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वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र त्रिवेदी की याद में राहुल देव

राहुल देव
कई दिन बाद अभी फेसबुक पर आने पर अचानक यह जानकारी मिली कि सुरेन्द्र चले गए। सन्नाटे में हूं। कुछ दिनों पहले उन्होंने फोन किया था, जैसे हर महीने दो महीने करते रहते थे, और अपनी बीमारी के बारे में बताया था। पर उनकी बातों, स्वर, भंगिमा में वही पुराना विनम्र आत्मबल था। लगा जैसे उन्होंने पिछले कुछ सालों में कई झंझावात झेले वैसे ही हंसते-लड़ते इससे भी पार हो जाएंगे। इतना कुछ गंभीर मामला था इसका कोई आभास या पूर्वाभास सुरेन्द्र की आवाज में नहीं था। सन्नाटे में हूं।
सुरेन्र्द से जनसत्ता के दिनों में जो सहयोगी के रूप में परिचय हुआ वह अखबार से कब और कैसे बाहर निकल कर पारिवारिक संबंध बन गया इसका सारा श्रेय सुरेन्द्र को ही जाता है। एक कानपुर यात्रा में उनके आग्रह से बंधा उनके घर भी गया, सबसे मुलाकात हुई। एक बहुत स्नेहिल ऊष्मा से भरा परिवार। वह दिल्ली आने पर बिना नागा फोन पर तो बात करते ही थे, समय हो तो जरूर घर भी आते थे। सदा बड़ा भाई माना और उस नाते से घरेलू, आर्थिक, व्यावसायिक और पत्रकारीय सब चिन्ताओं, समस्याओं, सरोकारों को साझा भी किया।
सुरेन्द्र चाहते तो अपने पारिवारिक व्यवसाय से जु़ड़े रहकर, अपनी ऊर्जा और प्रतिभा को उसमें लगाते तो पर्याप्त सम्पन्न बन सकते थे। लेकिन जनसत्ता की सात्विक पत्रकारिता के अनुभव ने मूल्यपरकता का ऐसा स्वाद, ऐसा स्वाभिमान भर दिया था उनमें कि घोर कष्ट, बेरोजगारी, अकेलापन झेलने और अपने आस पास के, कनिष्ठ पर चालू पत्रकारों को आगे बढ़ते देखने के बावजूद सुरेन्द्र त्रिवेदी अपना पत्रकारीय खरापन नहीं छो़ड़ पाए। हमेशा स्वाभिमानी, मूल्यपरक, संघर्षशील और निष्ठावान बने रहे।
एक जमीनी, सच्चा, खरा और अच्छा पत्रकार यूं अचानक गया, जबकि अभी उसके पास देने को, करने को, लिखने को बहुत कुछ था। यह दुख बना रहेगा, सुरेन्द्र की यादों के साथ…
(स्रोत-एफबी)