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जेलों में बढ़ती मुसलमानों की आबादी

डॉ. कमर तबरेज


आज से 65 वर्ष पूर्व जब देश स्वतंत्र हुआ था तो सबने सोचा था कि अब हम विकास करेंगे. आज़ाद देश में नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा की जाएगी. छुआछूत, जाति-पांत और भेदभाव का अंत होगा. हर धर्म से जुड़े लोग एक भारतीय के रूप में आपस में भाईचारे का जीवन व्यतीत करेंगे. धार्मिक घृणा को धर्मनिरपेक्ष देश में कोई स्थान प्राप्त नहीं होगा. यही ख्वाब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देखा था और यही आश्वासन संविधान निर्माताओं ने संविधान में दिया था, लेकिन आज 65 साल बीत जाने के बाद यह देखकर पीड़ा होती है कि जाति-पांत की सियासत हमारे देश की नियति बन चुकी है. धर्म के नाम पर लड़ाई का सिलसिला आज भी जारी है. संविधान ने सभी नागरिकों को जो अधिकार प्रदान किए थे, उनमें पक्षपात से काम लिया जा रहा है और इस प्रकार संविधान का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है. मुसलमानों की हालत देखकर इस बात का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि उनके साथ कितना अन्याय हुआ है. उनके अधिकारों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उन पर थी, जिन्हें जनता ने चुनकर केंद्र या अन्य राज्यों में सरकार बनाने का अवसर दिया था, लेकिन उन्होंने अपनी यह ज़िम्मेदारी पूरी नहीं की. इसके लिए देश में सबसे अधिक ज़िम्मेदार अगर कोई पार्टी है तो वह है कांग्रेस, क्योंकि आज़ादी के बाद से अब तक देश में सरकार की बागडोर सबसे ज़्यादा कांग्रेस के हाथों रही है. कांग्रेस पर मुसलमानों की अनदेखी करने का आरोप जब हद से ज़्यादा बढ़ने लगा तो आज से सात साल पूर्व केंद्र में सत्ता पर क़ाबिज़ कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए-1 सरकार ने सच्चर कमेटी का गठन करके देश के मुसलमानों की सही स्थिति जानने की कोशिश की. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट सामने आई तो भारत का हर नागरिक यह सुनकर हैरान था कि आज देश में मुसलमानों की स्थिति दलितों से भी दयनीय है. इस रिपोर्ट ने बताया कि मुसलमान शैक्षणिक, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से अत्यधिक पिछड़ चुके हैं. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने पहली बार इस बात का भी ख़ुलासा किया कि देश की जेलों में मुसलमानों की संख्या उनकी आबादी के अनुपात से बहुत अधिक है यानी पूरे देश में मुसलमानों की आबादी जहां लगभग 12 प्रतिशत है, तो वहीं जेलों में उनकी संख्या लगभग 22 प्रतिशत है. सच्चर कमेटी ने 2006 में कहा था कि सबसे अधिक मुस्लिम कैदी महाराष्ट्र की जेलों में हैं, लेकिन मौजूदा आंकड़ों के अनुसार, मुस्लिम कैदियों के मामले में पहले नंबर पर पश्चिम बंगाल है, जबकि महाराष्ट्र अब दूसरे नंबर पर पहुंच चुका है. नेशनल क्राइम रिकॉड्‌र्स ब्यूरो के ताजा आंकड़ों (दिसंबर 2010 तक) के अनुसार, सबसे अधिक 47 प्रतिशत मुस्लिम कैदी पश्चिम बंगाल में, 32 प्रतिशत महाराष्ट्र में, 26 प्रतिशत उत्तर प्रदेश में और 23 प्रतिशत बिहार में हैं. यही वे चार राज्य हैं, जहां विचाराधीन मुस्लिम कैदियों की संख्या सजायाफ्ता मुस्लिम कैदियों से कई गुना अधिक है. इससे मुसलमानों के प्रति पुलिस का भेदभावपूर्ण रवैया स्पष्ट नज़र आता है.

स्कूलों में मुसलमानों की संख्या कम, सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की संख्या कम, मुस्लिम डॉक्टरों एवं इंजीनियरों की संख्या कम, मुस्लिम नेताओं एवं जनप्रतिनिधियों की संख्या कम, लेकिन जेलों में मुस्लिम क़ैदियों की संख्या देश में उनकी आबादी के अनुपात से कहीं अधिक. आख़िर ऐसा क्यों है? क्या मुसलमान चोरी, डकैती, क़त्ल एवं बलात्कार में माहिर होते हैं? क्या देश में ऐसी कोई जगह या संस्था है, जहां पर उन्हें अपराधों का प्रशिक्षण दिया जाता है? अगर नहीं तो फिर देश की जेलों में अपराध के अनगिनत मामलों में मुस्लिम कैदियों की संख्या अधिक क्यों है? आख़िर क्यों मुसलमान ही पुलिस का सबसे पहला संदिग्ध होता है?

