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यशवंत में कुछ न कहने, कुछ न करने और कुछ न लिखने की डेवलप होती मानसिकता

यशवंत

वह बोलता जा रहा था.. बिना रुके... अपनी बात लगातार कह रहा था... मैं सुने जा रहा था... उसकी बातें मन मोह रही थीं... जैसे कोई थपकी देकर सुला रहा हो और लोरी सुना रहा हो... जैसे कोई आखिरी ज्ञान कानों में डाल रहा हो और आखिरी सच का भान करा रहा हो.... मैंने बीच-बीच में आंखें बंद कीं क्योंकि मुझे वह कभी बुद्ध जैसा लग रहा था तो कभी ओशो सरीखा दिख रहा था.... कभी कभी वह नया अवतार लग रहा था.... पर जब-जब उसे उसके नाम, उसके चेहरे और उसकी औकात के हिसाब से तौला तो वह निहायत एक आम आदमी, थोड़ा पढ़ा लिखा और थोड़ा तार्किक सा मनुष्य भर लगा... यह भी लगा कि वह पिए हुए हैं... मुंह से भभका मार रहा है और बोल ऐसा रहा है जैसे कोई हकला रहा है, तुतला रहा है... गजब कांट्रास्ट था... पर उसको सुनना अच्छा लग रहा था.... सुनिए... आप भी सुनिए.. क्योंकि मैं सुनकर अकेला क्या कर पाउंगा... इतना सब याद नहीं रख सकता... बहुत कुछ भूल जाउंगा... इतना भूल जाउंगा कि कोई पूछेगा कि उसने क्या कहा तो बस यही कह पाउंगा कि वह बड़ा अच्छा अच्छा बोल रहा था.. बहुत ही अच्छा अच्छा बोल रहा था... तो सुनिए आप भी ... सुनिए लीजिए प्लीज इसकी बात...
मैं उसकी बात सभी को सुनाने लगा... अचानक बहुत सारे लोग उसकी तरफ आते हुए यहां वहां जहां तहां बैठ जाने लगे और उसकी बात को सुनने लगे... वह इतनी तेज तो नहीं बोल रहा था लेकिन उसकी बात हर कहीं पहुंच रही थी... कोई तो बात है इसमें.. वरना इतने लोग कैसे सुनने आ जाते इसे... वह बोल रहा था... आप भी सुन लो... फिर न कहना कि उसके बोलने पर मैं इतना बोल रहा हूं लेकिन वह बोल क्या रहा है, इसे नहीं सुनने दे रहा हूं.... तो लीजिए अब सुन ही लीजिए...
'' ....अपराध बोध होना.... गिल्टी फील करना.... गलत हुआ महसूस करना.... खराब हो जाना.... बुरा बन जाना... जमाने की नजरों में, समाज की नजरों में, सबके सामने बुरी छवि बन जाना.... राक्षस, शैतान, बदमाश कहलाना.... ना ना... अब नहीं... मैं अब नहीं मानता ये सब. लोगों की फिक्र वो करें जिनकी चेतना,  जिनकी गतिविधि लोगों को ध्यान में रखकर विकसित / घटित हुई है और हो रही है. समाज, सिस्टम, सत्ता, मनुष्य से घिरे हैं हम सब. इन सबके बनाए और बन रहे घोषित-अघोषित नियमों-मानदंडों-पैमानों के इर्द-गिर्द जी रहे हैं हम सब. इसलिए इन्हीं घोषित-अघोषित नियमों-मानदंडों-पैमानों के जरिए हमारा कथित सही-गलत चेतन-अवचेन निर्मित हो रहा है और इसी सही-गलत चेतन-अवचेतन स्टेट आफ माइंड के जरिए हम अच्छा-बुरा, सुख-दुख, खुशी-गम के टैग / नामकरण / स्थितियों को जीते बोलते रहते हैं. अपन तो नहीं मानते. आपको जिससे नफरत होती है, आपको जो बुरा लगता है, आप जिसे खराब और गंदा कहते हैं, वह मुझे आप के कहे जैसा बिलकुल नहीं लगता. एक बहुत बड़ी परिघटना को हमने छोटे-छोटे बौने टुकड़ों में बांट रखा है, टैग लगा कर रखा हुआ है, किसी को अच्छा कहकर, किसी को बुरा बताकर भीड़ के लिए गाइडलाइन बना दिया है. हां हां, भीड़ ही तो है. धरती पर जानवरों, पशु-पक्षियों, जलचरों, वनस्पतियों आदि इत्यादि में सबसे बुद्धिमान, चतुर, बलशाली मनुष्य निकला. इसने धरती पर खुद के अलावा बाकी सभी कुछ को उपभोग लायक मान लिया है. जानवरों को मार-मार कर इतना कम कर दिया है कि अब उन्हें संरक्षित प्रजाति घोषित कर उनके रहने के लिए जंगलों की घेरेबंदी की जा रही है ताकि वे पूरी तरह से खत्म न हो जाएं. पूरी तरह से बहुत सारी प्रजातियां पहले ही खत्म हो चुकी हैं और खत्म हो रही हैं. जहां पहाड़ है वहां मैदान सरीखी व्यवस्था कर रहे हैं. जहां प्रवाह है, उसे रोककर उर्वर को जलमग्न कर रहे हैं, जहां शांति है वहां परमाणु आयुध बनाने के लिए रिएक्टर बना रहे हैं. हम रोज-रोज मुर्गा, बकरा, भैंस, सांड़, मछली पकड़कर काटते खाते और उल्लसित होते रहते हैं. हम रोज पहाड़ को विस्फोट कर उड़ाकर उससे चट्टान, कोयला आदि निकालते रहते हैं... हम मनुष्यों के प्रति भी कहां एक राय रखते हैं. नब्बे फीसदी मनुष्यों को सिद्धांत, न्याय, नैतिकता, श्रम, ईमानदारी का पाठ पढ़ाकर दस फीसदी मनुष्य खुद के लिए दूसरे ग्रहों पर बस्तियां बनाने के लिए धन-संपदा इकट्टा किए जा रहे हैं. क्या अच्छा और क्या बुरा यार. ये सब चोंचलेबाजी है. विचारधाराएं अंततः सत्ता, संसाधन और शक्ति को पाने का जरिया मात्र हैं. कबीर जैसों ने मठों के खिलाफ कितना लिखा कहा, पर अब कबीर के मठ बन गए हैं और उनका पंथ बन गया है. ओशो ने कितना कुछ कहा कि मुक्ति लकीर का फकीर बनने में नहीं है क्योंकि अब तक जितना कुछ अच्छा-अच्छा लिखा कहा समझाया गया, उसका असर उतना ही उल्टा हुआ, लेकिन ओशो के मरने के बाद अब ओशो के नाम पर पूरा एक अंतरराष्ट्रीय धंधा चल रहा है. मैं मानता हूं कि मनुष्यों में जो कुछ मनुष्य चेतना, समझ, अनुभव, सोच, उदात्तता के लेवल पर अति-अति उन्नत होते हैं और ब्रह्मांडों के सुर-लय-ताल-गति को संपूर्णता में समझते हैं, वो असली संत होते हैं. संत शब्द भी एक खास किस्म के लोगों का बोध कराता है और संतई भी धंधा बन चुका है. लेकिन बात मैं उन मनुष्यों की कर रहा हूं जिनने असली सत्य को जान लिया. जिनने दुनियादारी, भीड़, अच्छा-बुरा, रोना-गाना, भय-आंसू को पार पा लिया. ऐसे मनुष्य संत श्रेणी के होते हैं, बिना संतों वाला कपड़ा पहने. बिना संत होने का प्रदर्शन किए. हां, इनमें कुछ मनुष्य बाकी आम मनुष्यों को, दुख-सुख को आखिरी सच मानकर जीने वाले मनुष्यों को थोड़ा मुक्त करने, थोड़ा मस्त करने, थोड़ा असली सत्य जानने की राह में आगे बढ़ाने के लिए सरल शब्दों में समझाना बताना शुरू किया तो कई चालाक लोगों ने उन शब्दों को पकड़ लिया, उसका व्यवसाय शुरू कर दिया, उसके आधार पर मठ-पंथ बना दिया. इस तरह अच्छे मकसद के लिए शुरू हुआ सारा काम अंततः गड़बड़ा गया, कट्टरपन की भेंट चढ़ गया, दुनियादारी का हिस्सा हो गया, खास बन जाने का एक नया नुस्खा बन गया. इसलिए आप देखेंगे कि सच्चा संत कुछ बोलेगा नहीं. सच्चा संत भीड़ से, लोगों से दूर रहना पसंद करेगा. उसका किसी चीज से न बहुत मोह होगा और न बहुत अरुचि होगी. वह सब कुछ के प्रति बेहद आकर्षित और बेहद विकर्षित रहेगा. वह