस ब्राशर के आधार पर अखबार का सीधा पाठक बनेगा उनका लक्की ड्रा निकाला जाएगा जिसका पहला इनाम होगा पचास ग्राम सोना व टीवी, फ्रिज से लेकर बहुत सारे इनाम। इस ब्राशर को हिमाचल के जन-जन तक पहुंचाने के लिए एक तरकीब निकाली गई। हिमाचल को पांच ज़ोन में बांटा गया। जिनमें एक ज़ोन जिला कांगड़ा को बनाया गया क्योंकि कांगड़ा हिमाचल का आबादी के लिहाज़ से काफी बड़ा जिला है। उसके अलावा ऊना, हमीरपुर को दूसरा ज़ोन, शिमला सोलन, सिरमौर, लाहौल-स्पिति, किन्नौर को तीसरा। बिलासपुर, मंडी व कुल्लू को चौथा तथा चंबा व साथ लगते इलाकों को पांचवां ज़ोन बनाया गया।

रणनीति ये थी कि पांच व्यक्ति इन अलग-अलग इलाकों में स्वतंत्र रुप से गाडिय़ां लेकर जाएंगे व क्षेत्र के प्रत्येक अखबार विक्रेता को ये ऑफर देंगे कि उसके जितने भी अखबार बिकते हैं उनमें प्रत्येक में वो ब्राशर डाल दे। उसके बदले में उसे प्रत्येक ब्राशर को डालने के 75 पैसे मिलेंगे। टीम लीडर को उतने पैसे व खर्चा नकद दिया गया जो ब्राशर डलवाने व रहने,खाने-पीने तथा गाड़ी में पेट्रोल डलवाने के लिए प्रयाप्त था। मुझे जिला बिलासपुर, मंडी व कुल्लू का रुट मिला। विजय के पास सोलन, शिमला, सिरमौर, लाहौल-स्पिति व किन्नौर था। हालांकि ये काम संपादकीय विभाग का न होते हुए मार्केटिंग वालों का था पर ये खुराना जी की ही कलाकारी थी कि एक तरफ उन्होंने चेयरमैन को इस तर्क से कायल कर लिया कि रिपोर्टर लोग सिद्धहस्त होते हैं व इस प्रकार के काम को मार्केटिंग वालों के मुकाबले जल्द व आसानी से कर सकते हैं। खैर इस योजना को बेहद गुप्त तरीके से क्रियांन्वित किया गया। हमारी टीम ने बाजार में उपलब्ध अखबारों को ही अपना हथियार बनाया व पूरी शिद्दत से हमला बोल दिया। जब तक किसी मीडिया हाऊस को इस योजना की भनक लगती। तब तक उनके अखबारों के साथ सफर करता दिव्य हिमाचल का संदेश पूरे हिमाचल में फैल गया। दिव्य हिमाचल के प्रबंधन को ये आशा थी कि इस सारी कवायद के चलते करीब दस हज़ार पाठक उन्हें रिस्पांस करेंगे पर जब रिस्पांस आया तो चेयरमैन भानू धमीजा की खुशी का कोई ठिकाना न था। अखबार के शुरु होने से पहले ही तीस हज़ार पाठकों ने अखबार की बुकिंग के फार्म भरे। दिव्य हिमाचल का चंडीगढ़ स्थित कार्यालय मनीमाजरा में था। एक रात को भानू जी ने साथ लगते हरियाणा सरकार के रेस्तरां रैड बिशप में दिव्य हिमाचल की कोर टीम को रात्रिभोज दिया जिसके खुराना जी नायक थे। भानू जी ने सबके साथ जाम टकराया पर खुराना जी के साथ नहीं क्योंकि वे शराब नहीं पीते थे। वो जश्र की रात थी। दूसरे दिन की सवेर हमारे लिए थोड़ी सी परेशानी लेकर आई। इंडियन एक्सप्रेस समूह का हिंदी समाचारपत्र जनसत्ता जो चंडीगढ़, पंजाब व हरियाणा में पिट चुका अखबार था व हिमाचल में हैरानीजनक तकीके से बेहद कामयाब, उसके हिमाचल संस्करण हिमसत्ता में हमारे खिलाफ ज़हर उगला गया था। हुआ यूं कि ब्राशर का डिज़ाईन करवाते समय खुराना जी ने उसकी प्रिंटिंग का ज्यादातर हिस्सा हरा रखवाया था। उनका कांसैप्ट था कि हरे-भरे पहाड़ी प्रदेश हिमाचल के साथ हरे रंग का गहरा नाता है। इसके अलाबा कुछ हिस्सा केसरी रंग का था क्योंकि मैचिंग के लिहाज़ से हरे व केसरी रंग का उठाव बहुत उम्दा होता है। सफेद रंग की ग्राऊंड पर प्रकाशित ये ब्राशर भारत के राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे जैसा आभास भी देता था।

