लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। अगले पांच साल के लिए देश का और हम सबका भाग्य दांव पर लगाने की तैयारी की जा रही है। पता नहीं अगला नेतृत्व कैसे होगा? क्या देश को आगे बढ़ाने की बात होगी या फिर एक बार हम सब इन राजनेताओं की बातों में गुमराह होते रहेंगे। देश के लोगों के मूलभूत सवालों का जवाब आखिरकर कौन देगा? सरकार किसी की भी बने पर देश के लोगों को उनके मिलने वाले हक से आखिर दूर कैसे कर सकती है। हर दफा चुनाव से पहले इसी तरह की घिनौनी साजिश की जाती है जिससे देश का आम आदमी अपने अधिकार की बात न कर सके।
होना यह चाहिए कि चुनाव से पहले सवालों पर बात होनी चाहिए कि आखिर ऐसी कौन सी नीति सरकार या विपक्ष के पास है जो इस देश के लोगों को दो वक्त का खाना नसीब कराएगी। ऐसी क्या योजना है जो हर गरीब और उसके परिवार के ईलाज के लिए अस्पताल और दवा उपलब्ध करा दे। कौन है जो यह तय कर सकता हो कि इस देश के हर परिवार के सिर पर छत होगी। कोई खुले आसमान के नीचे नहीं सोयेगा। अफसोस किसी भी दल के पास इन तमाम सवालों का जवाब और ठोस नीति नहीं है।
होना तो यह चाहिए कि सभी दल इस देश के लोगों से यह वादा करें कि वह किसी भी अपराधी को टिकट नहीं देंगे। वह किसी भी अपराधी के परिजन को भी टिकट नहीं देंगे। सभी यह भी कहे कि अगर पार्टी के सामने ऐसा मामला आया कि निर्वाचित होने के बाद भी अगर उनका प्रतिनिधि किसी भी अपराध में लिप्त पाया जाता है या अपराध को बढ़ावा देता है तो वह उसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा देंगे अगर ऐसा हो जाये तो कितना बेहतर हो जाये। लेकिन इन बातों की उम्मीद राजनीतिक दलों और राजनेताओं से करना बेमानी हैं। मगर यह सब वह आदर्श हैं जो कोई नहीं मानेगा बल्कि यूं कहिए कि ऐसा कोई करना भी नहीं चाहता। सबके अपने-अपने तर्क और स्वार्थ हैं। उनके स्वार्थों में कहीं भी यह व्यवस्था परिवर्तन की बात सामने नहीं आती। ऐसी बाते उनको कोई फायदा भी नहीं पहुंचाती। उनके अपने स्वार्थों की दुनिया उन्हें इस बात की इजाजत भी नहीं देती। दरअसल ऐसी ही बातें उनके वजूद को जिंदा रखती हैं। उन्हें आर्थिक और राजनैतिक फायदा पहुंचाती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ये ही आज की राजनीति का हिट फार्मूला बन गए हैं। जिनके दम पर नेता सत्ता हासिल करना चाहते हैं और कामयाब भी हो रहे हैं। तो क्या माना जाए कि यह परिवर्तन अब नहीं होगा? दरअसल इस देश का आम आदमी अभी भी बहुत भोला है। वह बंटा हुआ है जाति में, धर्म में या ऐसी ही किसी ढकोसली बातों में वह अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में इतना उलझा हुआ है कि वह मूलभूत बातों की तरफ कभी सोच ही नहीं पाता। हमारे राजनेता भी एक सुनियोजित तरीके से उसे उसकी मायावी दुनिया में ही उलझाये रखते हैं। उसे ऐसा मौका नहीं देते कि वह शांतिपूर्ण तरीके से यह तय कर सके कि उसके जीवन के लिए बेहतर क्या है?