दोनों छोरों को अपने में समाए एक शांत, चुप, संपूर्ण अगुवा होगा. अगुवा यानि लीडर यानि नेतृत्वकर्ता. अगुवा, लीडर और नेतृत्वकर्ता शब्द को सुनते ही हमारे मन-मस्तिष्क में भीड़ को, लोगों को लीड करने वाले, नेतृत्व देने वाले किसी आदमी का चेहरा पैदा होगा. लेकिन ये वो लीडर नहीं. ये वो दुनियादार अगुवा नहीं. ये अगुवा है संपूर्णता का, यानि सभी का. जो भी विजिबल और इनविजिबल है, सभी का. पानी है, वह भाप बन जाएगा, गैस बन जाएगा, जमकर बर्फ बन जाएगा, ठोस बन जाएगा. कितने रूप हैं उस पानी के. ब्रह्मांड में यही तो खोज हो रही है कि पानी कहां कहां है. किसी दूसरी दुनिया के किसी ठिकाने पर पानी वैसा नहीं है जैसा पानी धरती पर है. वहां किसी दुनिया में पानी बर्फ के रूप में है तो कहीं भाप के. हम सब ऐसे ही बदलने वाले फार्मेट्स, चीज, पदार्थ ही तो हैं. अभी शरीर है, चलायमान है, कभी यह गैस, ठोस, तरल फार्मेट में हो जाएगा और तब भी चलायमान रहेगा. उसकी गति और मंजिल बदल जाएगी.... ''

वह बोलता जा रहा था लेकिन मुझे लगा कि यूरिन बैग कुछ ज्यादा ही भर चुका है.. खाली करना होगा. क्या है न... जैसे मच्छर हैं, काट लेते हैं, उसी तरह दारू पीने वाले जो होते हैं न, वो इसमें पानी मिलाकर पी लेते हैं... और, उपर से खाते चबाते भी रहते हैं और फिर फिर पानी युक्त मदिरा या मदिरा युक्त पानी पीते हैं तो इसलिए इनका यूरिन बैग सुबह से पहले ही कई कई बार भरता खाली होता रहता है. मैं उठ कर बैठ गया. बड़ी खराबी है दारू में. साला न पियो तो नींद नहीं. लगातार पीते रहो तो भी नींद नहीं, बस उतनी देर नींद आती है जितने वक्त गहरा नशा. दारू रोज रोज पीने वालों की नींद कुत्तों सरीखी होने लगती है. गहरी नींद नहीं आती. अधजगी अधमुंदी नींद में सपने बहुत आते हैं मुझे. पता नहीं बाकी शराबियों का क्या हाल है. तो ये प्रवचन मैं सपने में सुन रहा था. सुना कौन रहा था? ध्यान से सोचने लगा तो वो मेरा ही कोई बड़ा भाई लग रहा था. कहीं मैं ही तो नहीं!!!?? हो सकता है. शराबी बड़े बड़े काम कर डालते हैं. प्रवचन तो वैसे भी शराबियों का बड़ा प्राथमिक-सा गुण होता है. अंदर गई नहीं कि विश्लेषण शुरू. छोड़ो प्रवचन, दर्शन. चलो मूतो और सो जाओ फिर. कल दिन भर कई काम हैं.

और अंततः फिर एक बार नींद आ गई. अबकी कोई सपना नहीं आया. कोई प्रवचन नहीं सुना. बस देर सुबह जब दिल्ली वाले बहुत तेजी से अपना अपना काम निपटाने के लिए भागादौड़ी कर रहे थे तो मैंने खुद ब खुद कल के ज्यादा पी लेने के साइडइफेक्ट के तहत आज दिन के सारे कार्यक्रम रद कर डाले. भई अपनी मर्जी का मालिक हूं. किसी का नौकर तो हूं नहीं. भड़ास चलाता हूं. अपनी दुकान है. जब चाहे शुरू. जब चाहे बंद. तो जब कोई रोकटोक नहीं है, कोई आर्डर आदेश देने वाला है नहीं, तो फिर काहें को किचकिच. जीवन ऐसे ही आनंद से जिएंगे. मीटिंग काम गए तेल लेने. यह सोचते गुनते सीधे बाथरूम की तरफ गया. ब्रश करने के दौरान अपनी शकल शीशे में देखकर थोड़ा खुश हुआ, दारू भाई ने चेहरा चमका रखा है, लाल-लाल. फिर इसी खयाल के एक्स्ट्रीम खयाल आया तो गाने लगा-- 'माया महाठगिनी हम जानी'.

