Jankipul.com -----संजीव कुमार हिंदी के गंभीर आलोचकों में गिने जाते हैं. हाल के वर्षों में जिन कुछ आलोचकों को मिलने के कारण देवीशंकर अवस्थी सम्मान की विश्वसनीयता बरकरार है, वे उनमें एक हैं. बहुत खुलेपन के साथ उन्होंने उदय प्रकाश की कहानियों, उनकी कथा-प्रविधि पर लिखा है. उदय प्रकाश को पढ़ने के एक नए ढंग की ओर यह लेख हमें ले जाता है. उस उदय प्रकाश को ‘लोकेट’ करने की दिशा में जिसकी लोकप्रियता असंदिग्ध है, लेकिन हिंदी आलोचना जिससे बरसों से मुँह चुराती रही है. उदय प्रकाश की षष्टिपूर्ति के वर्ष में लिखा गया विचारोत्तेजक लेख- जानकी पुल.
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उदय प्रकाश पाठकों को अपनी बौद्धिकता से आतंकित करने वाले कहानीकार हैं।... वे कहानी के नाम पर निबंध लिखते हैं और वह भी हर तरह के गठन-सिद्धांत की ऐसी-तैसी करते अराजक बिखराव से ग्रस्त।... उनकी कहानियां रचना-दृष्टि की विपन्नता को कभी भाषिक छल और कभी अमूर्तन से ढंकने-तोपने की कोशिश करती हैं।... वे घोर मैनरिज़्म के शिकार हैं।... उनकी कहानियों में अभिप्रेत संवेदना शिल्प की अतिरिक्त सजगता से क्षत-विक्षत हो जाती है।... वह विदेशी कथाकारों की नकल मार कर, कई जगह उनका अनुवाद कर अपनी धाक जमाने में माहिर है (‘लैब्रिंथ’ तो सीधे-सीधे उड़ा लाया! और‘मेटामौरफोसिस’ का पहला ही वाक्य! हद है टीपने की भी!)।... वह एक अनैतिक और निष्ठुर कहानीकार है-- जिन परिचितों से सहानुभूति रखी जानी चाहिए, उन पर कहानी लिख कर उनकी खिल्ली उड़ाता है।...
उदय प्रकाश को पढ़ते हुए मुझे तीस साल हो गये और उनके बारे में ऐसे आरोपों को सुनते-पढ़ते हुए भी कम-से-कम बीस साल तो हो ही गये। इन बीस सालों में मैं हर समय इन आरोपों से अप्रभावित ही रहा होऊं, ऐसा भी नहीं है। पर इतने सालों बाद आज पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि इन आरोपों के मुक़ाबले उदय की कहानियां मेरी अपनी समझ के संसार में, और निस्संदेह वस्तुगत धरातल पर हिंदी कहानी के संसार में भी, कहीं ज़्यादा टिकाऊ साबित हुईं। आज अगर इपंले (इन पंक्तियों का लेखक) एक पेशेवर-आलोचक-टाइप पाठक की भूमिका में उदय प्रकाश की कुछ सीमाओं को चिह्नित करे भी, तो उनका संबंध उपर्युक्त आरोपों से बिल्कुल नहीं होगा। और जहां तक ‘वस्तुगत धरातल पर हिंदी कहानी के संसार’ का सवाल है, उसने उदय द्वारा की गयी कई शुरुआतों की अनुकरणीयता को सिद्ध करते हुए उपर्युक्त आरोपों को चुपचाप, मगर निर्णायक तरीक़े से किनारे कर दिया है। आज की हिंदी कहानी की कई प्रवृत्तियां ऐसी हैं जिनकी जड़ें तलाशते हुए अगर आपकी निगाह उदय प्रकाश पर ही जाकर नहीं रुकती, तो कम-से-कम उनकी अनदेखी तो नहीं ही कर सकती है। बेशक, उसके बाद इस कहानीकार के बारे में आप राय क्या बनाते हैं, यह इस पर निर्भर होगा कि उन प्रवृत्तियों के बारे में आपकी क्या राय है।
