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समलैंगिकता पर इतनी हायतौबा क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने समलैंगिकता पर विपरीत फैसला क्या दिया, चारों तरफ अफरातफरी सी मच गयी. बड़े बड़े मुद्दों को ताक पर रखकर मीडिया और सोशल मीडिया इसी तरफ मुड़ गयी. एक तरफ धर्माचार्य और पुरातनपंथी इस निर्णय का स्वागत करने में जुट गए, वहीं दूसरी ओर अपने को विकसित और आधुनिक सोच का मानने वाले लोग सुप्रीम कोर्ट की डटकर आलोचना करने लगे हैं. भाजपा ने इस मुद्दे पर अपना रूख अभी तक साफ नहीं किया है, परन्तु कांग्रेस पार्टी की हाई कमांड सोनिया गांधी ने इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय को निशाने पर लेने से परहेज नहीं किया है. परन्तु मूल प्रश्न इन सभी बिंदुओं से हटकर है. 
 
पुराने सन्दर्भ में जाकर देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि न्यायपालिका पर सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप का प्रश्न कई बार उठाया गया है. न सिर्फ उठाया गया है, बल्कि कांग्रेस के कई वरिष्ठ मंत्रियों ने न्यायपालिका पर कड़े और बड़े हमले भी किये हैं. धारा ३७७ पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को देखें तो यह साफ़ हो जाता है कि उसने सरकार के काम काज में हस्तक्षेप से बचने की साफ़ कोशिश की है. उसने सिर्फ उसी बात पर मुहर लगाई है, जो धारा ३७७ में है. साथ में उसने केंद्र सरकार को यह कहते हुए पूरी आजादी दी है कि संसद इस कानून को बदल सकती है, जो कि पूर्णतः उचित भी है. 
 
जहां तक समलैंगिकता का प्रश्न है, तो यह बिलकुल साफ़ है कि हमारा समाज दशकों पहले इस दिशा में कदम बढ़ा चुका है और जिस प्रकार से लगभग सम्पूर्ण विश्व में इसको मान्यता मिल चुकी है, मजबूरन भारत में भी अन्य जगहों की तरह इसे स्वीकार कर ही लिया जायेगा. लेकिन इस मामले में उच्चतम न्यायालय को जबर्दस्ती घसीटना कहीं से भी उचित नहीं है. यह जिम्मेवारी पूर्ण रूप से केंद्र सरकार की है कि वह इस मामले में आगे क्या करती है. इस वाकये में जिस प्रकार फ़िल्मी जगत के लोग एग्रेसिव होकर सामने आये हैं, वह निश्चित रूप से चौंकाने वाला है. इस तथ्य में ऐसा लगा जैसे सबसे ज्यादा अधिकारों का हनन उन्हीं का हो रहा हो, या फिर यह बात भी हो सकती है कि समाज में जिस प्रकार से अश्लीलता बढ़ रही है, और गाहे बगाहे इसके लिए फ़िल्मकारों, अभिनेताओं, निर्देशकों, सेंसर बोर्ड इत्यादि को जिम्मेवार ठहराया जाता रहा है, उससे उपजी तिलमिलाहट पर यह प्रतिक्रिया रही हो. 
 
हालांकि यह फिल्मी जगत की बुद्धिजीविता भी हो सकती है, परन्तु यह कैसे भूला जा सकता है कि कास्टिंग काउच, अश्लीलता, नग्नता, टीआरपी के लिए असामाजिक तक हो जाने के लिए फ़िल्म इंडस्ट्री बुरी तरह बदनाम है. यह बात भी सही है कि उदारता के नाम पर अश्लीलता के पैरोकारों की कमी नहीं रही है, परन्तु इतिहास तो एक ही चश्मे से देखेगा कि उदारता और अश्लीलता का समाज में प्रभाव क्या पड़ रहा है. यह ठीक है कि ग्लोबलाइजेशन के दौर में बहुत कुछ वैश्विक रूख पर भी निर्भर हो गया है, लेकिन फ़िल्मकार और अन्य सामाजिक लोग अपनी जिम्मेवारी से कैसे भाग सकते हैं. जहां तक बात धारा ३७७ की है, तो यह केंद्र सरकार के हाथ में है कि वह भारतीय समाज और सभ्यता को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए बीच का रास्ता कैसे निकालती है. 
 
लेखक मिथिलेश अमर भारती में सब एडिटर हैं
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