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तो ये है पेड न्यूज करने वाले छोटे न्यूज चैनलों का फंडा


हम अपने खर्चे देखें या पत्रकारिता के मानदंडों की चिंता करें? : 2012 में खबरिया चैनलों के लिए बुरी खबर : नोट के मामले में न्यूज चैनलों के लिए बीत रहा साल बुरा, आने वाला भी बुरा : चैनलों में  विज्ञापनों (मार्केटिंग) के लिए अक्सर बहुत मारा-मारी मची रहती है। शीर्ष रेटिंग पर चल रहे मनोरंजन और खबरिया चैनलों पर राजस्व ठीक-ठाक जुटता रहता है लेकिन छोटे और क्षेत्रीय भाषा के चैनलों के सामने राजस्व जुटाने के लिए बहुत बड़ी मुश्किल खड़ी रहती है। बाजार के कई ब़डे जानकारों का कहना है कि राजस्व की दृष्टि से साल 2010-11 कोई खास नहीं रहा लेकिन आशंका जताई जा रही है कि साल 2012 भी राजस्व के दृष्टिकोण से अच्छा साबित नहीं होगा।
बाजार के जानकार कह रहे हैं कि साल 2012 में टीवी चैनलों के विज्ञापनों में 50 फीसदी तक गिरावट दर्ज हो सकती है। टीवी चैनलों पर घट रहे विज्ञापनों के बारे में की गई रिसर्च से यह बात सामने आई है कि बड़ी एफएमसीजी कंपनियां अपने विज्ञापनों के कैंपेन में भारी कटौती कर रही हैं। टीवी पर इस वक्त मोबाइल फोन, बैंक, इंश्योरेंस, म्यूचुअल फंड, ऑटोमोबाइल और लाइफ स्टाइल के विज्ञापन ज्यादा आते हैं।
चैनलों को विज्ञापन हासिल करने के लिए काफी प्रतियोगिता करनी पड़ती है, तब उन्हें खर्चे पूरे करने लायक विज्ञापन मिल पाते हैं। यह भी देखा गया है कि उपभोक्ता वस्तुओं का निर्माण करने वाली अधिकांश कंपनियां पहले दूरदर्शन पर विज्ञापन देना पसंद करती हैं। उनकी दूसरी पसंद मनोरंजन चैनल होते हैं। उसके बाद हिंदी और अंग्रेजी के दो-चार चैनलों को ही विज्ञापन मिल पाते हैं। एक बड़ी विज्ञापन एजेंसी से जु़डे व्यक्ति बताते हैं कि टॉप फोर चैनलों के बाद दूसरे चैनलों पर विज्ञापनों के लिए एजेंसी अपनी शर्त और रेट के हिसाब से चैनलों के लिए विज्ञापन जारी करती है। 2011 की तिमाही में इसी वजह से टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाले विज्ञापनों की संख्या घटी है।

एफएमसीजी कंपनियों ने जब से प्रिंट और दूसरे  माध्यमों से अपने विज्ञापन जारी करने का काम किया है, तब से उनका रुझान टीवी चैनलों के विज्ञापनों के प्रति कम हुआ है। बड़ी विज्ञापन एजेंसियों का कहना है कि वे क्षेत्रीय समाचार पत्रों, स्थानीय एफएम स्टेशनों और वॉल पेंटिग के माध्यम से अपने प्रचार-प्रसार का काम पूरा कर रही हैं जिसमें टीवी चैनलों के विज्ञापनों की अपेक्षा खर्च कम आता है। विज्ञापन के जानकारों की मानें तो साल 2012 मनोरंजन चैनलों के लिए तो ठीक-ठाक साबित हो सकता है लेकिन खबरिया चैनलों के लिए यह ज्यादा मुफीद साबित नहीं होगा। विशेषज्ञ कहते हैं कि कंपनियों ने बाजार की प्रतिस्पद्र्घा के चलते अपने दामों में बढ़ोतरी नहीं की लेकिन अपने प्रोडक्ट का खर्चा कम करने के लिए उन्होंने उसके विज्ञापन कैंपेन में 75 फीसदी की कटौती कर दी है। इससे एक तरह से ग्राहकों को सीधा फायदा पहुंचा लेकिन उसका असर टीवी चैनलों की जेब पर सबसे ज्यादा पड़ा।

विशेषज्ञ 2012 जनवरी से अप्रैल तक टीवी चैनलों के लिए खराब वक्त बता रहे हैं। यही वह वक्त है जब नए प्रोडक्ट बाजार में आते हैं और देश का वार्षिक बजट तय होता है। विज्ञापनों में कमी की संभावनाओें को देखते हुए कई टीवी चैनलों में अपने टैरिफ कॉर्ड में भी खासा परिवर्तन किया है, उनके रेट पहले के मुकाबले काफी कम देखे जा रहे हैं। स्थिति यह है कि छोटे और क्षेत्रीय भाषा के चैनलों के पास तो विज्ञापन के कोई रेट ही निर्धारित नहीं हैं। उनके यहां तो किसी भी रेट पर विज्ञापन चलने को तैयार रहता है। यही वजह है कि छोटे चैनल विज्ञापन न मिलने की दशा में पेड न्यूज दिखाने से भी परहेज नहीं करते। वे पेड न्यूज के सहारे ही अपना धंधा आगे बढ़ाने में लगे हैं। चुनावों के वक्त तो ऐसे चैनलों की बन आती है और वे पूरी मनमर्जी पर उतर आते है, हालांकि निर्वाचन आयोग ने चुनावों के दरमियान पेड न्यूज पर निगाह रखने के लिए एक समिति का गठन कर रखा है लेकिन फिर भी ऐसे चैनल उसकी आंखों में धूल झोंकने में कामयाब रहते हैं।

पेड न्यूज चलाने  वाले चैनलों को पत्रकारिता के मानदंडों की तनिक भी चिंता नहीं रहती। वे कहते हैं हम अपने खर्चे देखें या पत्रकारिता के मानदंडों की चिंता करें? दरअसल किसी भी चैनल को चलाने के लिए प्रतिदिन लाखों रुपये का खर्च होता है जिसे पूरा करने के लिए टीवी चैनलों को विज्ञापनों की सख्त दरकार रहती है। विज्ञापनों से ही चैनल की नैया पार होती है। 2012 में टीवी चैनलों के विज्ञापन बाजार में गिरावट की आशंका जताई जा रही है। अगर ऐसा हुआ तो खबरिया चैनलों पर उसका सबसे ज्यादा असर प़डेगा।
पर्ल ग्रुप की राष्ट्रीय हिंदी मैग्जीन ''शुक्रवार'', जिसके संपादक जाने-माने साहित्यकार व पत्रकार विष्णु नागर हैं, के मीडिया कालम में यह विश्लेषण प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है.