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उत्साह पर पानी फिर गया


गांधी और गांधीवाद- 100
मुश्किल से तीन-चार महीने मुम्बई में गुज़रे थे कि दक्षिण अफ़्रीका से तार आया“स्थिति गंभीर है। मि. चेम्बरलेन जल्दी ही आ रहे हैं। आपकी उपस्थिति आवश्यक है।” तार से पूरी बात समझ में नहीं आई। गांधी जी ने अनुमान लगाया कि संकट ट्रांसवाल में ही होगा। चार-छह महीने में वहां की समस्या निबटा कर वे वापस आ जाएंगे इसलिए बाल-बच्चों को साथ लिए बिना ही वे दक्षिण अफ़्रीका के लिए रवाना हुए। गांधी जी की दक्षिण अफ़्रीका की यह तीसरी यात्रा थी। रास्ते भर गांधी जी सोचते रहे कि बोअर युद्ध में भारतीयों द्वारा दी गई सेवाओं के चलते उन्हें लाभ हुआ होगा, फिर ये कौन सा संकट आ पड़ा !
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1902 का डरबन
25 दिसम्बर 1902 को जब गांधी जी डरबन पहुंचे। लोगों ने खुशी और उत्साह के साथ उनका स्वागत किया। जब लोगों से बातचीत हुई, तो उनको वहां की वास्तविक स्थिति का पता चला। उन्होंने तो यह सोच रखा था कि युद्ध के बाद अफ़्रीका में भारतवासियों की स्थिति में सुधार हुआ होगा। ट्रांसवाल और फ़्री स्टेट में तो किसी विषम परिस्थिति की उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी, क्योंकि लॉर्ड लेंसडाउन और लॉर्ड सेलबर्न जैसे बड़े अधिकारियों ने आश्वासन दिया था कि बोअर राज्यों में भारतीयों की खराब हालत का होना भी युद्ध के कई कारणों में से एक कारण है, और युद्ध के बाद इस पर ग़ौर किया जाएगा। प्रिटोरिया में रहने वाले ब्रिटिश राजदूत ने भी गांधी जी को आश्वासन दिया था कि ट्रांसवाल जब ब्रिटिश उपनिवेश हो जाएगा तो सारे भारतीयों के सभी कष्ट दूर हो जाएंगे। राज्य-व्यवस्था बदल जाने पर ट्रांसवाल के भारतीय विरोधी क़ानून भारतीयों पर लागू नहीं हो सकेंगे।
इस घोषणा के चलते गोरों ने, ज़मीन की नीलामी में जिन भारतीयों ने बोली लगाई थी, उसे मंज़ूर कर लिया, क्योंकि अधिकारियों को यह आभास था कि नई सरकार के आते ही भारत विरोधी क़ानून समाप्त हो जाएंगे। लेकिन जब प्रवासी भारतीयवे ज़मीन की रजिस्ट्री के लिए गए तो उन्हें1885 क़ानून का हवाला देकर ज़मीन की रजिस्ट्री उनके नाम करने से मना कर दिया गया। डरबन में पहुंचते ही गांधी जी को मालूम हुआ कि बोअर युद्ध में प्रवासी भारतीयों ने अंगरेज़ सरकार की जो सहायता की थी, वह उसे भूल चुकी है और उन पर कई नए कर और पाबंदी लाद दिए गए हैं। उनकी हालत बद से बदतर हो गई है।
बोअर युद्ध समाप्त होने के बाद ब्रिटिश सरकार ने वहां के नियम-क़ानून की जांच-पड़ताल के लिए एक कमेटी गठित की थी। उसका मुख्य काम था उन नियम-क़ानूनों की पहचान करना जो ब्रिटिश विधान से मेल न खाते हों और महारानी विक्टोरिया की प्रजा के नागरिक अधिकारों में जो क़ानून बाधक हों और उन्हें रद्द कर देना। हालाकि महारानी विक्टोरिया की प्रजा’ में भारतीय प्रजा भी शामिल थी लेकिन समिति ने इसका अर्थ केवल गोरी प्रजा से ही लिया। जो भी सुधार हुए उनमें भारतीयों का कहीं ज़िक्र भी नहीं था। उलटे बोअरों के राज्य में जितने भी भारतीय विरोधी क़ानून थे उन सबको नए सिरे से एक अलग नियम संहिता में समेट कर प्रभावशाली ढंग से लागू कर दिया। जो लोग “जोहानसबर्ग एशियाटिक लोकेशन” में रह रहे थे उन्हें देश छोड़ने का नोटिस दे दिया गया।
गांधी जी जब भारत में थे, तब नवम्बर 1901 में नेटाल की सरकार ने एक अधिनियम पारित किया। इसके तहत यह प्रावधान रखा गया कि कोई भी व्यक्ति जो स्थाई मताधिकार की योग्यता से वंचित कर दिया जाता है उसे सरकारी महकमें नौकरी पाने योग्य न समझा जाएगा। इससे साफ़ था कि प्रवासी भारतीयों के लिए रोज़गार के अवसर कम हो रहे थे। यह गांधी जी की जानकारी में नहीं लाया गया था। वहां पर उन दिनों प्रवासी भारतीयों की स्थिति काफ़िरों, ज़ुलू और मलायी लोगों की तरह ही बहुत ही दयनीय थी और गांधी जी के सामने चुनौती थी कि कैसे उन्हें उनका अधिकार दिलाया जाए।