दाल-भात की खुशबू पीछे से आ रही थी. सीधे किचन में घुसा और गरम-गरम दाल भात चोखा थाली भर लेकर टीवी के सामने आकर बैठ गया. रिमोट खोला और डिस्कवीर साइंस, हिस्ट्री टीवी18, एनजीसी पर रिमोट घुमाने लगा. ब्रह्मांड चिंतन चल रहा था एक जगह. यूनिवर्स. अब तो एक नहीं कई ब्रह्मांड हैं. हम लोग अभी स्पेस और दूसरी दुनियाओं के ज्ञान के मामले में बच्चे हैं. अभी तो यही नहीं पता लगा पाए कि अपन लोग जैसी जीवों मनुष्यों वाली कोई धरती किसी ब्रह्मंड में है या नहीं. अभी तो पहुंच भी नहीं पाए हैं उन ज्ञात तारों, ग्रहों के पास जिनके बारे में जानकारी है अपन लोगों के पास. ये जो सूर्य है ना, थोड़ा सा खिसक जाए अपने स्थान से तो फिर ये अपनी धरती या तो बहुत गरम हो जाएगी या बहुत ठंढा. दोनों हालात में आदमी साला तो गया काम से. तब धरती के जो आगे या पीछे वाले ग्रह हैं, उनमें से किसी पर जीवन की संभावना शुरू होगी क्योंकि अभी जो सूर्य से समीकरण है उसके मुताबिक धरती के ठीक आगे वाला और ठीक पीछे वाला ग्रह ऐसा है कि वहां जीवन नहीं हो सकता. यानि एक जो धरती के पीछे है, वह सूरज के थोड़ा करीब है धरती के मुकाबले, इसलिए वहां ज्यादा गर्मी है, ज्यादा आग है. एक जो धरती के आगे है, वह सूरज से थोड़ा दूर है धरती के मुकाबले, वह थोड़ा ठंढा है, इतना कि वहां जीवन नहीं हो सकता. जब सूरज खिसकेगा या अपनी आग कम या ज्यादा करेगा तो इन्हीं आगे पीछे वाले किसी ग्रह में जीवन बनेगा. और वहां आदमी टाइप का जीव बनने में वैसा ही कुछ करोड़ों अरबों वर्ष टाइप का वक्त लगेगा जैसा धरती पर हुआ था. सूरज को नजदीक से देखो तो वह किसी हिस्से में लगातार आग की आंधी आती रहती है... वो आंधी धरती तक भी आती है... वो तो धरती को एक मैग्नेटिक फील्ड कवच की तरह घेरे हुए है जो इन सूरज के यहां से आने वाली आग की आंधी को डायवर्ट करता रहता है वरना धरती मां बेचारी की तो बैंड बज गई थी बहुत पहले.

दाल-भात-चोखा खत्म होते होते यूनिवर्स की कहानी भी खत्म हो गई और इतनी बड़ी कहानी सुनने के बाद, इतना बड़ा ज्ञान पाने के बाद और भला क्या कुछ देखा जा सकता है. सो हाथ मुंह धोकर, ठंढा पानी पीकर और कमरे की लाइट तक बुझाकर फिर सो गया. शराबी को दोपहर में भी एक बार नींद आती है, दाल-भात खाने के बाद. क्योंकि खाने का कोलेस्ट्राल रात के पिए हुए शराब के कोलेस्ट्राल को छेड़ता है और दोनों इस कदर पेट में उठापटक करते हैं कि शराबी बेचारा शांत होने लगता है और नींद की तरफ लपकने लगता है. इसलिए सोना पड़ता है. पर चैन कहां है इस दुनिया में. चैनल बंद किया तो मोबाइल शुरू. इस मोबाइल पर भी तो ढेर सारे चैनल हैं. हर चैनल का नाम फीड है. किसी की काल आई नहीं कि उसका नाम मोबाइल पर प्रकट हो जाता है, अब तो एंड्रायड फोन हैं, मय तस्वीर चैनल प्रकट होता है और उंगली रगड़ते ही मनुष्य दूसरी तरफ से कनेक्ट हो जाता है, वार्तालाप करना शुरू कर देता है. पहले जमाने में लोग ध्यान लगाकर कनेक्ट हुआ करते थे. अब तो बिना ध्यान लगाए लोग कनेक्ट हो जाते हैं, बस एक छोटे से उपकरण को कान पर लगाकर. तो नींद खल्लास. दाएं बाएं दो चार करवट बदलकर और दो चार मिनट आंख बंद करके फिर उठ गया. ठंढा पानी फिर पिया और लैपटाप आन कर लिया. यहां भी चैनल है. सोशल मीडिया के ढेर सारे चैनल. यहां भी कनेक्ट हो गए. सारी दुनियादारी, सारा हाय हाय किच किच, सारी राजनीति, सारा अच्छा बुरा यहां दिख रहा है, लिखा जा रहा है, रुदन हो रहा है, गायन हो रहा है, हर्ष-विषाद के दौर चल रहे हैं, मारा-मारी से लेकर प्रेमालाप तक हो रहा है. कैसे उबरोगे यहां से. और अंततः मनुष्य फंस ही जाता है. कोई नौकरी करते हुए आफिस में जाकर फंसता है तो कोई घर पर रहकर ही इन्हीं चैनलों के जरिए फंसा रहता है. दोनों को एक्स्ट्रीम दुख और एक्सट्रीम सुख का कभी कभी एहसास होता है और दोनों को अक्सर लाचारी, बंधन महसूस होता है.

