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अमेरिकी खुफिया एजेंसियों का हथियार है फेसबुक


सोशल नेटवर्किंग से दुश्मनों का फायदा है : विकीलीक्स के चर्चित संस्थापक जुलियन असांजे ने कुछ महीने पहले एक रूसी अखबार को दिए इंटरव्यू में यह ‘सनसनीखेज रहस्योद्घाटन‘ किया था कि फेसबुक और कुछ नहीं बल्कि अमेरिकी खुफिया एजेंसियों का हथियार है। उन्होंने कहा, अपने फेसबुक अकाउंट में किसी नए दोस्त या रिश्तेदार का नाम जोड़ते वक्त यह मत भूल जाइए कि आप अमेरिकी खुफिया एजेंसियों का काम आसान कर रहे हैं। आप असल में उनका डेटाबेस तैयार करने में हाथ बंटा रहे हैं।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि दुनिया भर की खुफिया एजेंसियां फेसबुक का इस्तेमाल जानकारियां जुटाने और अपराधियों, राष्ट्रविरोधियों तथा प्रतिद्वंद्वी देशों के अधिकारियों पर नजर रखने के लिए करती हैं, लेकिन जुलियन असांजे के बयान का लब्बोलुआब यह था कि फेसबुक है ही अमेरिकी खुफिया एजेंसियों की ईजाद। मार्क जुकरबर्ग (फेसबुक के संस्थापक और सीईओ) इससे रत्ती भर भी सहमत नहीं होंगे लेकिन इस सोशल नेटवर्किंग साइट पर विदेशी गुप्तचर एजेंसियों की हरकतों को लेकर रक्षा प्रतिष्ठानों में गहरी चिंता जरूर है। सिर्फ सीआइए और एफबीआइ ही क्यों, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, चीन और यहां तक कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियां भी सूचनाओं के इस खजाने को खंगालने में जुटे हैं। और सूचनाएं ही क्यों, वे और भी बहुत कुछ ‘जुटा‘ रहे हैं।
भारतीय रक्षा  मंत्रालय ने पिछले दिनों  सेना और अर्धसैनिक बलों के अधिकारियों को फेसबुक से दूर  रहने की सलाह दी है। वजह? सोशल नेटवर्किंग साइटें दोस्तों और रिश्तेदारों के संपर्क में रहने का जरिया भर नहीं हैं। विदेशी खुफिया एजेंसियां लगातार उन्हें मॉनीटर कर रही हैं और उनकी नजर प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रों के अधिकारियों को बहलाने-फुसलाने पर है। गुप्तचर एजेंसियां ही क्यों, चिंता के जरिए और भी कई हैं। माओवादी, नक्सली, नगा जैसे बागी संगवनों से लेकर आतंकवादी तक और सरकारी सीक्रेट चुराने वाली विदेशी ताकतों से लेकर हैकर्स तक अपने-अपने मकसद के लिए फेसबुक पर लॉग इन कर रहे हैं। अगर फिर भी कोई कसर रह गई हो तो पोनरेग्राफी के कारोबारी और वायरस-निर्माता हैं न!
