चिल्लाने वाले चुप हो जाएंगे.. जो चुप बैठे हैं वो चिल्लाएंगे... कुछ चुप-चिल्लाहट के मर्म जान धीरे धीरे मौन साध जाएंगे... उन्हीं की ये दुनिया नहीं जो... चुप हैं और घात में हैं या फिर... जो चिल्ला रहे हैं और हावी हैं... ये दुनिया उनकी ज्यादा है... जो मौन हैं, स्वेच्छाधारी मौन... देखिए न, ये आसमान ये हवाएं ये बनस्पतियां ये तारे सितारे ये समुद्र ये पाताल ये जलचर नभचर प्राणी चेतन अचेतन... सब तो ज्यादातर मौन रहते हैं.... हमसे ज्यादा योगदान करते हैं इस धरती के बचे-बने रहने में.. इस धरती के जीने लायक बनाए रखने में... अपने मौन के मंत्र के माध्यम से...
एक हम मनुष्य ही हैं जो घात-प्रतिघात के चुप-चिल्लाहट के जरिए लगातार बिगाड़ रहे हैं धरती के लय सुर ताल को... और, कहते हैं कि हम सबसे समझदार हैं... अरे नादानों, तुमसे बड़ा मूर्ख नहीं इस धरती पर... अपने ही जाल में फंसकर अब मरते चले जा रहे हो... और तेज कर दी है स्पीड धरती के काउंटडाउन की... टिक टिक टिक टिक की सुई कोई सुने ना सुने... वो सुन रहे हैं बहुत तेज... जिनके हाथ में हैं दुनिया भर के कब्जाए हुए संसाधन और दूसरों से छीनकर अर्जित किया हुआ सामर्थ्य... उन्हें पता है इस लंगड़ी लूली होती जाती धरती का असली हाल... सो हो रहीं तैयारियां जाने के अंतरिक्ष के उस पर, किसी दूसरी धरती पर बसेरा बसाने के लिए....
शायद यही नियति है... या शायद ऐसे ही चलता रहता है सब... क्या फरक पड़ता है आपकी विचारधारा क्या है... क्या फर्क पड़ता है आपकी पार्टी क्या है... क्या फर्क पड़ता है आप आम जनता के समर्थक हैं.. क्या फर्क पड़ता है आप आम जनता के विरोधी हैं... क्या फर्क पड़ता है आप जातिवादी हैं.. क्या फर्क पड़ता है आप जातिवादी हैं.. क्या फर्क पड़ता है कि आप आदमी के साथ हैं या कि आदमखोर हैं! अंततः होना तो यही है कि मनुष्य लड़ेगा मनुष्य से या मनुष्य बचाएगा मनुष्य को... पर दोनों ही स्थितियों में मर रही धरती को बचाने की संभावनाएं शून्य है क्योंकि हम लोगों के एजेंडे में सिर्फ आदमी ही आदमी भरपूर है... जो आदमी को मार रहे या जो आदमी को बचा रहे, दोनों के लिए अंतिम सच आदमी का बॉस बन कर राज करने, शासन करने के सुख को जीने का है.. उनके एजेंडे में बड़े वृहत्तर, मानवेतर, यूनीवर्सल सवाल आएंगे ही नहीं क्योंकि आदमी आदमी को उखाड़ने के लिए लगा रहेगा, मारने के लिए लगा रहेगा... इसी प्रक्रिया में कोई चिल्लाएगा.. कोई चुप रहेगा... घात-प्रतिघात का खेल चलता रहेगा... हत्यारों की टोली होगी तो हत्याविरोधियों की भी टोली जन्मेगी... कभी इनका पलड़ा भारी तो कभी उनका... फारमेट बदलते रहेंगे... काम यही होता रहा है.. होता रहेगा..
आदमी से परे सोचना विचारना अमूर्त कहा जाता है ... और इस मनःस्थिति में पहुंच गयों को आदमी कम माना जाता है.... बुढ़ा गया माना जाता है... खिसका हुआ पाया जाता है... दुनियादारी से भागा हुआ कहा जाता है.... पर क्या रक्खा है आप आदमियों की दुनिया में.. सिवाय अंतहीन चिल्लाहट युक्त चुप्पी और चुप्पी युक्त चिल्लाहट के सिवा...
चलिए, आप चिल्ला रहे हैं तो चिल्लाना जारी रखिए.. चिल्लाने से होने वाले लाभों का खूब पता है आपको इसलिए मचाते रहिए अपने हिसाब से चीख-चिल्लाहट... आप चुप हैं, आप नजर रखे हुए हैं, आप सही वक्त के इंतजार में हैं, आप रणनीतिक हैं, आप कर गुजरते हैं, चिल्लाते नहीं तो आप भी जबर्दस्त कर रहे हैं... लगे रहिए और एक के बाद एक सफलताएं अपनी झोली में डालते रहिए क्योंकि आपको खूब पता व पसंद है अपनी चुप्पी के जरिए शिकार करने की स्टाइल या चुप्पी को अचानक चिल्लाहट में बदल डालने का छापामार राज...