''बंधन मुक्त होना भी एक बंधन है और बंधन में बंधे रहना भी एक मुक्ति है.'' फेसबुक पर ये एक लाइन लिखकर लग गया लाइक देखने और कमेंट पढ़ने. इस तरह दुनियादारी शुरू हो गई. ऐसे बोरिंग रुटीन से मदिरा मुक्ति दिलाती है. शाम को मदिरा महोदय के साथ बैठा गया और फिर गैर-दुनियादार चिंतन शुरू हुआ. उन्हीं क्षणों में हर्ष-विषाद एस्ट्रीम पर पहुंचने लगा. सब याद आने लगा. याद आया कि मैं दिल्ली कैसे आया. दैनिक जागरण नोएडा में नौकरी के छह सात महीने भी नहीं हुए थे कि मुझे निकाल दिया गया. विनोद कापड़ी से रात में बात हुई और बात गर्मागर्मी से गाली-गलौज तक पहुंची और फिर दैनिक जागरण मैनेजमेंट तक. भड़ास शुरू किया. अपनी भड़ास निकालते हुए भुखमरी के दिन तक घर पर आए. मीडिया संस्थानों के प्रबंधनों से झगड़े बढ़ने लगे. मीडिया वालों की भी भड़ास आनी और छपनी शुरू हुई. एक एक कर कई संस्थानों और लोगों ने मुकदमे किए, धमकी दी. संपादकों से लव एंड हेट के रिश्ते बनने लगे. जिसके खिलाफ खबर छपे, उसका गुस्सा सातवें आसमान पर. जिसकी पोल खुले वह भड़ास और यशवंत को नष्ट कर देने पर आमादा. जिसके इंटरव्यू छप जाए वह भड़ास का प्रशंसक बन जाए. भड़ास के पाठकों का एक बड़ा वर्ग तैयार हुआ. दारू का दौर चलता रहा. रुटीन के झगड़ों, दुविधाओं, अभावों से मुक्ति इसी पियक्कड़ी के दौरान मिल जाती. दिन के विवाद पीकर लड़ झगड़ कर सेटल कर लिए जाते. अंततः इन्हीं सब प्रक्रियाओं के दौरान जेल यात्रा भी हुई और 'जानेमन जेल' किताब भी आई.

