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मेरे भीतर एक कायर है, उसे मार देना चाहिए

♦ अनुराग अनंत
खनऊ से अहमदाबाद के लिए सीधे ट्रेन नहीं मिल पायी थी, सो ब्रेक जर्नी ही एक रास्ता था। लखनऊ से दिल्ली और दिल्ली से अहमदाबाद जाना तय किया था हमने। हम PHD में एडमिशन के बाद यूनिवर्सिटी ज्वाइन करने जा रहे थे। हम तीन लोग थे, पर मैं बिलकुल अकेला ही था। वे दोनों अपने आप में मगन थे और मैं अपने आप में मस्त। ट्रेन के बाहर का नजारा भी ट्रेन की ही रफ्तार से ट्रेन की उल्‍टी दिशा में भाग रहा था। खेत, पेड़, नदी, पहाड़ और आदमी सब को पहिये लग गये थे। मैं उन भागते हुए दृश्यों को अपनी ठहरी हुई आंखों से देखते हुए न जाने कब सो गया, मुझे पता ही नहीं चला। दिल्ली आने वाली थी, घड़ी ने यही कोई साढ़े पांच या छह बजाये होंगे कि ठंढी हवाओं ने जगा दिया था। लाल किला एक्सप्रेस, लाल किले के पीछे से गुजर रही थी और रेल की पटरियों के किनारे बसी बस्तियों के घरों के भीतर तक हमारी निगाहें घुस चुकी थी। कहने के लिए तो उन झोपड़ियों में दीवारें थीं, पर सब कुछ दिख रहा था। उनका सोना, रोना, लड़ना, नहाना, धोना सब कुछ बेपर्दा था। जिंदगी का बेपर्दा होना कैसा होता है, मैंने पहली बार वहीं महसूस किया था। निजता जैसा कोई शब्द उन झोपड़ी में रह रहे लोगों ने शायद ही कभी सुना हो। जिंदगी वहां शर्म के बंधनों से आजाद थी, या यूं कहें उनकी और हमारी शर्म की परिभाषा में बहुत बड़ा अंतर था। जो हमारे लिए शर्म है उनके लिए क्या है मैं नहीं जानता, पर शर्म बिलकुल नहीं है। जिंदगी जीने के जज्बे, जरूरत, या मजबूरी (आप जो भी कहना चाहें) के आगे शर्म बहुत छोटी चीज होती है। मेरे लिए ये बात भी बिलकुल साफ हो गयी थी।
रेल कुछ आगे बढ़ चुकी थी और अब जिस इलाके से गुजार रही थी, वहां कूड़े-कचरे का अंबार लगा था। आंखों में समायी लाल किले की सूरत कचरे में बचपन गुजारते और रोटी तलाशते बच्चों की तस्वीर के आगे फीकी पड़ गयी थी। लाल किले के प्राचीर से चढ़ कर भाषण देते प्रधानमंत्री को शायद ये बच्चे कभी नहीं दिखे होंगे। नहीं तो उन्हें भी उतनी ही निराशा होती, जितनी मुझे हर बार ये महसूस करके होती है कि सन सैंतालिस (1947) में जो आजादी मिली, वो झूठी थी। मैं जब भी ये सोचता हूं, मुझे देश के वजीर-ए-आला की हर दलील झूठी और विकास का हर आंकड़ा बेमानी जान पड़ता है। मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं कि जब वो लाल किले के प्राचीर से देश को संबोधित कर रहे होते होंगे, डाइस के पीछे उनके पैर, ये सारे झूठे और बेमानी शब्द बोलते हुए कांपते होंगे, पर राजधर्म में फंसा हुआ आदमी अधर्म करने को अभिशप्त होता है। यही उसकी नियति होती है।
खैर देश के प्रधानमंत्री के बारे में सोचते-सोचते मैं रेल में सवार आगे बढ़ ही रहा था कि तभी मेरी नजर कचरे के ढेर के बीच करीब 14-15 साल के लड़के-लड़कियों पर पड़ी। वो प्रोयोगशाला में विज्ञान के प्रयोग करने की उम्र में कचरे के ढेर में शरीर के प्रयोग कर रहे थे। सुबह जब देश में उनकी उम्र के कई बच्चे हाथ में किताबें थाम कर तेज आवाज में वर्ड मीनिंग, पहाड़ा और गणित के सूत्र रट रहें होंगे, वो जिंदगी की बेजान और बेरंग तस्वीर में एक फीका सा रंग भरने में लगे थे। वो रंग जो अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी, कुंठा और नशे में रंगीन लगता है, पर है बिल्‍कुल भी नहीं। वहां पहली बार लगा कि इनके लिए जीवन महज भूख भर बचा है, पर ऐसा कैसे हुआ और किसने किया? सवाल गहराता गया और मैं डूबता गया। जब थोड़ा निकला तो पाया कि पुरानी दिल्ली स्टेशन आ चुका था।
