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पत्रकारिता की मेरी पहली पारी और वो कांग्रेसी संपादक

सब भूल गया कुछ याद रही : ‘वक्त का ये परिंदा रुका है कहां, मैं था पागल जो इसको भुलाता रहा, चार पैसा कमाने मैं आया शहर, गांव मेरा मुझे याद आता रहा.’ सुनते-सुनते ढेर सारी पुरानी बातें याद आती गयी. दस साल देखते ही देखते निकल गए. अभी जब छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव निपट गए हैं और दिल्ली का घमासान जारी है तो जरा फुर्सत में दस साल पहले के अपने समय को ताकने निकला हूं. दिल्ली की ऐसी ही सर्दियों के दिन थे. शीला दीक्षित अपनी दूसरी पारी के लिए मैदान में थी. प्रसारण पत्रकारिता की पढ़ाई खत्म करने के बाद एक राष्ट्रीय चैनल में इंटर्नशिप कर नौकरी के लिए संघर्ष कर रहा था.
गोविन्दपुरी के झोपडी जैसे मकान के तीसरे माले पर तीन लोगों के साथ एक एस्बेस्टस की छत के नीचे गुजर रही थी अपनी रात. उस समय 900 रूपये के कमरे को हम तीन लोग शेयर करते थे. उसी में खाना बनाने से लेकर खाने तक की सुविधा. एक बाथरूम में कम से कम 15 लोगों के निबटने का इंतज़ाम. रोज़ सुबह कालका जी चौराहे के पास से चार अखबार खरीद कर लाता, दिन भर उसे चाटता रहता. ख़ास कर नौकरी के विज्ञापन वाले पृष्ठ पर नज़र बनाए रखना ही काम हो गया था. लगभग सभी चैनलों और अखबारों तक बायो डाटा भेज चुका था. जिस चैनल में इन्टर्न रहा था वहाँ के अलावे और कहीं से न कोई बुलावा आया था और न ही कोई आश्वासन. बस खुद को दिलासा देते-देते समय कट रहा था. जिन मित्रों की नौकरी लग गयी थी उन्हें हसरत भरी निगाहों से देख-देख कर दिन बीत रहे थे.
ऐसे ही अखबार उलटते-पलटते एक दिन एक कथित अखबार का विज्ञापन दिखा जिसका टीवी चैनल होने का भी दावा किया गया था. फौरन से ---पेश्तर---- फोन लगाया. अगले दिन का ही एप्वायंटमेंट मिला. अगले दिन सुबह-सुबह पूरी तैयारी के साथ पहुँच गया था उसके ऑफिस प्रीत विहार. एक कमरे के ऑफिस में ही टीवी चैनल और अखबार सबको चलते देख अचंभा तो ज़रूर हुआ था लेकिन अपने को तो नौकरी चाहिये थी. साक्षात्कार में शामिल हुआ. बायो डाटा के साथ उस समय तक कुछ बड़े अखबारों में छपे लेख आदि साक्षात्कार लेने वालों के सामने रखे. बिना मुझसे पूछे वो भद्र आदमी खुद ही बताने लगा की यही उसका ऑफिस है. वो ‘चार कदम’ नाम से एक अखबार निकालता है और साथ ही वो कांग्रेस के किसी मोर्चे का अध्यक्ष भी है. बिना किसी औपचारिकता के ‘नौकरी’ मिल गयी थी. अगले दिन जाते ही पहला काम ये बताया गया की मुझे दिल्ली के गोल मार्केट का विधान सभा का ओपिनियन सर्वे करना है. वहाँ से शीला दीक्षित खुद उम्मीदवार थी और उनका मुकाबला भाजपा की पूनम आज़ाद से था. बार-बार मैं सोचता रहा की आखिर कोई तो औपचारिकता होगे ज्वाइन करने की. कुछ वेतन अदि के बारे में भी तो बताया जाएगा ताकि घर पर खुशखबरी दे सकूं. हालांकि कोई मेरे वेतन से घर का चुल्हा जलना था ऐसी बात नहीं थी. एक मध्यवर्गीय संयुक्त किसान परिवार का सबसे छोटा सदस्य होने के नाते कोई चिंता के बात नहीं थी. भाई लोग भी अपने-अपने क्षेत्र में सैटल थे लेकिन सबकी साझी चिंता तो थी ही मेरे भी भविष्य के लेकर. बहरहाल.

अगले दिन घर से सीधे गोल मार्केट ही पहुचा. वहां एक जगह उतर कर लोगों से पूछना शुरू किया. तीसरे सेमेस्टर में ही ‘कम्युनिकेसन रिसर्च’ का ठीकठाक अध्ययन करने के कारण एक सामान्य समझ तो थी ही सर्वे आदि के बारे में. हालांकि किसी तरह का कोई रिसर्च डिजाइन नहीं किया गया था न ही मेरे उस नेता संपादक को मालूम भी रहा होगा इस विषय के बारे में कुछ भी. खुद की समझ के अनुसार ही आंकड़े इकट्ठे करता गया. कुछ लोगों से नाम के साथ फोटो आदि भी मांग लेता था ताकि सर्वे की विश्वसनीयता बनी रहे. पैदल-पैदल ही सारे इलाके का चक्कर लगाते लगाते शाम हो गयी. जहाँ से खत्म किया था सर्वे वहाँ को चिन्हांकित कर फिर अगले दिन वहीं से शुरू हो गया. एहतियातन लोगों से विधानसभा का नाम भी पूछ लेता था ताकि किसी अन्य क्षेत्र में न चला जाऊं.