जो उदय की कहानियों के मुरीद नहीं हैं, वे भी यह स्वीकार करेंगे कि दाय में मिले हुए कहानी के फ़ार्म को उन्होंने एकबारगी तो नहीं, पर आहिस्ता-आहिस्ता ख़ासा बदल डाला। उस बदलाव पर गंभीर चर्चा होनी चाहिए। मुझे शक़ है कि‘रूपगत’ प्रयोगों या नवीनताओं के प्रति जिन आलोचकों का रवैया अगंभीर, यहां तक कि अवमाननापूर्ण होता है, उनके मन में कहीं-न-कहीं यह धारणा होती है कि यह दरअसल नवोन्मेषी कहलाने की महत्वाकांक्षा से उपजी कोई ख़ामख़ा की चीज़ है, या फिर किसी सुखद प्रभातवेला में रचनाकार के मन में उठे इस फि़तूर का नतीजा, कि और तो कुछ उखाड़ नहीं पा रहे, चलो, रूप में ही कुछ उलट-फेर कर डालें।
संजीव कुमार |
लिहाज़ा, सबसे पहले इस बात पर बल देना ज़रूरी है कि रूप का नयापन किसी की स्वाधीन इच्छा या दिमाग़ी फि़तूर की पैदावर नहीं होता। ज़्यादातर मामलों में वह स्थापित रूप के भीतर अपनी बात कह पाने में रचनाकार की असमर्थता का परिणाम होता है। यह असमर्थता बड़ी मूल्यवान चीज़ है,क्योंकि रूप वस्तुतः बोध के ढांचे से अनुकूलित होता है और अगर बोध का ढांचा अपरिवर्तित है तो चले आते रूपविधान के भीतर रचने का सामथ्र्य बना रहता है। बोध के ढांचे को ‘तीसरी क़सम’ कहानी के एक प्रसंग से समझें। कहानी का एक पात्र है, पलटदास। भगत आदमी है। थियेटर में चलने वाली नौटंकी ‘गुलबदन और तख़्तहज़ारा’ देखते हुए उसकी प्रतिक्रियाः‘पलटदास कि़स्सा समझता है... कि़स्सा और क्या होगा, रमैन की ही बात! वही राम, वही सीता, वही लखनलला और वही राबन! सिया सुकुमारी को रामजी से छीनने के लिए राबन तरह-तरह का रूप धरकर आता है। राम और सीता भी रूप बदल लेते हैं। यहां भी तख़्तहज़ारा बनानेवाला माली का बेटा राम है। गुलबदन सिया सुकुमारी हैं। माली के लड़के का दोस्त लखनलला है और सुल्तान है राबन...।’
बहुत पहले ‘तीसरी क़सम’ पर लिखते हुए इस हिस्से को सामने रख कर मैंने यह जिज्ञासा की थी कि अगर पलटदास सचमुच का कोई इंसान रहा हो और उसने रेणु की यह कहानी पढ़ी भी हो तो उसकी क्या प्रतिक्रिया हुई होगी? मेरा ही जवाब था, ‘कोई हैरत नहीं कि पलटदास को वहां कोई कि़स्सा हाथ न लगा हो।’ अव्वल तो उसे लगा होगा कि राम और सीता यहां कुछ और ही तरह से व्यवहार कर रहे हैं। पता ही नहीं लगता कि ये सीता मैया राम जी को राम जी मानती भी हैं या नहीं। फिर कोई रावण भी नहीं है। और बगैर रावण के वह सिया सुकुमारी, जो पता नहीं सिया सुकुमारी है भी या नहीं, उन राम जी के हाथ से, जो पता नहीं राम जी हैं भी या नहीं, निकल जाती है। निस्संदेह, पलटदास को समझ नहीं आया होगा कि यहां कि़स्सा कहां है। अलबत्ता, ‘तीसरी क़सम’ फि़ल्म को देख कर उसे थोड़ा संतोष अवश्य हुआ होगा कि चलो, ज़मींदार जैसे पात्र के रूप में एक अदद रावण तो आया, जिसके चलते यह समझना आसान हुआ कि सीता मैया राम जी से दूर क्यों जा रही हैं! साथ ही, हिरामन-हीराबाई को राम और सीता मान लेने की गुंजाइश भी यहां ज़्यादा दिखी होगी, क्योंकि उनका प्रेम अकथित भले ही रह गया हो, कम-से-कम दोतरफ़ा तो है!