दिव्य हिमाचल-5

जब जनसत्ता ने शरारत की

पर हिमसत्ता ने आने वाले प्रतिद्वंदि के रास्ते में रोड़े बिछाने के लिए हल्के स्तर की पत्रकारिता का सहारा लिया। कान के कच्चे माने जाते हिमाचल के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह वैसे भी जनसत्ता को अपना ही अखबार मानते थे क्योंकि अपने घोषित आदर्शों के विपरीत एक्सप्रेस समूह का यह अखबार हिमाचल में पूरी तरह से राजा वीरभद्र सिंह का बेशर्मी की हद तक जाकर नंगा समर्थक था। हिमसत्ता ने दिव्य हिमाचल के ब्राशर में छपे केसरी व हरे रंग का यह अर्थ निकाला कि हिमाचल के आगामी विधानसभा चुनाव जो कि डेढ़ साल के बाद होने थे उसकी तैयारी के चलते भारतीय जनता पार्टी के झंडे के रंग जैसा ब्राशर निकाल कर भाजपा की एक अखबार हिमाचल में आ रही है। इसके अलावा जो माऊथ पब्लिसिटी की गई उसका लब्बो-लुआब ये था कि दिव्य हिमाचल के प्रधान संपादक श्री बी.आर.जेतली, संपादकीय सलाहकार राधे श्याम शर्मा व चंडीगढ़ स्थित ब्यूरो चीफ वी.पी प्रभाकर तीनों ही भारतीय जनता पार्टी के घोषित समर्थक हैं। राधे श्याम शर्मा जी के तो नाम तक का कद्दूकस कर डाला था जनसत्ता वालों ने। उनके नाम के संक्षिप्त अक्षरों का मतलब आर.(राधे)एस(श्याम) एस(शर्मा) निकाल कर हिमाचल के मुख्यमंत्री के दिमाग में ये सारा ज़हर भर दिया था।

जनसत्ता में छपी वो खबर हालांकि बिल्कुल बेबुनियाद थी पर दिव्य हिमाचल प्रबंधन ने उसे बहुत गंभीरता से लिया। खास तौर पर चेयरमैन भानू धमीजा को लगा कि जहां शिमला के स्थानीय पत्रकारों का ज्यादातर हिस्सा विजय पुरी का दुश्मन था वहीं दूसरे अखबारी घरानों से भी जंग लडऩी पड़ेगी। शायद यही कारण रहा कि विजय को शिमला न भेजने का इरादा और ज्यादा मज़बूत हुआ। मुझे शिमला भेजने से पहले भानू जी ने मेरे साथ लंबी बैठक की। सारी परिस्थितियों को समझाया व पूरी जिम्मेवारी के साथ काम करने की हिदायत दी। विरोधी अखबार जनसत्ता द्वारा किए जा रहे विषैले प्रौपेगंडा के चलते मुझे वहां संतुलित भूमिका निभा कर वो गलतफहमी दूर करने का काम भी सौंपा गया। उनका मानना था कि पंजाब की पृष्ठभूमि का होने के कारण मुझे भी वहां की स्थानीय पत्रकार बिरादरी के कोप का भाजन बनना पड़ सकता था पर नया व अंजान होने के नाते जितना ज्यादा मैं वहां खामोश व शांत रहूंगा, किसी से ज्यादा घुल-मिल कर नहीं रहूंगा, उतना ही ज्यादा कामयाब होऊंगा। बी.आर.जेतली जी ने मुझे प्रेस क्लब में शराब न पीने की हिदायत दी।