जिन विनोद कापड़ी से झगड़े के कारण जागरण से नौकरी गई, कई मुकदमे लदे और जेल यात्रा हुई, उन विनोद कापड़ी से अब मित्रवत संबंध है. वजह? यही कि दुनिया में कुछ भी स्थाई नहीं होता. अगर आप उदात्त हों और जुनूनी, दोनों ही हों तो एक पल में या तो माफ कर देंगे या फिर एक पल में बिलकुल युद्ध कर लेंगे. ऐसे ही किन्हीं पलों में विनोद कापड़ी से बातचीत शुरू हुई और दोनों एक साथ बैठ लिए. न कोई शर्त न कोई माफी. बस 'आगे देखा जाए, पीछे नहीं' की आपसी समझदारी दोनों में विकसित हो गई. मेरी लड़ाई किसी व्यक्ति के खिलाफ कभी नहीं रही, ट्रेंड के खिलाफ रही है. वो लड़ाई आज भी जारी है और आगे भी जारी रहेगी. विनोद कापड़ी-साक्षी जोशी से झगड़े के बहाने इंडिया टीवी, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, नेशनल दुनिया के संपादकों, प्रबंधकों, मालिकों ने जो मिल-जुल कर मेरे पर चढ़ाई की उसकी वजह भड़ास को पूरी तरह खत्म कर देना था ताकि उनके संस्थानों के घपले-घोटालों, धतकर्मों को प्रकाशित करने वाला माध्यम बचे ही नहीं. विनोद कापड़ी के खिलाफ अब भी भड़ास पर छपता है. इंडिया टीवी और रजत शर्मा के खिलाफ अब भी भड़ास पर छपता है. दैनिक जागरण, संजय गुप्ता और निशिकांत ठाकुर के खिलाफ अब भी भड़ास पर छपता है. शशि शेखर और आलोक मेहता के खिलाफ अब भी भड़ास पर छपता है. भड़ास का आग्रह दुराग्रह किसी से नहीं है. बस, एक कोना जिंदा रखने की जिद है जहां चरम बाजारू माहौल में आम जन, आम मीडिया वालों की बात, गुस्सा, पक्ष, आरोप, भड़ास प्रकट हो सके, ताकि उन्हें कुंठित होने से बचाया जा सके, ताकि उनके हितों की बात और उनके हितों के लिए संघर्ष हो सके. बेहद ताकतवर मीडिया संस्थानों में कार्यरत आम पत्रकार जब वहां की नीतियों से त्रस्त होता है, वहां के वरिष्ठों के व्यवहार से अपने आत्मसम्मान को जख्मी पाता है तो वह रिएक्ट करता है. साइंस के बुनियादी नियमों में है क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम. तो दुनिया भर की खबरें छापने दिखाने वालों की खबर छापने दिखाने और उनकी बात को साहस के साथ हूबहू रख देने का कोई कोना तो होना ही चाहिए. संभव है ताकतवर लोग मुझे या भड़ास को मिटा दें. लेकिन ये ट्रेंड नहीं मिटेगा. कल कोई दूसरा यशवंत आएगा और ऐसा ही मंच तैयार कर लेगा. कई नए मंच अभी से बन चुके हैं. मीडिया के भीतर के स्याह-सफेद को बताने दिखाने वाले कई वेब, ब्लाग, सोशल माध्यम आ गए हैं. इसलिए जब अनैतिक तरीसे पूंजी उगाही और पूंजी इकट्ठा करना हर नैतिक संस्थानों का परम पुनीत काम बन चुका हो तब ऐसे माध्यमों का जन्म होगा ही जो इस प्रवृत्ति, इस ट्रेंड, इस रास्ते का विरोध करेगा. हर दौर, हर काल में मुख्यधारा के विरोध में एक छोटी धारा रही है. वैसे ही जैसे दुख नजदीक है तो सुख अगले चौराहे पर खड़ी हुई दिखती है. उसी तरह जब हर तरफ लूट शोषण अत्याचार अराजकता अनैतिकता हो तो कहीं इसके विरोध की आवाजों का एक जुटान तय है.