मेरा साथ उनके साथ जो मौन-मगन हैं... जो जान चुके हैं मौन की मंजिल... जिन्हें जीना है मौन को... इसलिए उन्हें पाना है वो माहौल, बनाना है वो माहौल, तलाशनी है वो जगह जहां मौन पाया जाता है भरपूर... उसे बस भर लेना होता है सांसों में, नथुनों में भरपूर... .फुला लेना होता है पूरा फेफड़ा ताकि चुप्पी, चिल्लाहट, हाहाकार, आय हाय, हाय हाय के साइड इफेक्ट्स से मुक्ति पा सकें और जी सकें वो नया वक्त जो शुरू होता है मौन की मंजिल पर पहुंचने के बाद.. मौन को पाकर भीतर समा लेने के बाद... जय हो....
शायद यही नियति है... या शायद ऐसे ही चलता रहता है सब... क्या फरक पड़ता है आपकी विचारधारा क्या है... क्या फर्क पड़ता है आपकी पार्टी क्या है... क्या फर्क पड़ता है आप आम जनता के समर्थक हैं.. क्या फर्क पड़ता है आप आम जनता के विरोधी हैं... क्या फर्क पड़ता है आप जातिवादी हैं.. क्या फर्क पड़ता है आप जातिवादी हैं.. क्या फर्क पड़ता है कि आप आदमी के साथ हैं या कि आदमखोर हैं! अंततः होना तो यही है कि मनुष्य लड़ेगा मनुष्य से या मनुष्य बचाएगा मनुष्य को... पर दोनों ही स्थितियों में मर रही धरती को बचाने की संभावनाएं शून्य है क्योंकि हम लोगों के एजेंडे में सिर्फ आदमी ही आदमी भरपूर है... जो आदमी को मार रहे या जो आदमी को बचा रहे, दोनों के लिए अंतिम सच आदमी का बॉस बन कर राज करने, शासन करने के सुख को जीने का है.. उनके एजेंडे में बड़े वृहत्तर, मानवेतर, यूनीवर्सल सवाल आएंगे ही नहीं क्योंकि आदमी आदमी को उखाड़ने के लिए लगा रहेगा, मारने के लिए लगा रहेगा... इसी प्रक्रिया में कोई चिल्लाएगा.. कोई चुप रहेगा... घात-प्रतिघात का खेल चलता रहेगा... हत्यारों की टोली होगी तो हत्याविरोधियों की भी टोली जन्मेगी... कभी इनका पलड़ा भारी तो कभी उनका... फारमेट बदलते रहेंगे... काम यही होता रहा है.. होता रहेगा..
आदमी से परे सोचना विचारना अमूर्त कहा जाता है ... और इस मनःस्थिति में पहुंच गयों को आदमी कम माना जाता है.... बुढ़ा गया माना जाता है... खिसका हुआ पाया जाता है... दुनियादारी से भागा हुआ कहा जाता है.... पर क्या रक्खा है आप आदमियों की दुनिया में.. सिवाय अंतहीन चिल्लाहट युक्त चुप्पी और चुप्पी युक्त चिल्लाहट के सिवा...
चलिए, आप चिल्ला रहे हैं तो चिल्लाना जारी रखिए.. चिल्लाने से होने वाले लाभों का खूब पता है आपको इसलिए मचाते रहिए अपने हिसाब से चीख-चिल्लाहट... आप चुप हैं, आप नजर रखे हुए हैं, आप सही वक्त के इंतजार में हैं, आप रणनीतिक हैं, आप कर गुजरते हैं, चिल्लाते नहीं तो आप भी जबर्दस्त कर रहे हैं... लगे रहिए और एक के बाद एक सफलताएं अपनी झोली में डालते रहिए क्योंकि आपको खूब पता व पसंद है अपनी चुप्पी के जरिए शिकार करने की स्टाइल या चुप्पी को अचानक चिल्लाहट में बदल डालने का छापामार राज...
मेरा साथ उनके साथ जो मौन-मगन हैं... जो जान चुके हैं मौन की मंजिल... जिन्हें जीना है मौन को... इसलिए उन्हें पाना है वो माहौल, बनाना है वो माहौल, तलाशनी है वो जगह जहां मौन पाया जाता है भरपूर... उसे बस भर लेना होता है सांसों में, नथुनों में भरपूर... .फुला लेना होता है पूरा फेफड़ा ताकि चुप्पी, चिल्लाहट, हाहाकार, आय हाय, हाय हाय के साइड इफेक्ट्स से मुक्ति पा सकें और जी सकें वो नया वक्त जो शुरू होता है मौन की मंजिल पर पहुंचने के बाद.. मौन को पाकर भीतर समा लेने के बाद... जय हो....
लेखक यशवंत भड़ास से जुड़े हुए हैं. उन्होंने अपनी मनःस्थिति, मन में चलने वाले कुछ सवालों, कुछ स्थितियों को उपरोक्त शब्दों के जरिए सामने रखा है ताकि इस रॉ यानि कच्चे किस्म के मंथन-चिंतन पर कुछ और लोग रोशनी डालें, सवालों को जवाब की दिशा में ले जाएं. संपर्क:yashwant@bhadas4media.com