दिव्य हिमाचल-6

मेरे ख्वाबों में बसा था हिमाचल

हिमाचल मेरे लिए नया नहीं था। सच तो यह है कि जब भी मुझे पेशेगत व्यस्तता या निजी परेशानियां मानसिक रूप से थका देतीं तो मैं हिमाचल की वादियों में ही पनाह तलाश करता। वैसे हिमाचल की ज़मीनी परिस्थितियों व राजनीतिक समीकरणों के बारे में मुझे बहुत ज्यादा ज्ञान नहीं था। जितना पंजाब के अखबारों में कभी कभार हिमाचल प्रदेश की कोई राजनीतिक खबर छपती तो उसके आधार पर मोटे तौर पे इतना ही जानता था कि इस पहाड़ी प्रदेश में कांग्रेस का मतलब है वीरभद्र सिंह जो हिमाचल की किसी रियासत के राजा भी हैं और भारतीय जनता पार्टी का मतलब है शांता कुमार जो अपनी लोकप्रिय योजनाओं के चलते हिमाचल में लोकप्रिय भी थे तथा अपनी सख्ती के चलते एक वर्ग उन्हें नापसंद भी करता था। बीच-बीच में पंडित सुखराम, प्रेम कुमार धूमल व सत महाजन का जिक्र भी इस प्रदेश की राजनीति से जुड़ा हुआ है, इतना ही ज्ञान था हिमाचल की राजनीतिक परिस्थितियों का। खास तौर पर 1985 में मैं बतौर इलैक्ट्रीशन पालमपुर गया था व वहां के एक होटल में बिजली की फिटिंग के काम के सिलसिले में बीस दिन के करीब रुका था। उन दिनों हिमाचल में चुनाव हो रहे थे व राजीव गांधी के साथ उन्हीं की तरह के खूबसूरत चेहरे वाले वीरभद्र सिंह का फोटो पहली बार पालमपुर के बाजार में लगे पोस्टरों पर देखा था। तब मुझे वीरभद्र सिंह बहुत प्यारे व मासूम लगे थे। बचपने के उस दौर में (तब मैं मात्र अठ्ठारह साल का था) मेरा बालमन कई साल तक यही मानता रहा था कि राजीव गांधी व वीरभद्र सिंह भाई-भाई हैं।

खैर तीस साल की उम्र में मैं हिमाचल में पत्रकारिता की नई पारी खेलने के लिए प्रवेश कर गया। वहां चुनौतियां कदम कदम पर मेरा इंतजार कर रहीं थी। कुछ अच्छे व कुछ खट्टे-मीठे अनुभव मेरे साथ घटित होने थे। पहली बात तो ये कि स्टेट ब्यूरो प्रभारी का पद मुझे पहली बार मिला था। दूसरा ये कि दिव्य हिमाचल के शिमला में संस्थापक ब्यूरो प्रमुख के तौर पर मेरा नाम लिखा जाने वाला था। इसके साथ-साथ खुद के साथ होने वाली शरारतों से बचने के लिए मुझे बेहद सावधान व चौकन्ना भी रहना था। जब शिमला पहुंचने के बाद प्रेस क्लब में अपने कमरे की चाबी लेने गया तो मैने वहां अपने जूनियर धनंजय शर्मा को तलाश किया पर वो वहां नहीं था। प्रेस क्लब के प्रधान कृष्ण भानू मेरे पुराने जानकार थे। सो कमरे में रुकने को लेकर मुझे कोई परेशानी न हुई पर धनंजय का वहां मेरे पहली बार आने पर नदारद रहना मुझे अपशकुन जैसा लगा। मुझे लग रहा था कि मेरा सहयोगी भी मेरी नियुक्ति से खुश नहीं है। हालांकि विजय के साथ चंडीगढ़ प्रवास के दौरान बिताए गए महीने व उसके साथ शिमला की पत्रकारिता-पत्रकारों के विषय पर लगातार बातचीत करते रहने से मैं न केवल इन समीकरणों को समझ चुका था अलबत्ता नब्बे फीसदी पत्रकारों को पहचान भी सकता था।

अखबार के बाजार में आने में अभी दो महीने शेष थे। इन दो महीनों के दौरान मुझे नेटवर्क खड़ा करना था। दफ्तर बनाना था। हिमाचल के वरिष्ठ नौकरशाहों व राजनेताओं के साथ संवाद स्थापित करना था। हिमाचल की ज़मीनी सच्चाईयों व समस्याओं को समझना था। खुद को एक पंजाबी के नज़रिये के बजाए हिमाचली के दृष्टिïकोण से सोचने की आदत को पकाना था।