चुनाव से पहले बहुत सफाई के साथ हमारे राजनेता आम आदमी की थकी हुई जिदंगी को मायावी सपनों से भरते हैं। उनके अंदर जोश जगाते हैं, उन सपनों का जो कभी पूरे नहीं किये जाते। मगर देश का आम आदमी खुद को इन सपनों में खोया महसूस करता है। उसे लगता है कि यही व्यक्ति या यही दल है जो उसके इन सपनों को पूरा कर सकता है। लिहाजा कमोवेश वह असली मुद्दों को भूलकर ऐसी ही बातों पर भरोसा करता है और मतदान करता है। एक बार वोट पाने के बाद राजनेता पांच साल के लिए भूल जाते हैं कि उन्होंने इस देश के आम आदमी से कभी कोई वायदा भी किया है।
यह बात कितनी हास्यास्पद और खतरनाक है कि 120 करोड़ आबादी वाले देश में कोई राजनीतिक दल इस बात की कल्पना करने की हिम्मत कर सकता है कि वह कहेगा कि एक स्थान पर मंदिर बनाना उसकी सबसे बड़ी प्राथमिकताओं में से एक है। उसे लगता है कि इन बातों से प्रभावित होकर लोग उसे वोट दे देंगे। लिहाजा चुनाव आने से पहले एक बार फिर मंदिर बनाने के लिए इस बार भी माहौल बनाने की कोशिशें तेज की जा रहीं हैं। कितना दुख भी होता है यह देखकर कि जिस देश की आधे से अधिक आबादी को दो वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब न होती हो उसे देश में सरकार इस आधार पर बनाने की कोशिश की जाये कि एक स्थान पर मंदिर बनाया जायेगा या फिर कोई दल मुस्लिमों को सिर्फ लुभावने वादे चुनाव के समय ही याद दिलाये।
कितने दुख का विषय है हम सबके लिए कि हम इन राजनेताओं के इस घिनौने जाल में फंस भी जाते हैं। हम पूछ नहीं पाते कि एक स्थान पर मंदिर या मस्जिद बन भी जाए तो क्या इससे देश की बाकी समस्यायें हल हो जायेंगी? क्या लोगों को दो वक्त की रोटी मिलना शुरू हो जायेगी? क्या उनके परिवार के लिए खाने और रहने की व्यवस्था हो जायेगी? क्या आम आदमी का जीवन स्तर सुधर जायेगा? सच्चाई यह है कि इन सब बातों देश की स्थिति में कोई सुधार नहीं होने वाला है। न तो इससे विकास की गति बढऩी है और न ही हम अपने दुश्मन देशों की बढ़ती हुई ताकत से लोहा लेने में सक्षम हो सकते हैं। फिर भी हम नेताओं के बहकावे का शिकार होकर खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने सरीखा काम करते हैं। हम सब भूल जाते हैं कि इस देश की मूलभूत समस्यायें कुछ और हैं। हमको समझना चाहिए कि किस तरह राजनैतिक दल हमारे सपनों के साथ खिलवाड़ करते हैं। और किस तरह हम उनकी बातों में फंसते चले जाते हैं और मतलब परस्त राजनेता हमारे ही वोटों के दम पर सत्ता की मलाई खाते हैं।
अब वक्त आ गया है कि जब हम इन षड्ïयंत्रों को पहचाने। साफ तौर पर कह दें कि अब यह सब बहुत दिनों तक बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। हम सब तय करें कि जो राजनैतिक दल अपराधियों को बढ़ावा देगा हमको धर्म और जाति के खेल में उलझायेगा। हम सब उसका समर्थन नहीं करेंगे। हम सबकी यह छोटी सी पहल एक न एक दिन बड़ा बदलाव ला ही देगी।- संजय शर्मा
होना यह चाहिए कि चुनाव से पहले सवालों पर बात होनी चाहिए कि आखिर ऐसी कौन सी नीति सरकार या विपक्ष के पास है जो इस देश के लोगों को दो वक्त का खाना नसीब कराएगी। ऐसी क्या योजना है जो हर गरीब और उसके परिवार के ईलाज के लिए अस्पताल और दवा उपलब्ध करा दे। कौन है जो यह तय कर सकता हो कि इस देश के हर परिवार के सिर पर छत होगी। कोई खुले आसमान के नीचे नहीं सोयेगा। अफसोस किसी भी दल के पास इन तमाम सवालों का जवाब और ठोस नीति नहीं है।
होना तो यह चाहिए कि सभी दल इस देश के लोगों से यह वादा करें कि वह किसी भी अपराधी को टिकट नहीं देंगे। वह किसी भी अपराधी के परिजन को भी टिकट नहीं देंगे। सभी यह भी कहे कि अगर पार्टी के सामने ऐसा मामला आया कि निर्वाचित होने के बाद भी अगर उनका प्रतिनिधि किसी भी अपराध में लिप्त पाया जाता है या अपराध को बढ़ावा देता है तो वह उसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा देंगे अगर ऐसा हो जाये तो कितना बेहतर हो जाये। लेकिन इन बातों की उम्मीद राजनीतिक दलों और राजनेताओं से करना बेमानी हैं। मगर यह सब वह आदर्श हैं जो कोई नहीं मानेगा बल्कि यूं कहिए कि ऐसा कोई करना भी नहीं चाहता। सबके अपने-अपने तर्क और स्वार्थ हैं। उनके स्वार्थों में कहीं भी यह व्यवस्था परिवर्तन की बात सामने नहीं आती। ऐसी बाते उनको कोई फायदा भी नहीं पहुंचाती। उनके अपने स्वार्थों की दुनिया उन्हें इस बात की इजाजत भी नहीं देती। दरअसल ऐसी ही बातें उनके वजूद को जिंदा रखती हैं। उन्हें आर्थिक और राजनैतिक फायदा पहुंचाती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ये ही आज की राजनीति का हिट फार्मूला बन गए हैं। जिनके दम पर नेता सत्ता हासिल करना चाहते हैं और कामयाब भी हो रहे हैं। तो क्या माना जाए कि यह परिवर्तन अब नहीं होगा? दरअसल इस देश का आम आदमी अभी भी बहुत भोला है। वह बंटा हुआ है जाति में, धर्म में या ऐसी ही किसी ढकोसली बातों में वह अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में इतना उलझा हुआ है कि वह मूलभूत बातों की तरफ कभी सोच ही नहीं पाता। हमारे राजनेता भी एक सुनियोजित तरीके से उसे उसकी मायावी दुनिया में ही उलझाये रखते हैं। उसे ऐसा मौका नहीं देते कि वह शांतिपूर्ण तरीके से यह तय कर सके कि उसके जीवन के लिए बेहतर क्या है?
