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पांच में से एक फिल्‍म खराब निकल जाए, तो भी क्‍या?

♦ अविनाश
शनिवार को देखी गयी पांच फिल्‍मों के बारे में परि-टिप्‍पणियां यहां शेयर की जा रही है। एक फिल्‍म पर दो लाइन से ज्‍यादा नहीं लिख सका, क्‍योंकि मुश्किल था लिखना। पर पांच फिल्‍मों में एक फिल्‍म ने निराश भी कर दिया, तो हौसला टूटता नहीं है।
A Long and Happy Life
Dir. Dolgaya Schastlivaya Zhizn
(Russia/2013/Col./89′)
दुनिया का इतिहास सरकारी प्रपंच, जन दमन और प्रतिरोध की अनंत शृंखलाओं का इतिहास है। रसियन फिल्मकार Boris Khlebnikov की फिल्म A Long and Happy Life एक रूसी गांव के संघर्ष की कहानी है। सरकार इस गांव की जमीन पर अपने औद्योगिक सपने का विस्तार करना चाहती है और गांव के ही युवा किसान साशा को मोहरा बनाती है। साशा भी एक खुशहाल जिंदगी का भविष्य सरकार के इस षड्यंत्रकारी सपने में देखता है। लेकिन गांववाले जमीन देने से इनकार कर देते हैं। वे साशा को संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं और लड़ने के लिए राजी कर लेते हैं। पूरी फिल्म एक खूबसूरत गांव के खुद को बचाने की कहानी है.
अगर आपको मटरू की बिजली का मंडोला की याद है, तो उस फिल्म की नाटकीयता हटा दें – आपको इस फिल्म की कथा के सूत्र समझ में आ जाएंगे। डिजिटल तकनीकों के इस उन्नत दौर में सादेपन के साथ कही गयी जरूरी संघर्ष की ऐसी कहानियां फिल्मकारों को कहते रहना चाहिए.
Pied Piper
Dir. Vivek Budakoti
(India-Hindi/2013/Col./113′)
टच ऑफ सिन हाउसफुल थी, तो विकल्पहीनता में पाइड पाइपर का चयन गलत फैसला था। फिल्म में भ्रष्टाचार का मंदिर बहुत रोचक है, जिसमें देवता की जगह आईना रखा है। थोड़ी-बहुत कल्पनाशीलता के अलावा पूरी फिल्म पीपली लाइव का एक कमजोर विस्तार (एक्सटेंशन) है। ज्यादा नहीं, बस दोस्त फरीद खान को बधाई, जो इस फिल्म के एक पटकथाकार हैं.
Qissa – The Tale of A Lonely Ghost
Dir. Anup Singh
(India-Panjabi/2013/Col./109′)
म जो हैं, हमारा असली सुख वही होने में है। और यह भी कि नियति को हम चुनते हैं, नियति हमें नहीं चुनती। अनूप सिंह की पंजाबी फिल्म Qissa – The Tale of A Lonely Ghost मामी 2013 की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। सन 47 के आसपास पाकिस्तान के पंजाब से भारत के पंजाब में आकर बसे एक सिख परिवार की आखिरी स्त्री संतान को पुरुष बन कर जीने के लिए अभिशप्त होना पड़ता है। यह ओढ़ी हुई नियति सब कुछ खत्म कर के रख देती है। इरफान, टिस्का और तिलोत्तमा सहित सारे किरदारों ने क़िस्सा को अविस्मरणीय बना दिया है.