जानकारों का मानना है कि मुसलमानों की इस हालत के लिए उनकी ग़रीबी एवं निरक्षरता ज़िम्मेदार है, साथ ही ज़िम्मेदार है देश की नाकारा पुलिस व्यवस्था. भारतीय जेलों पर गहरी नज़र रखने वाले जानकार मुसलमानों के प्रति भेदभावपूर्ण क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को भी इसका एक बड़ा कारण मानते हैं. मुस्लिम कैदियों की केस स्टडी से पता चलता है कि जेलों में ऐसे कैदियों की संख्या सबसे अधिक है, जिन्हें जायदाद से संबंधित झगड़े, मारपीट, हत्या या हत्या करने की कोशिश, बलात्कार एवं चोरी-डकैती जैसे मामलों में गिरफ्तार किया गया है. दूसरी तरफ़ तथ्य यह भी बताते हैं कि इनमें से अधिकतर मुस्लिम कैदियों को अधिक से अधिक सात दिनों तक पुलिस हिरासत में रखने की अनुमति दी गई, क्योंकि या तो पुलिस ने अपनी जांच सात दिनों में पूरी कर ली और कोई बड़ा आरोप साबित न कर पाने के कारण अदालत से इन आरोपियों को ज़मानत मिल गई या फिर न्यायालय ने इस बात की ज़रूरत महसूस नहीं की कि उन्हें अधिक समय तक जेल में बंद रखा जाए. इन सबके बीच सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि अधिकतर मुस्लिम कैदियों की आयु 18 से 30 साल के बीच है. इतनी कम आयु में किसी बड़े अपराध की कल्पना भी नहीं की जा सकती. यह भी एक सच्चाई है कि देश की जेलों में जितने मुस्लिम कैदी इस समय बंद हैं, उनमें से बहुत कम ऐसे हैं, जिनका अपराध सिद्ध हो चुका है और बहुलता ऐसे लोगों की है, जिनका मामला वर्षों से अदालत में विचाराधीन है. बहुत से ऐसे मामले हैं, जिनका अवलोकन करने के बाद मालूम होता है कि कैदी ने कोई चोरी नहीं की थी, लेकिन उस पर ज़बरदस्ती चोरी का आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया. अदालत में पहली पेशी के दौरान चूंकि उसने अपना अपराध स्वीकार करने से मना कर दिया था, इसलिए अदालत ने उसे न्यायिक हिरासत में भेज दिया और उसके मामले में आगे की जांच करने का आदेश दिया. इस प्रकार अदालत से उस कैदी को तारीख़ पर तारीख़ मिलती रही. कुछ साल का समय गुज़रने के बाद कैदी ने आरोप स्वीकारना ही उचित समझा, लेकिन तब जाकर उसे मालूम हुआ कि चोरी के जिस झूठे आरोप में उसे गिरफ्तार किया गया था, उसकी सज़ा सिर्फ़ छह माह कैद की है, लेकिन अब तक वह जेल में तीन वर्ष से अधिक समय गुज़ार चुका है.

ऐसा नहीं है कि केवल पुलिस के भेदभावपूर्ण रवैये से जेलों में मुस्लिम कैदियों की संख्या बढ़ रही है, बल्कि इसके लिए स्वयं मुसलमान भी ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि उनके अंदर शिक्षा नहीं है. उनके अभिभावक बचपन से ही उन्हें किसी काम में लगा देते हैं, ताकि उनका बच्चा अधिक से अधिक पैसा कमा सके. लेकिन यह वह उम्र होती है, जिसमें बहकने के आसार ज़्यादा से ज़्यादा होते हैं. यही कारण है कि ये बच्चे चोरी, नशाखोरी एवं अन्य दूसरी ग़लत आदतों में फंस जाते हैं और बड़े होकर अपनी इन्हीं आदतों-इच्छाओं को पूरा करने के लिए बड़े अपराधों को अंजाम देते हैं. लिहाज़ा ज़रूरत इस बात की है कि मुसलमानों को शिक्षित किया जाए.

देश के मीडिया ने भी मुसलमानों की छवि को सबसे ज़्यादा धूमिल किया है. मीडिया की हालत यह है कि मुसलमानों की समस्याओं से संबंधित ख़बरें एवं रिपोर्टें तो कम देखने या पढ़ने को मिलती हैं, लेकिन अगर कोई मुसलमान आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त पाया जाता है तो कई-कई दिनों तक टीवी पर उसके बारे में रिपोर्टें पेश की जाती हैं, अख़बारों के पहले पन्ने पर उस ख़बर को प्रकाशित किया जाता है. मीडिया के इस रवैये में बदलाव आना चाहिए और उसे मुसलमानों की उन समस्याओं पर भी ध्यान देना चाहिए, जिनका निराकरण करके उन्हें शैक्षणिक, आर्थिक एवं सामाजिक पिछड़ेपन से उबारा जा सके.