मतलब यह, कि पलटदास रामायण के ढांचे में अंटा कर ही किसी कि़स्से को समझ सकता है, नहीं तो नहीं समझ सकता। औसत रचनाकार की स्थिति भी बहुत कुछ ऐसी ही होती है। वह उपलब्ध ढांचे से अनुकूलित रूपविधान के भीतर ही रचना कर सकता है, नहीं तो नहीं कर सकता।
इसीलिए मैंने कहा कि उपलब्ध/प्रदत्त ढांचे के भीतर अपनी बात कह पाने की असमर्थता बड़ी मूल्यवान चीज़ है, क्योंकि ज़्यादातर मामलों में वह रचनाकार के सबसे महत्वपूर्ण सामर्थ्य का प्रमाण है, उस ढांचे के भीतर न सोचने की या कहिए कि उससे बाहर जाकर सोचने की योग्यता का प्रमाण। वह इस बात का सबूत है कि वस्तुगत यथार्थ में कहीं कुछ इस तरह से बदला है कि वह आत्मगत बोध के ढांचों से टकरा रहा है। सबसे संवेदनशील रचनाकार के भीतर यह टकराहट सबसे पहले घटित होती है। यही पुराने रूपविधान को उसके लिए नाकाफ़ी बनाती है और एक नया रूपविधान उसके भीतर बजि़द उभरने लगता है। नाकाफ़ी मानने का मतलब घटिया मानना नहीं है। उसका मतलब सिर्फ़ इतना है कि कोई नयी बात पिछली ‘रूपगत’ युक्तियों में अंटने से इंकार कर रही है। इसी से यह समझ में आता है कि क्यों निराला को एक समय में छंद बंधन की तरह प्रतीत होने लगता है और इसके बावजूद छंदानुशासन में बंधी पिछली परंपरा के कई कवि उनके पसंदीदा कवि बने रहते हैं।
उदय प्रकाश की कहानियों पर आने से पहले यह चर्चा ज़रूरी थी, क्योंकि वे उत्तराधिकार में मिले हुए रूप को जगह-जगह तोड़ कर कुछ नया बनाते हैं और इसे ही कई बार शिल्प की अतिरिक्त सजगता, भाषिक छल, मैनरिज़्म इत्यादि के तौर पर समझा-बताया जाता है। उनके यहां ब्यौरों का अभूतपूर्व बाहुल्य है, वाचक बहुत सजग तौर पर मुखर है, एक बेहद आविष्ट भाषा के भीतर निबंध, भाषण और कविता के सर्वोत्तम गुणों का भरपूर इस्तेमाल है, पाठक को सीधे संबोधित करने वाली शैली है और इन सबके साथ-साथ कथा-स्थितियों के अर्थ-विस्तार के लिए सुराग़ छोड़ते जाने की युक्ति है (जिसे इपंले ‘सर्फेस टेंशन’ कहना पसंद करता है)। ये सारी ऐसी विषेशताएं हैं जिन्हें आप हिंदी कहानी के भीतर बहुत हद तक ख़ास उदयप्रकाशीय स्पर्श के रूप में चिह्नित कर सकते हैं। ये उनके यहां एकबारगी नहीं आई हैं। धीरे-धीरे इनकी उपस्थिति प्रगाढ़ होती गयी है और कहीं-कहीं तो उस हद तक प्रगाढ़ हुई है जहां आपको ऊब होने लगती है। मेरे जैसे प्रशंसक को भी ‘मोहनदास’ जैसी अन्यथा अभूतपूर्व कहानी पढ़ते हुए कोष्ठकों में आए कई निबंधात्मक अंशों को संपादित कर देने की झुंझलाहट भरी तलब महसूस हुई। लेकिन ये बाद की बातें हैं। महत्वपूर्ण यह है कि उदय के पास कहने को कुछ ऐसा था जो पहले से चले आते रूपविधान में अंटने से इंकार कर रहा था। ‘दरियाई घोड़ा’ की कहानियों में अंटने की यह समस्या कम है। वहां ‘मौसा जी’, ‘दद्दू तिवारी गणनाधिकारी’, ‘पुतला’ जैसी उम्दा कहानियों में भी रूप के साथ कोई बुनियादी छेड़छाड़ करने की ज़रूरत नहीं पड़ी है। ‘टेपचू’ में आकर लेखक इसकी थोड़ी ज़रूरत महसूस करता है। वह पाठकों को सीधा संबोधित करने की युक्ति का इस्तेमाल करता है और कहानी इस वाक्य से शुरू होती है कि ‘यहां जो कुछ लिखा हुआ है, वह कहानी नहीं है।’ बीच-बीच में ‘आप’ कह कर पाठकों से सीधे बातचीत की गयी है। फिर अंत में एक पूरा हिस्सा ‘आप’ को संबोधित है, जहां वाचक पाठक से कहता है कि ये बातें उसे जितनी भी अनहोनी या असंभव लगें, पर ये सच के सिवा कुछ नहीं हैं। और अंतिम वाक्य में तो वह दावा करता है कि ‘आपको अब भी विश्वास न होता हो तो जहां, जब, जिस वक़्त आप चाहें मैं आपको टेपचू से मिलवा सकता हूं।’ मैं नहीं जानता कि ‘टेपचू’ से पहले हिंदी की कोई कहानी इस युक्ति के इस्तेमाल का नमूना पेश करती है।
सवाल है कि क्या यह महज़ एक चौंकाने वाला ‘रूपगत’ प्रयोग है? इसका जवाब देने के लिए पहले यह समझना होगा कि ‘टेपचू’ कहानी करना क्या चाहती है? यह कहानी अपने पाठक को पूरी ताक़त के साथ यह अहसास कराना चाहती है कि बहुत प्रतिकूल परिस्थितियों में पले-बढ़े सर्वहारा की जि़ंदगी और मौत के तर्क सामान्य मध्यवर्ग के तर्क से इतने अलहदा हैं कि उन्हें तर्क मानना ही मुश्किल लगता है। इसे यों समझें कि जब भयंकर शीतलहर चल रही हो और आप हीटर-ब्लोअर-संपन्न कक्ष में रज़ाई ओढ़ कर सोते हों, तब आप ही के शहर में खुले आकाश के नीचे हल्कू वाली कंबल (संदर्भः पूस की रात) ओढ़ कर सोते हज़ारों-लाखों लोग जीवित कैसे रह जाते हैं, यह समझना कितना मुश्किल है! क्या यह महान आश्चर्य, जो साल-दर-साल पता नहीं कबसे घटित होता आ रहा है, आपके तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है?टेपचू इसी सच्चाई की ओर आपका ध्यान खींचना चाहता है। पर लेखक को पता है कि ‘आप’ इस पर भरोसा नहीं करेंगे। इसीलिए वह ज़रूरत महसूस करता है कि ‘आप’ को सीधा संबोधित करे और बार-बार इसके कहानी न होकर सच्चाई होने का दावा पेश करे। हम जानते हैं कि दुनिया की आश्चर्यजनक सच्चाइयां जब कि़स्से की शक्ल में लोगों की ज़ुबान पर सफ़र करने लगती हैं तो उनमें सच की ऐसी बारंबार दावेदारी बहुत आम होती है। टेपचूकार सीधे संबोधित करने और सच का दावा करने के इसी तरीक़े को साहित्यिक युक्ति की तरह इस्तेमाल कर ले जाता है। पर वह यह भी जानता है कि इतने भर से काम नहीं चलेगा। इसलिए कथा की प्रकट अतार्किकता का अपने ढंग से निदान करता हुआ वह टेपचू में एक प्रतीक होने की संभावना भी भरता हैः ग़ौर करें, वह ‘जहां, जब, जिस वक़्त आप चाहें’ टेपचू को आपसे मिलवा सकता है। किसी ‘व्यक्ति’ से ‘जहां, जब, जिस वक़्त आप चाहें’ मिलवा पाना तो एक असंभव बात है। इसका मतलब,आखि़री हिस्से में टेपचू व्यक्ति न रह कर हमारे आस-पास हर समय मौजूद श्रमजीवी वर्ग बन जाता है, निहायत प्रतिकूल परिस्थितियों में जिसके लगातार जीवित रह जाने की विस्मयकारी परिघटना पर हम विचार नहीं