चुनाव से पहले बहुत सफाई के साथ हमारे राजनेता आम आदमी की थकी हुई जिदंगी को मायावी सपनों से भरते हैं। उनके अंदर जोश जगाते हैं, उन सपनों का जो कभी पूरे नहीं किये जाते। मगर देश का आम आदमी खुद को इन सपनों में खोया महसूस करता है। उसे लगता है कि यही व्यक्ति या यही दल है जो उसके इन सपनों को पूरा कर सकता है। लिहाजा कमोवेश वह असली मुद्दों को भूलकर ऐसी ही बातों पर भरोसा करता है और मतदान करता है। एक बार वोट पाने के बाद राजनेता पांच साल के लिए भूल जाते हैं कि उन्होंने इस देश के आम आदमी से कभी कोई वायदा भी किया है।
यह बात कितनी हास्यास्पद और खतरनाक है कि 120 करोड़ आबादी वाले देश में कोई राजनीतिक दल इस बात की कल्पना करने की हिम्मत कर सकता है कि वह कहेगा कि एक स्थान पर मंदिर बनाना उसकी सबसे बड़ी प्राथमिकताओं में से एक है। उसे लगता है कि इन बातों से प्रभावित होकर लोग उसे वोट दे देंगे। लिहाजा चुनाव आने से पहले एक बार फिर मंदिर बनाने के लिए इस बार भी माहौल बनाने की कोशिशें तेज की जा रहीं हैं। कितना दुख भी होता है यह देखकर कि जिस देश की आधे से अधिक आबादी को दो वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब न होती हो उसे देश में सरकार इस आधार पर बनाने की कोशिश की जाये कि एक स्थान पर मंदिर बनाया जायेगा या फिर कोई दल मुस्लिमों को सिर्फ लुभावने वादे चुनाव के समय ही याद दिलाये।
कितने दुख का विषय है हम सबके लिए कि हम इन राजनेताओं के इस घिनौने जाल में फंस भी जाते हैं। हम पूछ नहीं पाते कि एक स्थान पर मंदिर या मस्जिद बन भी जाए तो क्या इससे देश की बाकी समस्यायें हल हो जायेंगी? क्या लोगों को दो वक्त की रोटी मिलना शुरू हो जायेगी? क्या उनके परिवार के लिए खाने और रहने की व्यवस्था हो जायेगी? क्या आम आदमी का जीवन स्तर सुधर जायेगा? सच्चाई यह है कि इन सब बातों देश की स्थिति में कोई सुधार नहीं होने वाला है। न तो इससे विकास की गति बढऩी है और न ही हम अपने दुश्मन देशों की बढ़ती हुई ताकत से लोहा लेने में सक्षम हो सकते हैं। फिर भी हम नेताओं के बहकावे का शिकार होकर खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने सरीखा काम करते हैं। हम सब भूल जाते हैं कि इस देश की मूलभूत समस्यायें कुछ और हैं। हमको समझना चाहिए कि किस तरह राजनैतिक दल हमारे सपनों के साथ खिलवाड़ करते हैं। और किस तरह हम उनकी बातों में फंसते चले जाते हैं और मतलब परस्त राजनेता हमारे ही वोटों के दम पर सत्ता की मलाई खाते हैं।
अब वक्त आ गया है कि जब हम इन षड्ïयंत्रों को पहचाने। साफ तौर पर कह दें कि अब यह सब बहुत दिनों तक बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। हम सब तय करें कि जो राजनैतिक दल अपराधियों को बढ़ावा देगा हमको धर्म और जाति के खेल में उलझायेगा। हम सब उसका समर्थन नहीं करेंगे। हम सबकी यह छोटी सी पहल एक न एक दिन बड़ा बदलाव ला ही देगी।- संजय शर्मा
Sabhar-weekandtimes.com