पर यह सब करते कहते हुए यह एहसास भी मन में है कि ''माया महाठगिनी हम जानी''. संसाधनों पर कब्जे की लड़ाई है. छोटा सा समूह काबिज है और इस पर कब्जा बनाए रखना चाहता है. बड़ा समूह इस संसाधन में अपना न्यूनतम हिस्सा चाहता है. इसी चाह में नौकर बनकर जीता चला जाता है. इसी नौकरी के दौरान वह संसाधन पर काबिज लोगों का कब्जा और ज्यादा मजबूत बनाता जाता है. ये जानवरों सरीखी लड़ाई है. जो मजबूत है, वह काबिज है, वह विजेता है, वह शिकारी है, वह देर तक जीवित रहता है. जो कमजोर है, वह नौकर है, वह रहमोकरम पर है, वह शीघ्र खत्म हो जाता है. समय वो धुरी है जिसके कारण चलते रहना सबकी मजबूरी है. समय वो धुरी है जो कथित बुराई को प्रमोट करता है, जिसके मुकाबले कथित अच्छाई खड़ी होती है. समय वह धुरी है जो ऐसे ऐसों को क्रिएट कर देता है जो अच्चे बुरे और न्याय अन्याय का मेला लगा देते हैं और इस मेले में घूमने टहलने वाले हम आप अपनी अपनी पोजीशन लिए जीते मरते रोते हंसते खपते रहते हैं, पर वो जो क्रिएटर है, वो जो सबसे चतुर मनुष्य है, वह संसाधनों पर अपना कब्जा बढ़ाता चला जाता है. ये कोई एक मनुष्य नहीं है. ये एक ट्रेंड है. मनुष्यों का समूह है. ये परम उपभोगी है. ये एनीमल इंस्टिक्ट से संचालित है. यह बेहतरीन मस्तिष्कों और बेहतरीन हाथों के सहारे अपना वर्चस्व कायम रखता है. इसने सीधी सरल शोषण की कहानी को इतना उलझा भटका छितरा फैला मुड़ा दिया है कि लोग इसकी चरम गहराई, परम रहस्य तक पहुंच ही नहीं पाते. लोग एक दूसरे से ही गले मिलकर या लड़कर जीवन की इतिश्री कर लेते हैं. तो क्या जो परम चतुर मनुष्यों का समूह है, जो हत्यारे भी पालता है और साधु भी, जो न्याय भी दिलाता है और सबसे ज्यादा अन्याय भी करता है, वह अप्राकृतिक है? नहीं. कुछ भी अप्राकृतिक नहीं होता. कुछ भी प्राकृतिक नहीं होता. समय ही वो धुरी है, वो गति है, वो प्रवाह है जिसके धक्के के कारण सब कुछ दो छोरों की ओर समवेत रूप में चलता रहता है. एक छोर नकारात्मकता का और एक छोर सकारात्मकता का. इन दोनों छोरों को समेटे पुलों पर हम लोग बैठे हैं और पूरा पुल चल रहा है. कभी नकारात्मकता की गति आगे है तो कभी हमें सकारात्मकता की गति आगे दिखाई देती महसूस होती है. पर असल में समय के एक्जिस्ट करने के लिए, समय के धुरी बने रहने के लिए इन दोनों छोरों का होना जरूरी मजबूरी है. जहां समय नहीं है, वहां एनर्जी फील्ड नहीं है, वहां गति नहीं है. वो समय रहित दुनिया रिजर्व बटालियन की तरह है, वो रिजर्व ब्रह्मांड हैं, उन ब्रह्मांडों के टिके होने, चलायमान होने के लिए आवश्यक तत्व के रूप में जो समय संचालित हैं. जिसे हम समय संचालित दुनिया में नष्ट, बुरा, खराब, गंदा आदि कहते हैं, असल में वही सब तो असल ड्राइविंग फोर्स हैं समय के. इन फोर्स, इन ध्रुवों, इन छोरों के होने के कारण ही इनके थोड़ा पीछे स्वस्थ, अच्छा आदि फोर्स, ध्रुवों, छोरों की उपस्थिति मजबूरी बन जाती है. आपको लगेगा कि बड़ा खतरनाक बात कह रहा हूं. बड़ा ही भयंकर दर्शन दे रहा हूं. पर ये मेरा द्वारा महसूस किया हुआ सच है. आपका सच अलग हो सकता है. यही तो इस समय की खासियत है. इसने सब कुछ बेहद विक्रेंदित और बेहद डायवर्स बना रखा है, यही इसकी ताकत है और यही इसकी गति है और यही इसका एक्सीलेरटेर है. सोचिए, समय के रास्ते में केवल चलना लिखा है. उसे अच्छे बुरे से नहीं मतलब. जहां चीजें सिर्फ एक मोड में होतीं हैं, यानि बहुत अच्छा, बहुत सुंदर, बहुत स्वस्थ, बहुत मानवीय, बहुत कोमल, बहुत करुणायम तो वो भी समय की चाल से एक दौर में जाकर खत्म होगा और फिर दूसरा दौर शुरू होगा. जहां सब कुछ रुका हुआ लगता है, टाइमलेस सा लगता है, वहां भी समय की चाल जारी है, वहां समय अलग तरीके से एक्सीलरेटर के जरिए गतिमान रहता है. जिन दुनियाओं में हम आप जैसे मानव नहीं हैं,  न जानवर, न कीट-पतंगे, न वनस्पतियां, न जलचर, न थलचर, न हवा के प्राणी, कुछ नहीं हैं, वहां हमारी तरह जल नहीं है, वहां हमारी तरह वायु नहीं है, वहां हमारे आपके सबके जीने पनपने लायक मौसम माहौल नहीं है. उन दुनियाओं में भी समय की गति कायम है और अरबों खरबों वर्ष बाद संभव है समय की चाल में एक ऐसा पड़ाव आए जहां यह सब प्रकट हो जाए और फिर एक जीवितों की दुनिया बन जाए.