यूं तो रक्षा  सेनाओं, गुप्तचर एजेंसियों और सुरक्षा बलों के अधिकारियों को इंटरनेट पर अपनी पहचान उजागर न करने की ‘सलाह‘ दी जाती है लेकिन इसका हश्र वही होता है जो ‘सलाहों‘ का आम तौर पर हुआ करता है। पुलिस अफसर, सैनिक, नौसैनिक, वायुसैनिक और खुफिया अधिकारी तक फेसबुक, गूगल प्लस तथा ऑरकुट का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं। वे खुद को आकर्षक बांके फौजी जवान के रूप में पेश करने का लालच छोड़ नहीं पाते क्योंकि युवतियों में सेना की वर्दी के प्रति पारंपरिक रूप से क्रेज रहा है। उन्हें लुभाने के लिए हमारे वीर सैनिक सब कुछ करते हैं- अपना नाम-पता और ठिकाना बताने के साथ-साथ फौजी ड्रेस में असली हथियारों के साथ खींचे गए फोटो पोस्ट करने तक। युवतियां तो आकर्षित होती ही होंगी लेकिन ऐसे बांके जवानों की तरफ विदेशी खुफिया एजेंसियां भी खिंची चली आती हैं। वे अपनी आकर्षक एजेंटों को इन नौजवान सैनिकों तथा अफसरों से ऑनलाइन प्रेम संबंध विकसित करने में लगा देती हैं जो धीरे-धीरे उन्हें जासूसी की ओर खींच लेती हैं। आप जानते ही हैं कि प्रेम गुप्तचरी के कारोबार का अहम हथियार है।
इस उभरते ट्रेंड ने हमारे रक्षा तंत्र  और सुरक्षा एजेंसियों की नींद उड़ा दी है। समय रहते चेत जाएं तो अच्छा है वरना राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी गोपनीय सूचनाएं कहां की कहां पहुंच सकती हैं। यह इंटरनेट जो है! पहले ही चीनी हैकरों ने केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों की वेबसाइटों तथा संचार तंत्र पर निशाना साध रखा है। वे गाहे-बगाहे रक्षा मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक के सीक्रेट उड़ा ले जाते रहे हैं और वह भी बिना किसी शख्स की मदद लिए। ऐसे में फेसबुक के जरिए बने ‘मित्रों‘ के जरिए क्या कुछ नहीं किया जा सकता! कई संवेदनशील क्षेत्रों में तैनात सैन्य अधिकारियों को विदेशी खुफिया एजेंसियों के एजेंटों के साथ चैट करते हुए पकड़ा गया है। ये एजेंट ‘युवतियों‘ के रूप में उन्हें फुसलाने में लगे रहते हैं।

सोशल मीडिया के जमाने में फेसबुक-प्रेम, युवा सुलभ उत्साह और दूसरों को इम्प्रैस करने की बेताबी सिर्फ हम हिंदुस्तानियों की समस्या नहीं है। दूसरे देशों की सेनाएं भी इससे परेशान हैं। कुछ अरसा पहले इजराइल की सेना को फिलस्तीनी इलाके में की जाने वाली एक सैनिक कार्रवाई इसलिए रोक देनी पड़ी थी क्योंकि एक उत्साही नौजवान सैनिक ने अपने फेसबुक पेज पर इसकी शेखी बघार दी थी। उसने अपने पेज पर टिप्पणी बता दिया कि फलां तारीख को इतने बजे फलां इलाके में फिलस्तीनी गुटों पर धावा बोला जाएगा और मैं भी (जी हां, मैं भी) इसमें हिस्सा लूंगा। इस टिप्पणी पर वक्त रहते इजराइली खुफिया एजेंटों की नजर पड़ गई वरना कौन जाने पहले से सतर्क फिलस्तीनी बांके इन हमलावर इजराइलियों का क्या हश्र करते!