कभी-कभी देखा जाता है कि शिक्षित होने के बावजूद मुसलमानों को नौकरी नहीं मिलती. इसकी सबसे बड़ी वजह यह भी है कि मुसलमानों की एक बड़ी आबादी अपनी शिक्षा के लिए केवल मदरसों का रुख़ करती है, जहां आधुनिक शिक्षा का कोई प्रबंध नहीं है. इसी वजह से उन्हें कोई अच्छी नौकरी नहीं मिल पाती और इस प्रकार पढ़-लिखकर भी वे ग़रीबी के अंधेरे से बाहर नहीं निकल पाते. हम सब जानते हैं कि समाज में अधिकतर बुराइयों की जड़ ग़रीबी है, मुसलमान भी इससे अछूते नहीं हैं. देश के मीडिया ने भी मुसलमानों की छवि को सबसे ज़्यादा धूमिल किया है. मीडिया की हालत यह है कि मुसलमानों की समस्याओं से संबंधित ख़बरें एवं रिपोर्टें तो कम देखने या पढ़ने को मिलती हैं, लेकिन अगर कोई मुसलमान आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त पाया जाता है तो कई-कई दिनों तक टीवी पर उसके बारे में रिपोर्टें पेश की जाती हैं, अख़बारों के पहले पन्ने पर उस ख़बर को प्रकाशित किया जाता है. मीडिया के इस रवैये में बदलाव आना चाहिए और उसे मुसलमानों की उन समस्याओं पर भी ध्यान देना चाहिए, जिनका निराकरण करके उन्हें शैक्षणिक, आर्थिक एवं सामाजिक पिछड़ेपन से उबारा जा सके.

मुसलमानों का पिछड़ापन दूर करने के लिए सरकार की तऱफ से कोशिशें हो रही हैं, लेकिन नीयत साफ़ इसलिए नहीं है, क्योंकि किसी भी पार्टी की सरकार अगर मुसलमानों के विकास और कल्याण के लिए काम करती है तो उसका पहला मक़सद यह होता है कि अगले चुनाव में मुसलमान उसे अधिक से अधिक संख्या में वोट दें. यहां भी नेकनीयती का अभाव है, इसलिए सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद मुसलमानों की हालत ज्यों की त्यों बनी हुई है. मुसलमानों की सबसे बड़ी कमज़ोरी यह है कि उनके बीच कोई ऐसा रहनुमा नहीं है, जो उनका उचित मार्गदर्शन कर सके, एक बेहतर नागरिक बनने के लिए प्रेरित कर सके और उन्हें संगठित रख सके. इन सारी खामियों को दूर करके ही मुसलमानों को बेहतर ज़िंदगी जीने का अवसर प्रदान किया जा सकता है. मुसलमानों की अनदेखी करके हमारा देश विकसित देशों की सूची में शामिल होने का अपना ख्वाब पूरा नहीं कर सकता.

आंकड़े और अंडर ट्रायल

गृह मंत्रालय के अधीन काम करने वाले नेशनल क्राइम रिकॉड्‌र्स ब्यूरो की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि देश की कुल 1,393 जेलों में बंद कैदियों की संख्या 3 लाख 68 हज़ार 998 है, जिनमें मुस्लिम कैदियों की संख्या 76 हज़ार 701 है. आश्चर्य की बात यह है कि इनमें सिर्फ़ 22 हज़ार 672 मुस्लिम कैदी ऐसे हैं, जिन्हें उनके अपराध की सज़ा सुनाई जा चुकी है, जबकि 53 हज़ार 312 मुस्लिम कैदियों के मामले अदालत में विचाराधीन हैं यानी अंडर ट्रायल मुस्लिम कैदियों की संख्या 60 प्रतिशत से अधिक है. वैसे भी देश की जेलों में मौजूद कैदियों की संख्या वहां की क्षमता से कहीं अधिक है. इस समय देश की जेलों में कुल तीन लाख 20 हज़ार 150 कैदियों को रखा जा सकता है, लेकिन वहां 3 लाख 68 हज़ार 998 कैदियों को ठूंस-ठूंसकर रखा गया है. इससे कैदियों की देखभाल पर असर पड़ा है, जेल प्रशासन पर भी काफी बोझ बढ़ गया है. दूसरी तरफ़ देश की अदालतों में इतने अधिक मामले विचाराधीन हैं कि एक मुक़दमे के निपटारे में कई साल लग जाते हैं. अदालतों में जजों की भी भारी कमी है. जब न्यायाधीश नहीं होंगे तो भला मुक़दमे की सुनवाई कौन करेगा और फिर उनका फैसला कौन करेगा.

डॉ. कमर तबरेज

dr.kamartabrez@chauthiduniya.com

(चौथी दुनिया से साभार)