दिव्य हिमाचल-7

गढवाली लाबी के हाथ, शिमला की कमान

धनंजय का व्यवहार मेरी समझ से बाहर था। वो कई साल तक दैनिक ट्रिब्यून का स्ट्रिंगर रहा था व पहली बार उसे स्टाफर बनाया गया था पर इस तरक्की को लेकर उसके चेहरे पर कोई उत्साह नहीं था। दिन भर में मेरे साथ यदि वो आधा घंटा गुजारता तो मुझे उसकी शारीरिक भाषा से लगता कि वे मानसिक तौर पर मेरे साथ बेहद असहज महसूस करता है। धनंजय शिमला के पत्रकारों में एक प्रभावशाली लॉबी गढ़वालियों की बिरादरी का ही था व गढ़वाली बिरादरी तो विजय पुरी से ज्यादा इसीलिए चिढ़ती थी कि वो पंजाबी था। हालांकि उसके पिता करीब तीस साल पहले हिमाचल में बसे हुए थे व वहां से मिलाप के लिए रिपोर्टिंग किया करते थे। मैं तो कुछ ही दिनों से पंजाब से आया 24 कैरेट का पंजाबी था। सो मुझे पता था कि गढ़वाली लॉबी धनंजय को मेरे खिलाफ हथियार बनाएगी। मेरी आशंका गलत नहीं थी। असल में ये लॉबी धनंजय को दिव्य हिमाचल का ब्यूरो प्रभारी बनवाने की ख्वाहिशमंद थी ताकि कई अखबारों व खबर एजेंसियों की तरह दिव्य हिमाचल में भी इन लोगों का सिक्का चले। विजय के खिलाफ हुई साजिश का मकसद भी वही था जो कामयाब भी हो चुकी थी पर मैं उनकी बनी बनाई खीर की थाली में मक्खी की तरह आ गिरा था। शिमला में टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रभारी जगदीश भट्ट गढ़वाली थे। पीटीआई के स्टेट ब्यूरो चीफ पी.सी. लोहुमी गढ़वाली थे। पीसी लोहुमी के छोटे भाई राकेश लोहुमी अंग्रेज़ी ट्रिब्यून के प्रिंसिपल कारस्पांडेंट थे। इसके अलावा विभिन्न अखबारों में जूनियर पदों पर भी दर्जन के करीब गढ़वाली पत्रकार थे जिनकी मान्यता थी कि हिमाचल के लोगों को तो पत्रकारिता में थोड़ा बहुत सहन किया जा सकता है पर किसी पंजाबी को शिमला की प्रदेश स्तरीय पत्रकारिता में घुसने भी नहीं देना। जितना ज्यादा से ज्यादा हो सके, अखबारों के बड़े पदों पर गढ़वालियों का नियंत्रण हो। हालांकि उतरांचल की पृष्ठभूमि से संबंधित ये लोग विद्वता के मामले में कम नहीं आंके जा सकते पर क्षेत्रवाद के मामले में ये लोग बेहद कट्टर हैं। कुल मिला कर शिमला की पत्रकारिता का संचालन का प्रमुख पाया गढ़वाली ही थे। जबकि हिमाचल की पृष्ठभूमि के पत्रकार इस हद तक कट्टर व संगठित नहीं थे। एकाध को छोड़ कर पंजाबियों के प्रति उनके मन में उतनी तीव्र नफरत नहीं थी। ये समीकरण विजय पहले ही बता चुका था पर अब मैं उन हालात का सामना कर रहा था। मैने अपनी तरफ से बहुत प्रयास किया कि धनंजय के साथ मेरे संबंध सहज व सामान्य हो सकें। कभी कभी शाम को मैं जबरदस्ती उसे अपने पास बिठा लेता। लंबे समय तक बातें करते शराब पीते व एक दूसरे को टटोलते। धनंजय मेरे नज़दीक आ भी जाता, पर दूसरे दिन जब मिलता तो लगता कि किसी ने मेरी रात को चढ़ाई पालिश धनंजय से उतार दी है। धनंजय को लाईन पर लाने के लिए मुझे दूसरा तरीका इख्तियार करना पड़ा। वो दिव्य हिमाचल का स्टाफर होने के बावजूद अभी भी दैनिक ट्रिब्यून को खबरें भेज रहा था। मैने ट्रैप लगाया व डाकखाने से फैक्स के पन्नों की फोटोप्रतियां व इस्तेमाल की गई फैक्स अथारिटी जो अभी भी धनंजय के नाम पर थी उसकी तस्दीकशुदा कॉपी प्रधान संपादक बी.आर.जेतली को भेज दीं। असल में मैं धनंजय के व्यवहार के बारे में जेतली साहिब को बताता रहता था पर राधे श्याम शर्मा व वी.पी.प्रभाकर का वरद हस्त धनंजय के साथ था सो वे दोनों जेतली जी की चलने नहीं देते थे। पर जब ठोस सबूत हाथ लगा तो जेतली जी ने धनंजय की खिंचाई की। उसकी गलती का प्रमाण देख कर शर्मा जी व प्रभाकर जी ने धनंजय की लाबिंग से हाथ खींच लिए। अब धनंजय सहयोग की मुद्रा में था पर दिल से नहीं, मज़बूरी में।

