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आखिर अंग्रेजी के किसी संपादक को क्यों याद नहीं किया जाता है : राहुल देव



मनीष ठाकुर, वरिष्ठ पत्रकार
एसपी की याद में नौ साल से वैसे पत्रकार परिचर्चा का आयोजन करवाते हैं, जिनने एसपी को कभी आमने सामने ,देखा ही नहीं।मेरे दोस्त पुष्कर पुष्प का यह प्रयास नौ साल से जारी है। ये बात अलग है कि शुरू में एसपी के चेले इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने से भागते थे। उन से यह उम्मीद तो की ही नहीं जा सकती कि जिस एसपी के कारण मात्र से कुछ लोगो की पहचान पत्रकार के रूप में हुई, वे बस अहंकार ही पालते रह गए। उस लायक थे ही नहीं । खुद एसपी की बुनियाद के परजीवी से ज्यादा रहे नहीं ,अपनी साख बचा नहीं पाए ,तो क्या खाक एसपी को याद करते। पिछले साल हम लोगों ने ऐसा आयोजन ( वौइस् ऑफ मुजफ्फरपुर की टीम पुष्कर उस टीम के महत्वपूर्ण हिस्सा है) मुजफ्फरपुर में भी किया था।
खैर, हिंदी पत्रकारिता की जब भी तुलना अंग्रेजी पत्रकारिता से की जाती है तो शिकायत होती है कि हिंदी के पत्रकार ज्यादा जुनूनी होते है, मेहनती होते है, काबिल होते है लेकिन उनकी तनख्वा उनसे बेहद कम होती है,संसद में हिंदी अखवार की प्रति कभी नहीं लहराई जाती है। इस बात की कसक अक्सर हिंदी के पत्रकारों की होती है। आपको भरोसे के साथ कहूँ तो सरकार द्वारा उपलब्ध दस्तावेज़ों की बात यदि आप छोड़ दे तो मैने अक्सर पाया है, देखा है, खुद गवाह रहा हूँ अंग्रेजी अखबार के पत्रकार अक्सर किसी हिंदी अख़बार के एक्सक्लूसिव खबर को अगले दिन छापते है ,एक्सक्लूसिव बनाकर ।चुकी लगभग कोई अंग्रेजी का संपादक हिंदी अख़बार पढ़ता ही नहीं इस लिए उन्हें पता ही नहीं चलता की हिन्दी के अखबार में वो खबर दस दिन पहले छप चूकी है जो उनके रिपोर्टर ने आज एक्सक्लूसिव छापा है। यकीं मानिये जब हम अखबार में थे तो यह साप्ताहिक घटना होती थी। हम कई बार इस बात को लेकर परेशां होते थे ,फिर इसे परिपार्टी पर मज़ा लेकर अपना दर्द हल्का करते थे। मेरे कई पत्रकार साथी इसके गवाह है। जो भले ही इस पर चुप्पी लादे मगर याद कर रहे होंगे।
मतलब सत्ता के नज़दीक रह कर सत्ता के फायदे के लिए, विपक्ष के खिलाफ या फिर इसके उलट प्लांटेड स्टोरी ही अंग्रेज़ी पत्रकारिता की पहचान रही है। क्योंकि सत्ता के शिखर पर वही अखबार पढ़ी जाती है। हाँ टेलीविजन के आने के बाद यह परिपार्टी थोड़ी बदल गई है। बिना संघर्ष के एजेंडा पत्रकार ही सिर्फ अंग्रेजी में रहे शायद यही कारण है कि अंग्रेजी के किसी पत्रकार या संपादक की याद में वो सम्मान नहीं होता जो हर साल प्रभाष जोशी जी की याद में होता है, राजेंद्र माथुर की याद में होता है, सुरेंद्र प्रताप सिंह (sp) की याद में आयोजित किया जाता है। यह सम्मान आज तक किसी अंग्रेजी पत्रकार को नहीं मिल पाया।
समझा जा सकता है सरकार , सत्ता या सत्ता के खिलाफ एजेंडा की पत्रकारिता और जुनूनी पत्रकारिता में क्या अंतर है। तहलका से लेकर एनडीटीवी की पत्रकारिता ने एक वक्त धमक तो खूब जमाया लेकिन कोई नाम लेवा कभी नही रहा। कुछ जेल से लौट कर जमानत पर है कुछ जमानत लेने वाले है।
यह सच है कि अंग्रेजी पत्रकारिता के दवाव में हिंदी की साख भी कमज़ोर हुई। लेकिन हिंदी के ज्यादातर संपादकों के अंदर जो नैतिक बल रहा वो एजेंडा पत्रकारों के अंदर नहीं रहा।शायद यही कारण है कि हिंदी के गौरवपूर्ण संपादक याद किये जाते है। अंगेजी वाले, पैसा,रसूख न जाने क्या क्या तो बना लिया साख नहीं बना पाए । अंग्रेजी के किसी संपादक को यूं याद नहीं किया जाता। राहुल देव जी शायद यही कहना चाहते थे।

manish thakur, journalist
मनीष ठाकुर,वरिष्ठ टीवी पत्रकार
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