करते, क्योंकि उन्हें इसी हाल में देखते रहने की भयावह अभ्यस्तता ने हमें चकित-विस्मित और इसीलिए विचारशील होने से रोक रखा है। इस लिहाज से टेपचूकार की चौंकाने वाली युक्ति बहुत सुचिंतित है। हम चौंकाऊपन को जिस तरह निरपेक्ष भाव से घटिया मान लेते हैं, उस पर फिर से सोचना चाहिए। जो सोचने को तैयार नहीं है, उन्हें अगर ‘टेपचू’ ‘यथार्थवाद से विचलन का उदाहरण’ और ‘व्यक्तिवादी रोमानी क्रांति की धारणा को हवा देने’ वाली (मधुरेश, हिंदी कहानी का विकास, 2009, पृ. 183)प्रतीत होती है, तो कोई आश्चर्य नहीं। मैं तो पीछे कह ही आया हूं, पलटदास को ‘तीसरी क़सम’ में कोई कि़स्सा हाथ न लगा होगा।
रूपविधान की कुछ और तरह की युक्तियां आगे ‘तिरिछ’ में उभर कर आती हैं। याद कीजिए कि मेरे गुरु और हिंदी के अत्यंत विश्वसनीय आलोचकों में से एक, विश्वनाथ त्रिपाठी, ने उदय पर यह टिप्पणी की थीः ‘घटना नियतिवाद के आग्रह से अदबदाकर घटना-सरणि में अविश्वसनीय अंतराल पैदा होते हैं जिन्हें ढंकने के लिए ‘तिरिछ’ में वाचक ‘शायद’, ‘वैसे’, ‘जैसा कि’ का बारंबार प्रयोग करता है।’ जिन्होंने ‘तिरिछ’ पढ़ी हो, वे जानते हैं कि पिता के शहर पहुंचने के बाद की घटनाओं की पुनर्रचना करते हुए प्रथम पुरुष वाचक ने ‘शायद’ इत्यादि का बारंबार प्रयोग किया है। क्या हम प्रथम पुरुष वाचक से यह उम्मीद करते हैं कि वह अपने अवरुद्ध अवलोकन बिंदु के अवरोध की अनदेखी करके सर्वज्ञ-सर्वव्यापी वाचक की विधि से पिता की मृत्यु तक की घटनाओं का बयान करता? ज़ाहिर है, यह एक ग़ैरवाजिब मांग होगी। यानी सचमुच में क्या हुआ, इसे जान न पाने का तर्क कहानी के भीतर मौजूद है। कोई कह सकता है कि इस तर्क की आड़ में छुपने के लिए ही अवरुद्ध अवलोकन बिंदु चुना गया, ताकि विश्वसनीय घटना-श्रृंखला बनाने के परिश्रम से बचा जा सके, या बना पाने की अक्षमता को छुपाया जा सके। अगर यह सच हो तो मेरा ख़याल है कि प्रथम पुरुष वाचक को आलोचकों द्वारा‘बैन’ कर दिया जाना चाहिए। ख़ैरियत है, कोई भी इसे सच मानने को तैयार न होगा, क्योंकि सबको पता है कि कथा-सृजन के संसार में प्रथम पुरुष वाचन की कुछ अपने तरह की उपलब्धियां हैं जिन्हें कभी भी सर्वज्ञ-सर्वव्यापी वाचन में हासिल नहीं किया जा सकता। ‘तिरिछ’ में ही क्या होता है? अवरुद्ध अवलोकन बिंदु के तर्क का इस्तेमाल कर कहानीकार एक ऐसे व्याकरणिक काल में कहानी को आगे बढ़ाता है जो हिंदी कहानी में अब तक अनुपस्थित था। कहानी ‘ऐसा हुआ होगा’ और ‘शायद ऐसा हुआ हो’ वाली शैली में आगे चलती है। बेहद गहरा प्रभाव उत्पन्न करने वाली इस कहानी के किसी आम पाठक से पूछ लीजिए, उस प्रभाव के पीछे वह इस ख़ास शैली को एक बड़ा कारण बतायेगा। इस शैली में शहर के, तथा हर ऐसी विराट संरचना के, ख़ौफ़ और आतंक की गूंज/ध्वनि/व्यंजना है--ऐसी विराट संरचनाओं का ख़ौफ़ और आतंक जिनका जटिल विस्तार हमारी जानकारी की परिधि