दिव्य हिमाचल-8

अखबार को बाजार में उतारने की तैयारी

नवंबर महीने में दिव्य हिमाचल के प्रबंधन ने शिमला के हॉली-डे होम में नगर के वरिष्ठ नागरिकों व नौकरशाहों के साथ संवाद स्थापित करने के लिए एक पार्टी दी। तब तक हमारा दफ्तर नहीं बन पाया था। मुझे चेयरमैन भानू जी ने पूछा कि क्या समस्या आ रही है। मैंने कोई खास बात नहीं की पर वे कहने लगे कि धनंजय परेशान कर रहा है तो बताओ, पर मैने उन्हें कहा कि आपने मुझ पर इतना बड़ा भरोसा किया है तो स्थानीय स्तर पर जो भी हालात हैं, उनसे मुझे ही निपटने दें? उनका जवाब था, ''मेरा अनुभव तो यही बताता है कि इस दुनिया में हाफ प्रैग्रेट नाम का कोई शब्द नहीं है। साफ बात तो ये है कि प्रैग्रेट ऑर नॉट।'' ये उनकी शब्दों में छिपी चेतावनी भी थी व मुझे इशारों की भाषा में दी गई एक सलाह भी। भानू जी के आने का इतना अंतर जरूर पड़ा कि उन्होंने बिना धनंजय से कुछ कहे मेरे वजूद को बहुत बड़ा बना कर पेश किया ताकि दिव्य हिमाचल के समस्त अधीनस्थ पत्रकारों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ सके। शिमला के नागरिकों को दिव्य हिमाचल टीम की प्रैजेंटेशन दी गई। मेरे बारे में 'अर्जुन शर्मा-अरुण शौरी ऑफ पंजाब' जैसा जुमला गढ़ा गया। ये ठीक है कि मैं शौरी साहिब को हमेशा अपनी प्रेरणा मानता आया हूं। वे मेरे आदर्श हैं पर हॉली-डे होम की उस प्रैजेंटेशन में जब मुझे इस प्रकार के तुलनात्मक संबोधन से बुलाया गया तो मेरी नज़रें उठ नहीं पा रहीं थी। बाद में खुराना जी ने मुझे इस मानसिकता से निकालते हुए कहा कि इस तरह की कोई बात नहीं होती। आजकल ब्रांडिंग का जमाना है सो अखबार का संस्थान अपने पास जो भी है उसे सबसे बेहतर बताएगा तभी तो उनके ब्रांड का भाव बढ़ेगा। बहरहाल हमने अपना काम शुरु कर दिया। धर्मशाला में प्रेस परिसर बड़ी तेजी से तैयार हो रहा था। शिमला में दिव्य हिमाचल का कार्यालय माल रोड़ पर स्थित वकीलों की एक बिल्डिंग लिगैलीज़ में बनाया गया जो मरीना होटल के साथ लगता था। उस भवन का मालिक एडवोकेट के.डी.श्रीधर हिमाचल की वकालत में एक बड़ा नाम था। वैसे उसमें बड़े वकीलों वाले 'सारे गुण' थे। लंबा-ऊंचा व गोरा चिट्टा श्रीधर जब सफेद टीशर्ट-जीन्स व सिर पर काले रंग की कैप लिए दफ्तर में आता तो उसका मक्खन में मिलाए गए हल्के से सिंधूर जैसा गदगद करता चेहरा देख कर लगता कि शायद वो कोई बहुत बड़ा सुपर स्टार है। पर टोपी के बगैर उसका व्यक्तित्व एकदम किसी सुलझे व्यक्ति जैसा लगने लगता। असल में उसके सर पर बालों की मौजूदगी एक दूसरे से ये शर्त लगाने वाली थी कि पहले कौन झड़ता है। वैसे तबीयतन श्रीधर एक रोमांटिंक व जिंदादिल इन्सान था। वो दिव्य हिमाचल के प्रबंध निदेशक कुल प्रकाश भारद्वाज का मित्र था व अपनी अदाओं से हरेक को प्रभावित करने का शौकीन था। श्रीधर ने मुझ पर विशेष कृपा करते हुए दो कमरों के दफ्तर के साथ उसका आलीशान तरीके से सजा बैडरूम मेरे हवाले कर दिया। शिमला में रहने के लिए जगह तलाश करना अपने आप में बहुत बड़े प्रौजैक्ट जैसा था। खास तौर पर वहां के मौसम के मिजाज़ के चलते दफ्तर के नज़दीक रिहायश का मिलना, उस स्थान पर पानी की कोई समस्या न होना (शिमला हर मौसम में पानी से परेशान रहने वाला शहर है।) सचमुच बहुत बड़ी बात थी। हमारा दफ्तर हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री के आधिकारिक निवास स्थान ओक ओवर के नज़दीक था व जुगाड़ू श्रीधर ने सीएम हाऊस को मिलने वाली पानी की सप्लाई वाली पाईप से कनेकशन ले रखा था। इस व्यवस्था ने मेरी काफी सारी परेशानी हल कर दी। उसी पोर्शन में छोटी सी रसोई भी थी। जिस प्रकार की शिमला में परिस्थितियां थीं, उसके चलते ये रिहायशगाह मेरे लिए आदर्श थी। पहली बात बाहर अंदर जाने की ज्यादा जरूरत ही नहीं थी। सुबह दस बजे तक नहा धो कर दफ्तर में बैठ जाना। बीते दिन के काम का आकलन करने व नई योजनाबंदी बनाने में कोई समस्या नहीं। बारह से दो बजे तक सचिवालय में अधिकारियों व नेताओं से मुलाकात, हां शिमला के पत्रकारों से थोड़ी दूरी बना कर रखना चाहता था।