ऐसे ही तीन दिन करने के बाद हाथ से ही छः-सात पेज का रिपोर्ट बनाया. जमा किये गए फोटो आदि के साथ ठाकुर (संपादक का पूरा नाम याद नहीं आ रहा है लेकिन बड़ा कमीना था वो. उसके कमीनगी की दास्ताँ आगे) साहब को सौंप आया रिपोर्ट. देर रात उसका फोन आया की ‘साहब’ आपने तो हमारा सम्मान बढ़ा दिया. मैडम (ज़ाहिर है शीला दीक्षित) खूब संतुष्ट और खुश थी. उन्होंने कल आपको मिलने को बुलाया है. (सच या झूठ वो ठाकुर जाने या भगवान) अपने लिए तो खैर वो खबर किस तरह की खुशी का रहा होगा उसकी कल्पना कोई भी ऐसा आदमी कर सकता है जिसने नौकरी के लिए दिल्ली में संघर्ष किया हो. पहले ही एसाइनमेंट में खुद दिल्ली की महारानी का बुलावा आ जाना किसी को भी ऐसा लगता की अब तो सपने बिलकुल सूरज निकलने तक ही दूर है.

सुबह हो ही गयी थी आखिर. खूब तैयार हो कर, सबसे अच्छा ड्रेस पहन कर निकला उस दिन कथित ऑफिस को. पता नहीं क्या-क्या सोचते हुए की आज पता नहीं सीएम क्या प्रस्ताव दे दें. शायद खुद अपने यहाँ ही नौकरी पर रखने का उनका मन हो. शायद वो कहीं और लगवा दें. फिर डीटीसी की बस में जाते हुए खुद को कड़े मन से इस बात के लिए तैयार किया कि चाहे कुछ भी हो नेताओं की नौकरी तो नहीं करूंगा. ज्यादा से ज्यादा यही आग्रह करूंगा की अगर दिला सकती हैं तो किसी मीडिया में नौकरी दिला दें.. आदि-आदि.

ऑफिस पहुचते ही मोटा ठाकुर बोला की अभी हम आप का ही इंतज़ार कर रहे थे. मुझे ‘मैडम’ के पास अभी जाना है. आपको लेकर जाता लेकिन आप अभी थोडा यमुना पार चले जाइए. वहाँ झुग्गियों में कोई झगडा हो गया है उसकी खबर लाना ज़रूरी है. सीएम हाउस जाते-जाते अपन पहुच गए थे झुग्गियों में. यहाँ यह बात गौर करने लायक है की अभी तक कही भी आने-जाने या अन्य खर्च के नाम पर अखबार से फूटी कौड़ी भी नहीं मिला था. सब जेब से ही करते हुए दिन गिन रहे थे महीने लगने का या इस बात का की खुद संपादक कभी खर्च के नाम पर ही कुछ दे देगा. इलाके का नाम तो याद नहीं अब लेकिन उसके बताये पते पर पहुचा. उस अवैध कॉलोनी का नेता टाइप एक आदमी था जिससे हमें मिलना था. पता चला की बात कोई ख़ास नहीं है बस उसके कहे अनुसार एक खबर लिखनी है बस. बात हुई, चाय आदि पिलाया और हाथ में 400 रूपये देते हुए उसने कहा की खबर छपने के बाद और जो भी होगा वो मैं दे दूंगा आपको.

ज़ाहिर है पैसे लेने से इनकार कर उसके पासपोर्ट साइज़ फोटो आदि के साथ वापस आ गया. संपादक तब तक आ गया था ऑफिस में. मैंने उसे पूरी बात बतायी और बड़े गर्व से ये भी बताया की उसके पैसे मैंने ठुकरा दिए. बस इतने पे ही संपादक महोदय बरस पड़े. ऐसे कैसे काम चलेगा भाई? आप खुद को प्रभु चावला समझने लगे हैं क्या? यहाँ एक-एक पैसे की समस्या है और आप 400 रुपया छोड़ आये. आपको भी कुछ खर्च के लिए दे देता उसमें से. मैं माफी मांगते हुए कहा कि आप जितनी भी स्टोरी करने को कहेंगे मैं कर दूंगा लेकिन पैसे किसी से लेना मेरे वश की बात नहीं. तब उसने स्पष्ट कहा कि महीने के हिसाब से वेतन देना उसके वश की बात नहीं है. वह चाहता है कि 70 उम्मीदवारों से मैं संपर्क करू. जिनकी भी रूचि हो उनका सर्वे करू. और उनसे अखबार खरीदने का आग्रह करूं. जितने हज़ार का प्रिंट आर्डर होगा उतना ही अखबार छपेगा और उसका पचीस प्रतिशत कमीशन के रूप में मुझे मिल जाएगा. दस दिन में दूसरा ऐसा मौका था जब बाहर निकल कर फूट-फूट कर रोया था. फिर जा कर उससे आग्रह किया कि शेष सारा काम मैं कर दूंगा लेकिन पैसे आप खुद उनलोगों से ले लीजियेगा या किसी और को भेज दीजियेगा.

