अंगरेज़ी के अख़बार ट्रिब्यून ने हिंदी साहित्यकार कृष्णा सोबती पर पूरा पेज दिया। इससे पहले, मृत्यु के अगले रोज़, ट्रिब्यून ने कृष्णाजी पर अपूर्वानंद का लिखा स्मृतिलेख भी प्रकाशित किया था। अगर आपने ग़ौर किया हो, अंगरेज़ी अख़बारों और इंटरनेट पत्रिकाओं ने कृष्णाजी बहुत सामग्री दी। हिंदी के लेखकों से भी उन पर लिखवाया। इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पेज पर बड़ी ख़बर दी, मृणाल पाण्डे से लेख लिखवाया। इतना ही नहीं, उसी रोज़ (26 जनवरी को) एक्सप्रेस ने सम्पादकीय भी प्रकाशित किया।
लेकिन कितने हिंदी अख़बारों ने महान हिंदी लेखिका पर पेज दिए, विशेष लेख लिखवाए-छापे? एक भी हिंदी अख़बार ने सम्पादकीय दिया? दुर्भाग्य से ज़्यादातर हिंदी पत्रकार, ख़ासकर सम्पादक, साहित्य के मामले में लगभग अनपढ़ हैं। साहित्य की उनकी समझ अशोक चक्रधरों से शुरू होती है, जावेद अख़्तरों पर चुक जाती है। उन्हें मालूम तक नहीं कि इनकी लोकप्रियता भले कितनी ही हो, साहित्य में हाशिए पर भी जगह नहीं पाते।
ज़ाहिर है, अकारण नहीं कि गोपालदास नीरज (जो बेशक उम्दा गीतकार थे) पर हिंदी अख़बार बहुत सुपढ़ निकले, लेकिन कृष्णा सोबती पर निपट अनपढ़। विशेष पेज, स्मृतिलेख आदि छोड़िए – बड़े, और संजीदा, हिंदी अख़बारों ने ख़बरें निहायत कंजूसी से दीं!
साहित्य ही क्यों, कला, सिनेमा और संगीत में भी हिंदी के पत्रकार मित्र गहरे नहीं जाते, न अपनी समझ बढ़ाते हैं। हो सकता है उन्हें साहित्य के पाठ, कला के दर्शन, संगीत श्रवण, गोष्ठियों में शिरकत आदि के लिए वक़्त न मिल पाता हो।
लेखक ओम थानवी लंबे समय तक जनसत्ता अखबार के संपादक रहे हैं. इन दिनों राजस्थान पत्रिका समूह में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं
Sabhar- Bhadas4media.com