असल में दिक्कत हमारी कल्पना, सोच की सीमाओं की भी है. हम खुद के होने तक को सबसे बड़ा सच मानकर सब कुछ सोचते गुनते रहते हैं. जरूरी नहीं कि जीवित वैसे ही रहा जाए जैसे हम दिखते जीते हैं.  जो नहीं दिखता, और जो स्थिर लगता है वह असल में गतिमान है, उर्जामय है. सब एक-सा है, बस अलग-अलग रूपों, नामों, कामों, स्थितियों में डिवाइड है. सब पर अलग-अलग टैगिंग है. और सब समय के कारण गतिमान रहकर एक दूसरे में रूपांतरित होते रहते हैं. ऐसे में न मौत कोई स्टेट है और न ही जीवन. ये हमारे आपके नामकरण भर हैं. ब्रह्मांडों का जो सुर लय ताल है उसमें जीवन दिखाई देना एक अनिवार्य सच है, वैसे ही जैसे जीवन का न दिखना भी एक जरूरी सच है. धरती पर जीवन है. यहां परम चतुर बुद्धिमान मनुष्य लगातार सक्रिय हैं. ब्रह्मांड और प्रकृति में ही सब कुछ मौजूद है. इसे बस एक-एक कर संयोजित करते जा रहे हैं और अपने अभियान, अपनी सीमाएं बढ़ाते जा रहे हैं. यह सब प्रकृति और ब्रह्मांड के समय-चाल का पार्ट है. जब धरती रहने लायक न रहेगी तो उस समय किसी और धरती पर जीवन और लोग पनप रहे होंगे. यह भी संभव है कि इसी वक्त किन्हीं दूसरे ब्रह्मांडों के अरबों खरबों ग्रहों में से किसी पर जीवन हो और लोग जी रहे हैं. हम लोग अपनी परिभाषा में जिसे जीवन कहते हैं वह ब्रह्मांड और समय की संपूर्णता में एक छोटा सा टाइम फ्रेम भर ही है जिसमें हम किसी एक जगह होते हैं और किसी एक जगह से गायब हो जाते हैं. संभव है धरती से डायनासोर गायब हो गए हैं लेकिन किसी दूसरी दुनिया की धरती पर डायनासोर युग चल रहा हो. संभव है दूसरी धरतियों से मनुष्य गायब हो गए हों और फिर धरती पर माहौल ऐसा निर्मित हुआ की जीवन पनपा और मनुष्य तक बना. इस विराटता, इस उदात्तता को जब संपूर्णता में समझेंगे, तब समझेंगे कि अब तक क्या पढ़ा, अब तक ऐसा क्यों सोचा और अब ऐसा क्यों जिया.
इस मनोदशा में, जिसका वर्णन अब तक उपर किया है, मेरे लिए अब कुछ भी लिखना बड़ा मुश्किल काम होने लगा है, बड़ा गैर-जरूरी सा काम लगने लगा है. न लिखो तो क्या. लिख दो तो क्या. कुछ न लिखने, कुछ न कहने, कुछ न करने के पक्ष में तगड़े तर्क, सोच धीरे धीरे डेवलप होने लगा है... इसे समझाया जा सकता है या नहीं, ये तो नहीं पता लेकिन इसके कारण भयंकर अकर्मण्य किस्म का, एकदम से वीतरागी किस्म का प्राणी होने लगा हूं... करो तो क्या... न करो तो क्या... अपनी गाथा, अपनी बात, अपनी भड़ास लगातार लिखता ही रहा हूं, टुकड़ों टुकड़ों में ... भड़ास ब्लाग बनाने के दिनों से लेकर भड़ास4मीडिया चलाने और फेसबुक पर स्टटेस अपलोड करने के आज तक के दिन तक खुद को लेकर इतनी बार टुकड़ों में कह बक लिख चुका हूं कि उसी को एक जगह समेट दिया जाए तो किताब बन जाएं... पर किताब बन भी जाए तो क्या... न बने भी तो क्या...

जैजै हो
लेखक यशवंत सिंह भड़ास के संस्थापक और संपादक हैं
. संपर्क: yashwant@bhadas4media.com
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