थोड़े खट्टे मन से उसने माना मेरी बात और फिर से शुरू हो गया अपना काम. बाद में एक खटारा गाड़ी भी दे दी थी उसने जिसे लेकर सुबह से निकल पड़ता बुराड़ी, करावल नगर और पता नहीं किस-किस विधानसभा में. जहां पर जिस दल का उम्मीदवार हाथ आता उसके लिए ‘काम’ करना शुरू. संपादक को इलाके की रिपोर्ट लिख कर देता और उम्मीदवारों के नम्बर के साथ ये भी कि कितना कॉपी खरीदेगा वो. मेरी स्टोरी आदि से पूर्णतः संतुष्ट होने के बावजूद उसे इस बात का क्षोभ बना रहा कि पैसे के मामले में मैं उसकी उम्मीदों पर खडा नहीं उतर रहा हूं. हाँ एक ‘इमानदारी’ उसकी ये थी कि जहां कांग्रेस का उम्मीदवार हाथ न आये वहीं दूसरों के लिए काम करना है. पता नहीं कितनों से उसने बात की किसने वादे के मुताबिक़ पैसे दिए, अखबार भी लगातार छपता रहा लेकिन मुझे यही बताता रहा कि मैं बात कर तो आ जाता हूं लेकिन पैसे कोई नहीं देता. अब अपनी यह बात पूछने की हिम्मत तो थी नहीं कि अगर कोई पैसा नहीं देता तो वो अखबार कैसे छाप रहा है. बस एक बार मोबाइल रिचार्ज कराने को उससे 500 रूपये मिले और उसमे जी भर नाश्ता भी किया और मोबाइल भी रिचार्ज करा डाला.

अंततः ऐसे  ही विधान सभा के चुनाव खत्म हुए. जैसा कि अनुमान था उसी तरह शीला दीक्षित सत्ता में वापस लौटी. और उस अखबार में अपना काम भी खत्म हुआ. अब एक ही काम बचा था कि संपादक से जितना पैसा अपना बना उसका हिसाब करा कर पैसे ले लूं. मन में लड्डू फूट रहे थे. कभी सोचता कि आठ-दस हज़ार तो बन ही जायेंगे. कभी लगता कि शायद उतना न दे शायद 5 हज़ार ही मिल जाय. गोविंदपुरी से प्रीत विहार तक जाने-आने में रोज 30 रुपया खर्च करता और वापस मन मसोस कर खाली हाथ लौट आता. अंततः एक दिन मुलाक़ात हुई तो संपादक ने बताया कि मेरे कुल हिसाब पांच सौ मात्र बनता है जिसे वो बाद में कभी दे देगा. इच्छाओं पर तुषारापात हुआ. लगा जैसे सरे आम नंगा कर दिया गया होऊँ. फिर भी काफी विनम्रता से आग्रह किया कि ठीक है सर..उतना ही दे दीजिए लेकिन अभी दे दें. उसने कहा कि अभी पैसे नहीं है. कभी फोन कर के आ जाइयेगा दे दूंगा.

आगे उस पांच-पांच सौ रुपये के लिए एक से एक पापड बेलने पड़े. कभी कहीं बुलावा भेजता तो कभी किसी दूर गांव में बुलाया जाता. कभी मीलों पैदल चल कर पांच सौ के लिए पहुचता तो कभी बस आदि से. ऐसे क्यूँ बुलाया जाता, उसकी कहानी फिर कभी. फिलहाल यही कि अंततः एक दिन फोन पर बोला उस कांग्रेसी संपादक ने कि मेरा कोई पैसा उसके यहां शेष नहीं है. कुछ देर रुक कर उसे दुबारा फोन किया और जितनी भी मां-बहन आदि की गाली आती थी वह सारा उसे फोन पर सुना कर अंततः पत्रकारिता की ‘पहली पारी’ का खात्मा हुआ. हासिल बस इतना था इस संघर्ष का कि दिल्ली के चप्पे-चप्पे तक इस बहाने घूमना हो गया. वहां की राजनीति के बारे में एक समझ विकसित हुई और निश्चय ही ऐसे ‘पत्रकारिता’ से भी सामना हुआ जिसे अन्यथा शायद समझना संभव नहीं होता. आगे की कहानी फिर कभी......!
लेखक पंकज झा पत्रकार और बीजेपी नेता है. वर्तमान में वे भाजपा के छत्तीसगढ़ प्रदेश के मुखपत्र दीपकमल पत्रिका के संपादक के रूप में कार्यरत हैं. पंकज से jay7feb@gmail.com के जरिए संपर्क किया जा सकता है
sabhar= bhadas4media.com