अहमदाबाद के लिए ट्रेन 8 घंटे बाद थी, सो फ्रेश हो कर और कुछ देर आराम करने के बाद दिल्ली घूमने को बाहर निकल पड़ा। अभी सीढ़ी से बाहर की ओर निकल ही रहा था कि देखा पुलिस वाले ने दो अधेड़ों के साथ एक 14-15 साल के बच्चे को किनारे कर रखा था और उनकी मां बहनों को इज्जत दे रहा था। मैं कुछ साफ समझ पाता कि उसने उस बच्चे की मुट्ठी में बंद पसीने में डूबी, तुड़ी-मुड़ी 500 रुपये के नोट छीन लिये और डांट कर भगा दिया। मैंने बढ़ कर बच्चे से पूछा तो उसने बताया कि वो अपने पिता के मरने के बाद घर का खर्च चलने के लिए, गांव के कुछ लोगों के साथ दिल्ली मजदूरी करने बिहार से आया है। ये रुपये उसकी मां ने बचा रखे थे और उसे काम न मिलने तक अपना पेट भरने के लिए दिये थे, जिसे पुलिस वाले ने छीन लिया। ये कहते हुए वो बच्चा (जिसे परिस्थियों ने जवान या यूं कहें की बूढ़ा बना दिया था) बच्चों की तरह रोने लगा। तभी पीछे से वो पुलिस वाला आ गया और उसने उस बच्चे को एक लाठी जमायी और कहा कि “अबे! जाता है कि हवालात ले चलूं…!” वो लड़का सकपका के आंसू पोंछते हुए चला गया। मैं अभी कुछ समझ नहीं पाया था कि पुलिस वाले ने मुझसे कहा कि चलो हवालात, मैंने पूछा किस जुर्म में? उसने कहा कि गांजा अफीम बेचते हो साले और रंगबाजी दिखाते हो… और हवा में लाठी तान ली! मुझे डरना नहीं चाहिए था, पर मैं डर गया। मेरे दिमाग में संविधान की प्रस्तावना से लेकर लोकतंत्र के परिभाषा तक सब कुछ अचानक नाच गया। मैं, हम भारत के लोग, …या जनता द्वारा जनता के लिए जनता की सरकार… जैसा कुछ बोलना चाहता था। पर मैंने सकपकाते हुए कहा कि महोदय मैं पत्रकार हूं और फिलहाल जनसंचार विषय में शोध कर रहा हूं। आप मुझे गलत समझ रहे हैं। उस हवलदार को जैसे मेरे पत्रकार होने ने भीतर से रोक दिया हो, पर उसके मुंह से गाली नहीं रोक सका। उसने मेरी मां और बहन की तारीफ की और भाग जाने को कहा। मैं वहां से नहीं जाना चाहता था और वहीं पर अब्राहम लिंकन, नेल्सन मंडेला, गांधी या अन्ना हो जाना चाहता था। मैं संविधान और लोकतंत्र की दुहाई देना चाहता था और खुद के आजाद होने पर दलील देना चाहता था। मैं वहां आजादी जीना चाहता था पर मैं वहां से चुपचाप चला आया।
आम आदमी की सीमाएं वहां मुझसे जीत गयीं और मैं हार गया। मेरी आंखों में मेरा घर परिवार नाचने लगा था, मेरी जिम्मेदारियां कोई मेरे कानों में आवाज मार-मार कर मुझे याद दिलाने लगा। मैंने पाया मैं कैद हूं… और मैं डर गया। मैंने महसूस किया कि संविधान से ले कर लोकतंत्र तक की सारी समझ किताबी है और जमीन पर जिंदगी घर-परिवार और जिम्मेदारियों का दूसरा का नाम है। मैंने वहां जाना कि एक आम आदमी के लिए हवालात भी एक ऐसा शब्द हो सकता है, जिसे सुन कर आत्मा तक कांप उठे।
उस वक्त मैंने पाया, मेरा कुछ हिस्सा वहीं हवलदार मुंह से निकले हवालात शब्द में कैद हो गया है। मेरा वो हिस्सा मुझे आज भी आवाज दे रहा है और कह रहा है कि मेरे भीतर एक कायर रहता है। मुझे उसे मार देना चाहिए। जब-जब वो आवाजें आती हैं, मेरे वजूद का हर एक हिस्सा परेशान हो उठता है। उस वक्त मुझे ये आजादी झूठी लगती है और मैं एक कैदी सा महसूस करने लगता हूं।
Contact: Anurag pandey, Research scholar (MPhil|PhD), Centre for Studies in Science, Technology & Innovation Policy, School of Social Sciences, Central University of Gujarat, Sector 30, Gandhinagar – 382030, Gujarat, India & 08401016191 + anantmediagroup@gmail.com
Sabhar= Mohallalive.com