दिव्य हिमाचल-9

मुकेश और एस.पी शर्मा बहुत रडक़ते

उन दिनों शिमला के पत्रकारों की लॉबी के निशाने पर मुकेश अग्निहोत्री और एस.पी शर्मा थे। गढ़वाली लॉबी भाजपा की संभावित सरकार के गठन को देखते हुए भगवे वालों की सलाहकार बनी हुई थी जबकि मुकेश व एस.पी वीरभद्र सिंह के खास पत्रकार थे। मुकेश अग्निहोत्री जनसत्ता का स्टाफ रिपोर्टर था जो पंजाब हिमाचल के सीमांत कस्बे संतोषगढ़ का रहने वाला था। मुकेश राजा का हनुमान भक्त था। राजा वीरभद्र को चमकाने वाली स्टोरियां लिखना व राजा के विरोधियों को किसी न किसी बहाने निशाने पर लेना मुकेश की पत्रकारिता का अंदाज़ था। एस.पी शर्मा अंग्रेज़ी ट्रिब्यून का प्रमुख संवाददाता था। उसका अंदाज आईएएस अधिकारियों जैसा शाईस्तगी से भरा था। वो अपना विरोध करने वाली सारे पत्रकारों को अपने ठेंगे पर रखता था। वो भी राजा वीरभद्र के पक्ष का पत्रकार था। दोनों आपस में मित्र थे। मुकेश तो बाद में राजनीति में आ गया व वीरभद्र सिंह की सरकार में मुख्य संसदीय सचिव भी रहा तथा संतोषगढ़ से कांग्रेस की टिकट पर दो बार विधायक भी बना। दोनों के व्यक्तित्व में एक बात कॉमन थी। दोनों भीतर व बाहर से एक जैसे थे। मेरी निकटता दोनों के साथ ही रही। लॉबी के लिए ये चिंता का विषय रहा पर मैं इन परिस्थितियों का भरपूर मज़ा ले रहा था। ये दोनों बेहद मुंहफट पत्रकार उन दिनों वीरभद्र के सबसे बड़े सियासी शत्रु पंडित सुखराम का बाजा बजाने में लगे हुए थे। जबकि भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते दरकिनार हुए सुखराम मंडी व आसपास के क्षेत्र में अपनी साख को बचाने में सक्रिय थे। पुराने कांग्रेसी दिग्गज़ सुखराम ही एकमात्र कांग्रेसी नेता थे जो कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति में अपनी मज़बूत पकड़ के चलते वीरभद्र सिंह के लिए चुनौती बन सकते थे। दिल्ली में उनके घर से पकड़े गए करोड़ों रुपयों का मामला वीरभद्र के लिए फौरी तौर पर बिल्ली से भाग्य से छींका टूटने वाला साबित हुआ। कांग्रेस से रुख्सत कर दिए गए सुखराम ने हिमाचल विकास कांग्रेस नामक पार्टी बना ली थी व वीरभद्र को चुनौती दे रहे थे। जबकि वीरभद्र सिंह अपने खेमे के पत्रकारों के माध्यम से सुखराम को हिमाचल के लिए कलंक के तौर पर बदनाम करने का लक्ष्य लिए हुए थे। इंडियन एक्सप्रेस समूह हमेशा से सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी पत्रकारिता के लिए चर्चित रहा है। इस समूह ने असंख्य प्रादेशिक सरकारों व केंद्र की सरकारों को हिलाया व गिराया है। सत्ता के साथ इस पत्रसमूह के हमेशा चिढ़ जैसे रिश्ते रहे हैं। पर जनसत्ता अपने पारंपरागत तेवरों के उलट हिमाचल में पूरे तौर पर वीरभद्र सिंह को समर्पित अखबार बनी हुई थी। तब स्थानीय संपादक ओम थानवी व मुकेश अग्निहोत्री ने पता नहीं कैसे इस असंभव काम को अंजाम दिया कि समूह के कर्ताधर्ता जनसत्ता के इस प्रकार के आत्मसमपर्ण के मुद्दे पर सदा खामोश रहे। सचिवालय में मुकेश अग्निहोत्री का आदेश किसी मंत्री से कम अहमियत नहीं रखता था। प्रदेश का जन संपर्क निदेशक रोजाना थानवी साहिब से उनकी व उनके परिवार की विधिवत कुशल क्षेम पूछता। राजा का राज था और राजा के साथ नंगे होकर जुड़े पत्रकारों की चांदी थी।