में आयत्त होने से लगातार इंकार करता है और जिनके भीतर व्यक्ति निहायत अकेला, बेगाना और छोटा हो जाता है। जानकारी की परिधि में आयत्त न होने वाली जटिल विराटता‘शायद’ और ‘हुआ होगा’ वाली शैली में सीधा अनुभूति के धरातल पर संप्रेषित होती है। समझ नहीं आता कि शानीनी के संदर्भ में स्वातंत्र्योत्तर भारत में भय के विविध रूपों की अत्यंत संवेदनशील चर्चा करने वाले विश्वनाथ त्रिपाठी ‘तिरिछ’ के प्रसंग में इस युक्ति की सराहना करने से कैसे चूक जाते हैं।
‘तिरिछ’ की यह ‘शायद’ शैली इसलिए भी बहुत प्रभावशाली है कि यह अपने आत्मीय की यातना को, अनुमान रूप में,अपने भीतर दुबारा जीने का उपक्रम रचती है। शक्कीपन से ग्रस्त एक संवेदनहीन वातावरण में असहाय पिता का मौत की ओर एक-एक क़दम बढ़ाना वाचक तक सूचनाओं के रूप में पहुंचता है, पर इस पूरी अवधि में पिता अपने भीतर किन स्थितियों से गुज़र रहे थे, यह तो अनुमान का ही विषय है। और यह अनुमान वाचक ही लगा सकता है, क्योंकि वह पिता के स्वभाव को बहुत बारीक़ी से जानता है जिसके विलक्षण प्रमाण वह पीछे के विवरणों में दे चुका है। इसलिए आगे के हर ‘शायद’ और ‘हो सकता है’ का कहानी में पुख़्ता औचित्य है जो हर सूचना को एक टीस में बदल देता है।
पिताजी ग्यारह बजे शहर में देशबंधु मार्ग पर स्थित स्टेट बैंक आफ़ इंडिया की इमारत में घुसे थे। वे वहां क्यों गये,इसकी वजह ठीक-ठीक समझ में नहीं आती। वैसे हमारे गांव का रमेश दत्त शहर में भूमि विकास सहकारी बैंक में क्लर्क है। हो सकता है, पिताजी के दिमाग़ में सिर्फ़ बैंक रहा हो और वहां से गुज़रते हुए अचानक उन्होंने स्टेट बैंक लिखा हुआ देखा हो और वे अचानक उधर घूम गये हों। उन्होंने अब तक पानी नहीं पिया था, इसलिए उन्होंने सोचा होगा कि वे रमेश दत्त से पानी भी मांग लेंगे, अदालत जाने का रास्ता भी पूछ लेंगे और बता सकेंगे कि उनका सिर घूम सा रहा है, यह भी कि कल शाम उन्हें तिरिछ ने काटा था।
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इसके बाद साढ़े ग्यारह बजे से लेकर एक बजे के बीच पिताजी कहां-कहां गये, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। हां, स्टेट बैंक के बाहर पान की दूकान लगाने वाले बुन्नू ने एक बात बताई थी, हालांकि इस बारे में वह पूरी तरह स्पष्ट नहीं था, या हो सकता है कि स्टेट बैंक के कर्मचारियों से डर की वजह से वह साफ़-साफ़ बतलाने से कतरा रहा हो। बुन्नू ने बतलाया कि स्टेट बैंक से बाहर निकलने पर शायद (वह ‘शायद’ पर बहुत ज़ोर डाल रहा था) पिता जी ने कहा था कि उनके रुपये और काग़ज़ात बैंक के चपरासियों ने छीन लिए हैं। लेकिन बुन्नू का कहना था कि हो सकता है, पिताजी ने कोई और बात कही हो, क्योंकि वे ठीक से बोल नहीं पा रहे थे, उनका निचला होंठ काफ़ी कट गया था, मुंह से लार भी बह रही थी और उनका दिमाग़ सही नहीं था।
