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‘पीहू’ आपके विजुअल हैबिट को बदलती है… ये सिनेमा के पुराने आस्वाद से मुक्ति की तरह भी है : गीताश्री


Geeta Shree : पीहू पर कुछ लिखना बहुत आसान नहीं. पीहू को परदे पर देखना एक दहला देने वाला अविस्मरणीय अनुभव है जो आपको दहशत के साथ साथ गिल्ट से भरता जाता है. रोमन पोलिंस्की की बात याद आती है- सिनेमा आपका सबकुछ भुला देता है, जब आप थियेटर में बैठे हों.”
यहाँ मैं एक कमरे में बैठी हूँ और मुझे वहशत ने दबोच रखा है. हाथ बढ़ाकर चीख़ना चाहती हूँ, रोकना चाहती हूँ. कलेजा चीरती हुई एक चीख हवा में घुल कर दम तोड़ देती है. दु: स्वप्न के ताबूत में फँसे हुए हम कैसे कसमसाते हैं… चीख पडना चाहते हैं… नहीं…ई ई ई…
रुक जाओ …
जिंदगी अर्द्धनींद से जागकर रोकना चाहती है. समय कहाँ सुनता है. समय तो उस बंद कमरे में बहता हुआ नल का पानी है…. समय गैस के चूल्हे से उठती नीली-पीली लपट है, समय हौले हौले सुलगता आयरन है….
समय पसरता जाता है… पानी पानी कमरा… एक दो साल की बच्ची उसमें बेखौफ घूमती है. समय और मृत्यु की छाया ये बेखौफ.
दहशत उसे नहीं, दर्शको को है. जिंदगी तो पुकारती है- मम्मा, उठो न !
मृत्यु की देह पर जिंदगी सो जाती है. बेसुध और फिर उठ कर चहलक़दमी करने लगती है. समय अपनी गति से, कोई रुपो में चलता जाता है. न कोई एक्टर है न कोई डायरेक्टर ! साँस रोके कैमरा है जो डायरेक्टर के साथ समय को पकड़ने की कोशिश कर रहा है. वह एक कथा-सूत्र को थामे समय की शिनाख्त कर रहा है.
कमरे के अंधेरे में उजाले का विलाप गले में घुट रहा है. कोई फिल्म ऐसा कर सकती है क्या कि अपने साथ हज़ारों लोगो की साँसों पर क़ाबू पा ले.
कहानी हौले हौले से उठती है…मौत की सतह से उठ कर जिंदगी के पाँव से लिपट जाती है. पीहू की अकेली किरदार पीहू उस कमरे में अकेली नहीं फंसती है, हम सब फँसते हैं. हमें पता नहीं चलता कि कब हमें claustrophobia हिट कर गई. चुप्पी ईश्वर की भाषा है और कैमरे की भी ! चुप्पी एक डिवाइस की तरह है, जो सस्पेंस पैदा करता है. न जाने कौन-सा पल….!
पीहू चंद शब्द ही बोलती है लेकिन उसकी परिस्थितियाँ पूरी कथा नैरेट करती है.,उस बंद फ़्लैट का भीषण यथार्थ आपका गला रुँध देता है. पीहू को पता ही नहीं कि उसके साथ क्या घटा है, दर्शको को सब पता है. एकल पात्रों पर बनी फ़िल्मों ( ट्रैप्ड, ब्यूरीड) पात्रों को पता होता है कि वे फंस चुके हैं और अपने सरवाइवल के लिए उन्हें अनथक , अंतिम साँस तक संघर्ष करना है. यहाँ पीहू को पता ही नहीं कि उसके साथ मृत्यु हर क़दम पर, हर रुप में साये की तरह लगी हुई है. ऐसा अभिनय सिनेमा के इतिहास में नहीं देखा-सुना.
फ़्रेडेरिको फेलिनी होते तो यही करते. वो सिनेमा को दृश्यों , बिंबों का माध्यम मानते थे. पीहू के डायरेक्टर विनोद कापरी उस ऊँचाई को अपनी दूसरी ही फिल्म में छू गए हैं. विनोद कोई फ़ार्मूला नहीं देते बल्कि सिनेमा को फंतासी के तलघर से निकाल कर यथार्थ की ज़मीन पर पटक देते हैं. ये महानगरीय यथार्थ है जहाँ भूमंडलीकरण के बाद बनता हुआ समाज है. क्रूर और सुर्रीयल दुनिया के साथ गढ़ा जाता हुआ.
पोस्ट मॉर्डनिज्म के बड़े से कड़ाह में खौलता हुआ, पकता हुआ समाज जिसको विद्रूप बनाया पूँजी की अंधी दौड़ ने. संपन्नता की चाहत ने इन्सान को अकेला कर दिया और वह अपने ही ग्रह पर एलियन की तरह जीने लगता है. वह किसी से जुड नहीं पाता. उसकी सफलताएँ, महत्वाकांक्षाएँ और अंधी दौड़ उसे अपनी ही दुनिया से जोड़ नहीं पाती.
समाज से कटता हुआ इन्सान एक दिन अपने परिवार से कट जाता है और एक दिन संबंधों में गहरी खाई खुद जाती है. दो लोग खाई के दो छोर पर खडे होकर गड्ढे की भयावहता का अंदाज़ा नहीं लगा पाते जिसमें भावी पीढ़ियाँ दफ़्न हो जाएँगी. कोई नन्हीं सी जान इसमें फंस कर छटपटा जाएगी और उस अंधेरे में भी सुंदर घर बनाने का दिवा-स्वप्न देखेगी. पीहू , अपने पिता के चित्कार के बीच बोलती है , अंत में – देखो पापा, मैं कितना सुंदर घर बना रही हूँ.”
कहानी यहीं से शुरु होती है. सुंदर घर बनाने का स्वप्न कैसे बिखर जाता है, इसका अहसास कराती है पीहू.
यह एक माँ और उसकी दो साल की जीवित बेटी की कहानी नहीं. यह मरे हुए संबंधों , भावनाओं, जज़्बातों और आखिरी बची हुई नन्हीं-सी उम्मीद की फिल्म है.
पीहू मास्टर पीस फिल्म है. नेशनल अवार्ड की हक़दार !!
जो आपकी समझ विकसित करती चलती है और एक दर्शक होने के नाते आपके “विजुअल हैबिट” को बदल देती है. ये सिनेमा के पुराने आस्वाद से मुक्ति की तरह भी है.
वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका गीताश्री की एफबी वॉल से.