बात जब फेसबुक पर चली जाती है तो वह कानाफूसी वाली बात नहीं रह जाती। वहां कोई भी सूचना डालने का मतलब उसे लाउडस्पीकर पर जोर-जोर से दुनिया को सुनाने जैसा है। और अगर वह सूचना गोपनीय हो तो? अमेरिका में  इस समस्या को बरसों पहले महसूस  कर लिया गया था और इसी का नतीजा था ऑनलाइन कम्युनिकेशंस टू प्रीवेन्ट वायलेशन्स ऑफ ऑपरेशन्स सिक्योरिटी नामक क़डे नियम जिनके तहत वहां न सिर्फ इंटरनेट पर गोपनीय सूचनाएं लीक करने तथा राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति हानिकारक तत्वों से संपर्क की कोशिशों को रोका जाता है, बल्कि पहले से डाल दी गई सूचनाओं को इंटरनेट से हटाने की भी मुहिम चलाई जाती है। पता लगाया जाता है कि कहां कौन, सैनिक योजनाओं, रणनीतियों, कार्रवाइयों वगैरह से जुड़ी किसी जानकारी का स्रोत बन सकता है। कोशिश की जाती है कि उसे ऐसा करने से रोका जाए। यह परहेजी या निवारक रणनीति है, हमारी तरह अपराध हो जाने के बाद हाय-तौबा मचाने और अपराधी को ढूंढ़ने में जुटने वाली फॉलो-अप रणनीति नहीं। शायद हम इस मामले में अमेरिका से बहुत कुछ सीख सकते हैं।

यह अपनी तरह की अकेली चुनौती नहीं है।  फेसबुक के यूजर्स पर आतंकवादियों और बागी गुटों की ललचाई निगाहें भी लगी हुई हैं। यहां अपना दुष्प्रचार अभियान चलाना और युवकों को गुमराह करना असली दुनिया की तुलना में ज्यादा आसान है। इंटरनेट उन्हें अपनी पहचान बताए बिना कुछ भी कहने और करने की आजादी जो देता है। सोशल नेटवर्किंग साइटों का इस्तेमाल जेहादियों की भर्ती के लिए भी हो रहा है। कुछ समय पहले ब्रिटिश खुफिया एजेंसियों ने खुलासा किया था कि ‘अहलुस सुन्ना वल जमा‘ नामक फेसबुक पेज पर, जिसका ताल्लुक प्रतिबंधित आतंकी संगवन ‘अल मुहाजिरून‘ से है, नए आतंकी रंगरूटों की भर्ती की जाती है। इजराइली खुफिया एजेंसी ‘शिन बेत‘ भी वहां के नागरिकों को चेतावनी दे चुकी है कि वे ध्यान रखें कि कहीं फेसबुक पर किसी फिलस्तीनी या दूसरे अरब आतंकी संगवन के शिकार न हो जाएं। ये संगठन उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन देते हैं और इजराइल के ही विरुद्घ जासूसी में लगा देते हैं। वहां की राष्ट्रीय सुरक्षा तो खतरे में है ही, खुद इन नागरिकों की अपनी सलामती पर भी खतरा है क्योंकि बतौर शिन बेत उनके बारे में सारी जानकारी जुटा चुके आतंकी उन्हें अपहृत और ब्लैकमेल तो कर ही सकते हैं, कहीं बुलाकर उनकी हत्या भी कर सकते हैं।
दहशत फैलाना ही तो आतंकवादियों का मकसद है! बहुत दूर क्यों जाएं, हमारे पड़ोस में पाकिस्तानी जेहादी संगठन भी फेसबुक का इस्तेमाल करने में पीछे नहीं हैं। मुंबई के आतंकवादी हमलों के लिए जिम्मेदार माने जाने वाले जमात-उद-दावा (पहले लश्करे तैयबा) और कई नृशंस बम विस्फोटों के लिए जिम्मेदार सुन्नी आतंकी संगठन सिपाहे सहाबा के फेसबुक पेजों पर जमकर गैर-मुस्लिमों के विरुद्घ जहर उगला जाता है। सोशल नेटवर्किंग साइटें उनके लिए अपना एजेंडा आगे बढ़ाने का बेहतरीन जरिया बन गई हैं। यह ऐसा मीडिया है, जिसके इस्तेमाल में कहीं कोई रुकावट या सेंसरशिप नहीं है। बहुत से आतंकवादी सरगनाओं और संगठनों की तारीफ में फेसबुक पेज भी बनाए गए हैं और उनके ‘प्रशंसकों‘ की संख्या सैकड़ों में है। सोशल नेटवर्किंग ने, हमारा ही नहीं, समाज के दुश्मनों का काम भी पहले से कुछ आसान कर दिया है।
इस आलेख के लेखक बालेंदु शर्मा दाधीच हैं. इसे ''शुक्रवार''' मैग्जीन से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है