दिव्य हिमाचल-10

मुख्यमंत्री तय करते, कैसी हो पत्रकारिता

हिमाचल प्रदेश में पत्रकारिता का कामकाज दूसरे प्रदेशों की पत्रकारिता के मुकाबले में बहुत भिन्न है। हालांकि सरकारें किसी भी प्रदेश की हों, पत्रकारों को अपनी जेब में रखने की चाहवान तो सदा होती ही हैं पर हिमाचल के हालात इससे विपरीत हैं। इस प्रदेश के पत्रकारों की सरकार के जेबी होना मज़बूरी है। इसके बदले हिमाचल प्रदेश से आने वाली खबरें व विश्लेषण हमेशा सरकारी गुणगान से ज्यादा कुछ नहीं होते। इसके लिए एक स्टेट जैसी व्यवस्था काम करती है। यहां पर हिमाचल की प्रदेश स्तरीय पत्रकारिता का थोड़ा सा खाका खींचने की कोशिश कर रहा हूं। यहां प्रदेश स्तरीय संवाददाताओं को मंत्रियों व वरिष्ठ नौकरशाहों जैसा सरकारी आवास जो तीन से लेकर चार बैडरूम वाला होता है, पूर्णयता तैयार करके दिया जाता है जिसका किराया तीन-चार सौ रुपए होता है।(समय बीतने के साथ थोड़ा बहुत इजाफा भी होता है पर बहुत मामूली सा)ज्यादातर पत्रकारों की बीवियों को सरकारी नौकरी दी जाती है। हालांकि उसके लिए मुख्यमंत्री को खुश करने के तमाम कर्मकांड करवाए जाते हैं। प्रदेश में मुफ्त बस यात्रा। और जो पत्रकार मुख्यमंत्री को बहुत ज्यादा खुश रखे, उसकी सिफारिश पर महीने में दो-चार तबादले व थोड़े बहुत वो काम जिनके बदले काफी अच्छी कमाई की संभावना बनी रहती है। इन सब सुविधाओं का सीधा सा मतलब है कि मज़े से दाल रोटी खाओ और प्रभु के गुण गाओ। पर सरकार के खिलाफ कुछ नहीं बोलने का, कुछ नहीं लिखने का। यदि लिखना भी है तो हल्का-फुल्का जिससे सरकार की सेहत पर कोई खास फर्क न पड़े। ये सब सुविधाएं प्राप्त करने के लिए बाकायदा पत्रकार को सरकार से एक्रीडेशन लेनी पड़ती है। हालांकि एक्रीडेशन देने का काम लोक संपर्क विभाग का है पर जब तक मुख्यमंत्री द्वारा पत्रकार की अर्जी पर 'मे बी डन' नहीं लिखा जाता तब तक वो अर्जी लोक संपर्क विभाग के निदेशक के दफ्तर में ही धूल फांकती रहती है। एक्रीडेशन हो जाने पर पत्रकार सरकारी आवास का हकदार तो हो जाता है पर पत्रकारों के लिए सरकारी घरों का बंदोबस्त करवाने वाले विभाग ने एक परमानेंट मोहर बना रखी है, 'सरकारी आवास आपका अधिकार है पर फिलहाल कोई भी सरकारी भवन खाली नहीं है। जैसे ही कोई भवन खाली होगा, आपको आदर सहित सूचित कर दिया जाएगा।' यह टिप्पणी लिख कर फाईल संभाल ली जाती है। करते रहिए इंतजार। असल में ये सरकारी कवायद का हिस्सा है कि पत्रकार को मनोवैज्ञानिक स्तर पर मुख्यमंत्री की गुलामी के लिए तैयार किया जाए। थका हारा पत्रकार जब अपना दुखड़ा किसी अधिकारी के सामने रोता है तो वो तुरंत मुफ्त के सलाहकार की भूमिका में आ जाता है। वो पत्रकार को सलाह देता है कि तुम ऐसा करो कि तीन चार दिन तक ऐसी खबरें लिखो जो मुख्यमंत्री को खुश कर दें। ऐसी ही सलाह कोई मुख्यमंत्री का नज़दीकी पत्रकार भी दे सकता है। ये अलग बात है कि हंफा हुआ पत्रकार जिससे भी ये सलाह मांगता है उसका पहला काम पत्रकार को निपटाते ही सीधा मुख्यमंत्री को सूचित करना कि फलां