साहित्य का राजहंस हमें छोड़ गया। आदरणीय राजेंद्र यादव के न रहने से हमने हिंदी साहित्य के उस आवेग, असहमति और साहस को गंवा दिया है, जिसकी भरपाई शायद ही कभी संभव हो और उसके बिना हम एक भारी निरसता और ठंडेपन का अनुभव करेंगे। अभी कल ही तो 'दृश्यांतर' में उनके उपन्यास 'भूत' का अंश पढ़कर मैंने टिप्पणी की थी। राजेंद्र जी के साथ मुझे भी कुछ महीनों काम करने का समय मिला था। मैंने अब तक के जीवन में उन जैसा जनतांत्रिक व्यक्ति नहीं देखा।
वे हम जैसे नवोदित और अपढ़-अज्ञानी लोगों से भी बराबरी के स्तर पर बात करते थे और अपनी श्रेष्ठता को बीच में कहीं फटकने तक नहीं देते थे। किशन से नजरें चुराकर कवि रवींद्र स्वप्निल प्रजापति और मुझे अनेक बार उन्होंने अपनी थाली की रोटी खिलाया था। मैं जब-तब उनका हमप्याला भी बना। वे एक बार कृष्णबिहारी जी के पास अबूधावी गये थे, तो वहाँ से मेरे लिये वहाँ की एक सिगरेट का पैकेट लेकर आये थे। उन्होंने सबसे नौसिखुआ दिनों में 'हंस' के कुछ महीनों में मुझे जो आजादी दी थी, उसे मैं भूल नहीं सकता। बाद में रोजी-रोटी और पारिवारिक जरूरतों के कारण मुझे 'हंस' छोड़ना पड़ा था।
राजेंद्र जी को जब पता चला कि 'हंस' से अधिक मेहनताने का ऑफर एक दूसरी जगह से मुझे है, तो उन्होंने मेरी भावुकता को फटकारते हुए कहा था कि जा, तू...आगे की जिंदगी देख। तुम्हारे आगे अभी लंबी जिंदगी पड़ी है। उन्होंने हंस के संपादकीय में अगले महीने लिखा कि हमारे सहायक संपादक हरे प्रकाश उपाध्याय अब कादंबिनी में आ रहे हैं। ऐसा ही कुछ था। मैंने उनसे पूछा कि आपने 'जा रहे हैं', क्यों नहीं लिखा, तो बोले कि-- ''तुम जा नहीं सकते मेरे यहाँ से''।
राजेंद्र जी को जब पता चला कि 'हंस' से अधिक मेहनताने का ऑफर एक दूसरी जगह से मुझे है, तो उन्होंने मेरी भावुकता को फटकारते हुए कहा था कि जा, तू...आगे की जिंदगी देख। तुम्हारे आगे अभी लंबी जिंदगी पड़ी है। उन्होंने हंस के संपादकीय में अगले महीने लिखा कि हमारे सहायक संपादक हरे प्रकाश उपाध्याय अब कादंबिनी में आ रहे हैं। ऐसा ही कुछ था। मैंने उनसे पूछा कि आपने 'जा रहे हैं', क्यों नहीं लिखा, तो बोले कि-- ''तुम जा नहीं सकते मेरे यहाँ से''।
बाद में जीवन की आपाधापी में उनसे मिलना कम होता गया। मैंने उनसे क्या-क्या छूट नहीं ली। अपनी अज्ञानता में उन पर तिलमिलानेवाली न जाने कैसी-कैसी टिप्पणियां की, कभी एकदम सामने तो कभी लिखकर, पर उन्होंने शायद ही कभी बुरा माना। अगर माना भी हो, तो मुझे तो कम से कम ऐसा आभास नहीं होने दिया। आज यह सब लिखते हुए मैं सचमुच रो रहा हूँ।
राजेंद्र जी, आपसे जो लोग निरंतर असहमत रहते थे और झगड़ते रहते थे- वे सब रो रहे होंगे। अब हमें जीवन और कोई राजेंद्र यादव नहीं मिलेगा। राजेंद्र यादव जैसा कोई नहीं मिलेगा। राजेंद्र जी का जीवन सचमुच खुली किताब की तरह है। दिल्ली के बड़े लेखकों में अगर सबसे ज्यादा उपलब्ध, सहज और मानवीय कोई था, तो राजेंद्र यादव। दिल्ली के मेरे दिनों की अगर मेरी कोई उपलब्धि है, तो राजेंद्र यादव से मिलना, उनसे बहसना और उनके साथ काम करना। बातें काफी हैं, पर मैं अभी नहीं लिख पाऊंगा और सभी तो कभी नहीं लिख पाऊंगा।
राजेंद्र जी, आपसे जो लोग निरंतर असहमत रहते थे और झगड़ते रहते थे- वे सब रो रहे होंगे। अब हमें जीवन और कोई राजेंद्र यादव नहीं मिलेगा। राजेंद्र यादव जैसा कोई नहीं मिलेगा। राजेंद्र जी का जीवन सचमुच खुली किताब की तरह है। दिल्ली के बड़े लेखकों में अगर सबसे ज्यादा उपलब्ध, सहज और मानवीय कोई था, तो राजेंद्र यादव। दिल्ली के मेरे दिनों की अगर मेरी कोई उपलब्धि है, तो राजेंद्र यादव से मिलना, उनसे बहसना और उनके साथ काम करना। बातें काफी हैं, पर मैं अभी नहीं लिख पाऊंगा और सभी तो कभी नहीं लिख पाऊंगा।
लेखक हरे प्रकाश उपाध्याय युवा कवि और पत्रकार हैं. इन दिनों लखनऊ से प्रकाशित हिंदी दैनिक जनसंदेश टाइम्स में फीचर एडिटर के बतौर कार्यरत हैं. उसके पहले कादंबिनी समेत कई पत्रिकाओं-अखबारो में कार्य कर चुके हैं.
Sabhar- Bhadas4media.com