Liar’s Dice
Dir. Geethu Mohandas
(India-Hindi/2013/Col./104′)
निदा का दोहा है: “सपना झरना नींद का जागी आंखें प्‍यास, खोना पाना खोजना सांसों का इतिहास।” यह जीवन का एक सरल एहसास है, लेकिन उनके लिए असह्य है, जिन्‍होंने थोड़ा सा पाने की लालसा में सब कुछ खो दिया। गीतू मोहनदास की फिल्‍म “लायर्स डाइस” चीनी सीमा से सटे एक भारतीय गांव चितकुल की एक औरत की कहानी है, जो अपनी तीन साल की बच्‍ची को साथ लेकर अपने खोये हुए पति को खोजने के लिए निकलती है। डर की अथाह उपस्थितियों के बीच वह ऐसे आदमी पर भरोसा करती है, जो सिर्फ पैसे पर भरोसा करता है। उसके लिए संवेदना माटी के मोल जैसी है। पहले शिमला और फिर दिल्‍ली की यात्रा में आखिरकार ऐसी पीड़ा हाथ आती है, जो अकल्‍पनीय है। मैं सलाम करता हूं इस युवा निर्देशिका को, जिन्‍होंने अ‍नगिनत खोये हुए भारतीय लोगों की तरफ से भारत सरकार को यह सिने-ज्ञापन सौंपा है। बर्फ की चादर में सुगबुगाता हुआ निश्‍छल गांव, शिमला की शहरी लापरवाही और दिल्‍ली की महानगरीय क्रूरता के बीच इस कहानी को गीतू ने किरदारों की परम स्‍वाभाविकता के साथ रचा है।
मुझे ऐसा लगता था कि मामी और मुंबई के दर्शक संवेदनशील होते हैं, लेकिन “लायर्स डाइस” के दर्द में भीगे हुई कई दृश्‍यों के दौरान मैंने देखा, वे बुरी तरह हंस रहे हैं। ऐसे ही वक्‍त में अपराधी होने का मन करता है और ऐसा लगता है कि खोज खोज कर इन्‍हें थप्‍पड़ लगाया जाए। पर संभ्रांतता आपको चुप रहना सिखाती है, क्‍योंकि छवि ही इस जीवन-स्थिति का अंतिम सहारा होती है।
Don Jon
Dir. Joseph Gordon-Levitt
(USA/2013/Col./90′)
पोर्न इंडस्‍ट्री मर्दों के यौनिक दुराग्रहों का सर्वाधिक कमाऊ बाजार है। Joseph Gordon-Levitt की फिल्‍म Don Jon इसी बाजार के एक अमेरिकी उपभोक्‍ता की कहानी है। जॉन मारटेलो न्‍यूजर्सी में बार टेंडर है। वह इंटरनेट पर पोर्न वीडियोज के जरिये अपनी यौनिक कल्‍पनाओं से खुद को सेक्‍सुअली राहत देने का आदी है। वह स्‍त्री को सिर्फ एक सेक्‍स ऑब्‍जेक्‍ट समझता है और बार में आने वाली लड़कियों को बिस्‍तर तक ले जाने की निरंतर फिराक में रहता है। इस शख्‍स को उसके जीवन में आयी दो औरतें ही रिश्‍तों की गरिमा का एहसास दिलाती है और बताती है कि जिस आदत को वह हर मर्द के लिए आम बताता है, वह दरअसल एक बीमारी है। पूरी कहानी में चर्च बार-बार आता है, जहां हर स्‍वीकारोक्ति (कनफेशन) के बाद मन का पाप पानी हो जाता है।
यह फिल्‍म भारत में शायद ही कभी दिखायी जाए। पर्दे पर पोर्न का नजरिया जितना भी तार्किक हो, हमारे यहां उसे ब्‍लर (धुंधला) करना पड़ेगा। मामी में इस फिल्‍म का शो एक दिन पहले ही हाउसफुल हो चुका था और लंबी कतार में सबसे पीछे रहने और काफी मिन्‍नत के बाद यह फिल्‍म मेरे और मेरे जैसे कई दर्शकों को नसीब हुई।
(अविनाश। मोहल्‍ला लाइव के मॉडरेटर और सिने बहसतलब के संयोजक। प्रभात खबर, एनडीटीवी और दैनिक भास्‍कर से जुड़े रहे हैं। राजेंद्र सिंह की संस्‍था तरुण भारत संघ में भी रहे। उनसे avinash@mohallalive.com पर संपर्क किया जा सकता है।