पत्रकार को ''नाम दान'' दे दिया गया है, जल्द ही वो आपकी छत्रछाया में आ जाएगा। उसके बाद सरकारी मकान के ख्वाब देखता बेचारा पत्रकार मानसिक तौर पर गुलामी के दौर में पहुंचा दिन रात मुख्यमंत्री को खुश करने वाली स्टोरी खोजने में लग जाता है। मुख्यमंत्री के दरबारी पत्रकार उसे 'प्रेरित' करते हैं। वो महीना दो महीने मुख्यमंत्री का गुणगान करता हुआ मुख्यमंत्री से मुलाकात करके अपनी स्वामी भक्ति का परिचय देने के लिए वो कटिंग्स भी साथ ले जाता है। मुख्यमंत्री के खुश होने पर पत्रकार को दीक्षा देने के लिए लोक संपर्क विभाग का कोई अधिकारी मैदान में उतारा जाता है। वो पत्रकार को अपने कमरे जाकर 'बताता है' कि कैसे उस पत्रकार के कामकाज की तारीफ में उसने (अधिकारी ने) मुख्यमंत्री को इस बात के लिए राजी किया कि इस पत्रकार को भी सरकारी आवास में रहने की अनुमति दी जाए। इस प्रकार हिमाचल के मुख्यमंत्री का स्टाफ पत्रकार को रीढ़ विहीन करने की कवायद में जुट जाता है। फिर यदि पत्रकार की सेवाएं मुख्यमंत्री को ज्यादा सूट करने वाली हो तो कोई मुफ्त का सलाहकार पत्रकार को ये 'समझाने' को चला आता है कि आप तो मुख्यमंत्री के बहुत नज़दीक हैं, अपनी पत्नी की सरकारी नौकरी की बात क्यों नहीं चलाते? पत्नी को सरकारी नौकरी के फायदे व पत्रकार की आमदनी में इज़ाफे की सलाह देकर सलाहकार तो आगे की रिपोर्टिंग के लिए निकल जाता है पर पत्रकार को दिखा जाता है नये सपने। असल में इस इंद्रजाल के भी स्टेट को कई फायदे हैं। यदि सरकारी सुविधा लेकर भी पत्रकार विरोध करने से न टले तो उसकी सरकारी नौकर पत्नी के तबादले के हुक्म जारी कर दिए जाएं। शिमला से हटा कर दूर दराज के कबायली इलाके में तबादला कर दिया जाए जहां साल में सात महीने तक बर्फ पड़ी रहती है और आवाजाही ही नहीं हो सकती। पत्रकार का बाप भी सिर के बल पर चल कर मुख्यमंत्री से अपने गुनाह बख्शवाने पहुंच जाता है। स्थिति फिर से नियंत्रण में। मैं जब शिमला पहुंचा तो वहां के पत्रकारों की आदत में एक बेहद विरोधाभास भरी विचित्रता पाई। प्रेस कांफ्रेंस शुरु होने से पहले या खत्म होने के बाद आपस में चुहल करते पत्रकार किसी न किसी मंत्री या मुख्यमंत्री की नीतियों की निंदा करते मिलते। तब मुझे लगता कि ये लोग मुख्यमंत्री को आज अपने सवालों में उलझा कर अच्छी खबर निकलवाएंगे। पर मुख्यमंत्री के सामने जाकर सारे के सारे मिट्टी के माधो बन कर बैठ जाते। कई बार तो मैने वीरभद्र सिंह को पत्रकार सम्मेलन को इस प्रकार संबोधित करते हुए देखा जैसे कोई प्रोफेसर छात्रों को ऐसा लैक्चर दे रहा हो जिसमें किसी छात्र को बोलने या सवाल करने की अनुमति न हो। मुझे पंजाब की आदत थी। मैं काफी खुल कर सवाल पूछता। पत्रकार सम्मेलन से बाहर आकर पत्रकार लोग मेरे साधारण से सवालों के बदले मुझे फूंक देते कि तुम तो बहुत ही निडर सवाल पूछते हो। मैं हैरान होता कि मैने तो साधारण से सवाल किए हैं? ये मुझे बहादुर सिंह बनाने पर क्यों तुले हुए हैं? (क्रमश)

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