कोई इंसान व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार है, इस बात का महत्व है। मगर सार्वजनिक जीवन में निजि ईमानदारी तभी मायने रखती जब उसका उपयोग सार्वजनिक जीवन में हो। लेकिन अरविन्द केजरीवाल और उनकी "आप" यहाँ पर विभाजन रेखा खींच बैठे हैं। शुरूआत शीला दीक्षित से करते हैं। ये वहीं शीला जी हैं जिन पर और जिनकी सरकार पर केजरीवाल ने बे-ईमानी का आरोप बुरी तरह लगाया। मगर अब कहते हैं कि मैं इन लोगों के खिलाफ कार्यवाही करूँगा मगर सबूत तो लाओ। अब केजरीवाल को कौन समझाए कि जब "आप" के पास सबूत नहीं था, तो किस बिना पर शीला जी और उनकी सरकार भ्रष्टाचारी थी? मगर ये केजरीवाल हैं, जिनका ख़ुमार जनता पर है। अब केजरीवाल जी, भ्रष्ट शीला जी की भ्रष्ट कॉंग्रेस के कंधे पर सवार होकर ईमानदारी का काम करने निकले हैं। ये मामला कुछ ऐसा ही है जैसे झारखंड में सरकार बनाने का मामला हो तो शीबू सोरेन और मधु कोड़ा, जैसे दागी भाजपा और कॉंग्रेस दोनों को भले लगने लगते हैं।
हमारे यहाँ लोकसभा और राज्यसभा नाम की दो चीज़ें संसद में मौजूद हैं। अरविन्द केजरीवाल कहते थे कि हमारी संसद में ज़्यादातर नेता बाहुबल और बे-ईमानी के बल पर वहाँ मौजूद हैं। अब ज़रा "आप" का हाल देखिये। हाल ही में IBN7 नाम के एक न्यूज़ चैनल के प्रबंध सम्पादक, "आप" में शामिल हुए और जुम्मा-जुमा 4 दिन में अपनी पत्रकारिता के "बाहुबल" पर इस पार्टी के बड़े नेता बन बैठे। मंच पर बैठते है। "आप" की तरफ से टी.वी. चैनल्स पर नुमायां होते हैं। इतना मौंका "आप" के किसी पुराने कार्यकर्ता को, इतनी जल्दी कभी नहीं मिला। आशुतोष का टिकट पक्का माना जा रहा है। मल्लिका साराभाई भी नामचीन हैं, और सम्भवतः "आप" की उम्मीदवार बन जाएँ। इनफ़ोसिस नाम की नामचीन कंपनी के नामचीन अधिकारी रहे बालाकृष्णन भी, "आप" के सम्भावित उम्मीदवार होंगे। मीरा सान्याल नाम की एक बड़ी अधिकारी भी इसी लिस्ट में हैं। ऐसे बहुत सारे लोग "आप" में शामिल हुए। ये ऐसे लोग हैं जो हज़ारों "आप" कार्यकर्ताओं के बाद पार्टी में पहुंचे और अब उनसे ज़्यादा "प्रभावशाली" करार दिए जा चुके हैं। पार्टी के अंदर का पुराना कार्यकर्ता खुद को ठगा हुआ मान चला है। ऐसा अब तक भाजपा और कोंग्रेस में होता रहा है। इन दोनों पार्टियों में "पहुँच" और "नामवाले" का टिकट बिना काम के पक्का होता है। इन दोनों पार्टियों में, "पहुँच" और "नामवाले" उम्मीदवार का, कसौटी के ऊपरी पायदान पर कसा जाना ज़रूरी नहीं होता है और ज़मीन की खाक़ छानने को मज़बूर तो बिलकुल ही नहीं होना पड़ता है।
अब तो "आप" भी इसी राह पर है। टी.वी. चैनल में पत्रकारों की भर्ती कमोवेश इसी परिपाटी पर चलाने वाले वाले आशुतोष इसके सबसे ताज़ा उदाहरण हैं। किसी व्यक्ति को नेतृत्व करने का हक़ तभी होता है, जब वह सार्वजनिक कसौटी में खरा उतरे। केजरीवाल खरे उतरे। जनता ने उन्हें नेतृत्व करने का हक़ दिया। पर अब ये क्या हो रहा है "आप" में? बिना काम के नामवालों का जमावड़ा और ऊपरी पायदान पर डायरेक्ट प्रमोशन। क्या "आप" भटक गयी है? क्या "आप" में नेता, अब आम नहीं बल्कि ख़ास होगा? क्या सत्ता के लिए समझौता और टी.आर.पी. के लिए सनसनी? जी हाँ, ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो हाल के दिनों में बड़ी तेज़ी से उभर कर आये हैं। केजरीवाल ने लोगों को ईमानदार बनाने की बजाय महात्वाकांक्षी बना दिया। मुल्क़ की बजाय व्यक्ति को प्रथम बना दिया। कुछ इस कदर महत्वाकांक्षी, जो अब तक भाजपा और कॉंग्रेस के ज़्यादातर कार्यकर्ताओं और नेताओं में देखने को मिलती थी। ईमानदार होना बहुत कठिन बात है। ये बात केजरीवाल को मालूम है। ईमानदारी का ढिंढोरा पीट कर लोकप्रिय होना बड़ी आसान बात है, ये बात भी केजरीवाल को मालूम है। ये दोनों गुण केजरीवाल में मौजूद हैं, ये आम जनता को भी अब मालूम हो गया है।
राजनीति बड़ी बे-रहम होती हैं और हिंदुस्तान की जनता उस से भी ज़्यादा बे-रहम। सर पर बैठाने और पैरों से रौंदे जाने का फासला अब बहुत ज़्यादा नहीं रह गया है। तेज़गति की पावरफुल कार, रईसों और नामचीनों का शौक है। ऐसे नामचीन अब "आप" के ड्राइवर बन रहे हैं और इसके "मालिक़" अपने इन नामचीन ड्राइवरों के अंदाज़ पर फ़िदा हैं। राजनीति के फॉर्मूला वन ट्रैक पर तेज़ गति से, फिलहाल, दौड़ रही "आप" सुपुर्दे-खाक़ होने का खौफ़ नहीं खाती। ज़ाहिर है, "आप" अपने संक्षिप्त इतिहास के लिए तैयार है। सुन रहे हैं न आप? "आप" अब "आम आदमी" पार्टी नहीं रही।
नीरज वर्मा
Bhadas4media.com