जब गांधी जी डरबन पहुंचे तो उन्हें कहा गया कि उन्हें ट्रांसवाल भी जाना होगा। गांधी जी के वहा पहुंचने के साथ-साथ ही चेम्बरलेन भी वहां पहुंच चुके थे। उन्होंने सोचा कि नेटाल की स्थिति से चेम्बरलेन को वाकिफ़ करा कर वे उनके पीछे-पीछे ही ट्रांसवाल जाएंगे। तैयारी पूरी कर ली गई थी और चेम्बरलेन के पास शिष्टमंडल के जाने की तारीख भी निश्चित हो चुकी थी। मतलब गांधी जी के पहुंचते ही उनके लिए वहां काम तैयार था। सबसे पहले तो उन्हें चेम्बरलेन के सामने पढ़ा जाने वाला प्रार्थना-पत्र तैयार करना था। वे अपने काम में जुट गए। हिंद कौम की तरफ़ से एक अर्ज़ी तैयार की।
जोसेफ़ चेम्बरलेन (Joseph Chamberlain) को भारतीयों का हमदर्द समझा जाता था। उन्होंने पहले मदद भी की थी। उन्ही के सहयोग से मताधिकार संशोधन बिल को महारानी की स्वीकृति नहीं मिल पाई थी। लेकिन तब से अब तक में फ़र्क़ आ गया था। गोरे समाज नेचेम्बरलेन के उस कृत्य को बदसलूकी के रूप में लिया और उसे माफ़ नहीं किया था। इसलिए जब28 दिसम्बर 1902 को गांधी जी ने नेटाल चेम्बरलेन के समक्ष भारतीय कांग्रेस के प्रतिनिधि मंडल के साथ भारतीयों की समस्याओं से सम्बन्धित ज्ञापन प्रस्तुत किया, तो उसका रुख बदला हुआ पाया। पहले तो चेम्बरलेन ने सारी बातें बड़े ग़ौर से सुनी। उन्होंने नेटाल के मंत्रीमंडल से बात करने का आश्वासन भी दिया। चेम्बरलेन बड़ी मधुरता दिखाते हुए मिला, लेकिन गोल-गोल बातें करते हुए असली मुद्दे को टाल गया। यह मुलाक़ात निरर्थक रही। उसने भारतीय लोगों की मांगों को कोई महत्व ही नहीं दिया।
चेम्बरलेन के दक्षिण अफ़्रीकी दौरे के दो मुख्य मकसद थे। एक तो वह वहां से साढ़े तीन करोड़ पौण्ड लेने गया था, जो उसे गोरों से ही मिलते। यह वह राशि थी जो अफ़्रीका के गोरों को ब्रिटिश सरकार को बोअर युद्ध के हरजाने के रूप में देनी थी। इसलिए वह गोरी सरकार के ख़िलाफ़ कुछ कहना-सुनना नहीं चाहता था। बल्कि उसका ध्यान गोरों और उसकी समस्याओं पर ही केन्द्रित था। दूसरे वहां स्थित अंगरेज़ों और बोअरों का मन भी उसे जीतना था। बोअर युद्ध के बाद बोअरों और अंगरेज़ों के बीच की दूरियां काफ़ी बढ़ गई थीं। इस दूरी को जहां तक हो सके उसे मिटाना था। इन उद्देश्यों के सामने भारतीयों का प्रतिनिधिमंडल कहां ठहरता। शिष्टमंडल को उसकी ओर से तो उन्हे चैम्बरलेन का यह उपदेश मिला, 
“आप तो जानते हैं कि उत्तरदायी उपनिवेशों पर साम्राज्य-सरकार का अंकुश नाम मात्र का ही है। आपकी शिकायतें तो सच्ची जान पड़ती हैं। मुझसे जो हो सकेगा, मैं करूंगा। मैं नेटाल सरकार से बात करूंगा, लेकिन मैं नहीं समझता कि जो क़ानून एक बार बन चुका है और लागू हो चुका है उसे इतनी जल्दी बदलना उनके लिए संभव होगा। आप जानते हैं कि ब्रिटिश सरकार एक इंसाफ़पसंद सरकार है। पर हम उपनिवेशों के मामलों में ज़्यादा दखलंदाज़ी नहीं करते। इसलिए यदि आप लोगों को दक्षिण अफ़्रीका में रहना है, तो जिस तरह भी बने, यहां के गोरों से ही समझौता करके रहना चाहिए। ... आखिर आपको उन्हीं के बीच तो रहना है।”
गोरों से ही समझौता कर रहना चाहिए’ इससे यह स्पष्ट था कि ब्रिटिश विदेश सचिव, उपनिवेशों का दौरा भारतीयों की शिकायतें सुनने के लिए नहीं बल्कि यूरोपीयों को ख़ुश करने के लिए कर रहा था। यह जवाब सुनकर सारे प्रतिनिधियों का जोश ठंडा पड़ गया, मानों उनके उत्साह पर पानी फिर गया हो। शुरू में तो गांधी जी भी निराश हुए ... ब्रिटिश सरकार इतनी जल्दी प्रवासी भारतीयों की सेवा और बलिदान को कैसे भूल गई, ... लेकिन वे इतनी आसानी से हार मानने वालों में से नहीं थे। उन्होंने मन ही मन सोचा, “जब जागे तभी सवेरा। फिर से श्रीगणेश करना होगा।” उन्होंने साथियों को भी यह बात समझाई। सब लोग चिंतित हो गए। उनके सामने अंधकार था … मुख्य प्रश्न था, अब हमारी कौन सुनेगा? .. अब हम क्या करें?
इस प्रकरण पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए गांधी जी लिखते हैं, 
“हां चेम्बरलेन अपने हिसाब से ठीक ही था। गोलमोल बात कहने के बदले उसने साफ बात कह दी। जिसकी लाठी उसकी भैंस का क़ानून उसने मीठे शब्दों में समझा दिया था। पर हमारे पास लाठी थी ही कहां? हमारे पास तो प्रहार झेलने लायक शरीर भी मुश्किल से थे।”
Sabhar- 
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