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यह कोई नहीं जानता कि थाने से निकल कर लगभग डेढ़ घंटे पिताजी कहां-कहां भटकते रहे। सुबह दस बजकर सात मिनट पर, जब वे शहर आये थे और मिनर्वा टाकीज़ के पास वाले चौराहे पर ट्रैक्टर से उतरे थे, तब से लेकर अब तक उन्होंने कहीं पानी पिया था या नहीं, इसे जानना मुश्किल है। इसकी संभावना भी कम ही बनती है। हो सकता है, तब तक उनका दिमाग़ इस क़ाबिल न रह गया हो कि वे प्यास को भी याद रख सकें। लेकिन अगर वे पुलिस थाने तक पहुंचे तो उनके मस्तिष्क में, नशे के बावजूद, कहीं बहुत कमज़ोर-सा, अंधेरे में डूबा-सा यह ख़याल रहा होगा कि वे किसी तरह अपने गांव जाने का रास्ता वहां पूछ लें, या उस ट्रैक्टर का पता पूछ लें या फिर अपने रुपये और अदालती काग़ज़ात छिन जाने की रिपोर्ट वहां लिखा दें। यह सोचने के क़रीब पहुंचना ही बुरी तरह बेचैन कर डालने वाला है कि उस समय पिताजी सिर्फ़ तिरिछ के ज़हर और धतूरे के नशे के खि़लाफ़ ही नहीं लड़ रहे थे, बल्कि हमारे मकान को बचाने की चिंता भी कहीं न कहीं उनके नशे की नींद में से बार-बार सिर उठा रही थी। शायद उन्हें अब तक यह लगने लगा हो कि यह सब कुछ जो हो रहा है, सिर्फ़ एक सपना है, पिताजी इससे जागने और बाहर निकलने की कोशिश भी करते रहे होंगे।
पाठक स्वयं तय करें कि क्या इस युक्ति को, जहां वाक्य एक ख़ास तरह के व्याकरणिक काल में चलते हों, ‘घटना-सरणि के अविश्वसनीय अंतरालों’ को पाटने की कोशिश या भाषा-छल या मैनरिज़्म कह कर ख़ारिज किया जा सकता है?
कहानी के चले आते रूपविधान के भीतर रच पाने की उदय प्रकाश की सराहनीय असमर्थता आगे और गहराती है, जहां वे नाटकीय विधान (सर्वज्ञ-सर्वव्यापी वाचक की अलक्ष्यता/परोक्षता) या ‘ड्रैमेटिक वेंट्रिलोक्विज़्म’ को बहुत ज़रूरी हदों तक ही महत्व देने को तैयार होते हैं। ‘पाल गोमरा का स्कूटर’, ‘और अंत में प्रार्थना’ इत्यादि ऐसी ही कहानियां हैं। यहां वाचक प्रथम पुरुष नहीं है, यानी वह कहानी में शामिल नहीं है (जेरार्ड जेनेट की आख्यानिकी के अनुसार ‘हेटरोडाइजेटिक नैरेटर’),बावजूद इसके वह बहुत ही मुखर, यहां तक कि कहीं-कहीं वाचाल भी है। वह कथा-स्थितियों और पाठकों के बीच स्वयं को एक पारदर्शी कांच की तरह अलक्षित नहीं रख पाता और अपनी मुखरता के द्वारा यह सुनिश्चित करता है कि पाठक जीवन के इस टुकड़े (स्लाइस आफ़ लाइफ़) को पूंजी द्वारा खड़े किये गये विराट और मूलगामी साभ्यतिक संकटों के नमूने/प्रतिदर्श के रूप में पढ़ पाये। अभी तक उदय प्रकाश कहानी के कक्ष में अपने लिए कुछ नये तरह के उपस्कर लगा कर अपने रहने का इंतज़ाम कर ले रहे थे, लेकिन अब वे इस कक्ष की दीवारें तोड़ कर उसे फैला रहे हैं और निबंध, भाषण तथा उपन्यास का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा इस कक्ष में शामिल किये ले रहे हैं। ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ का वह दृश्य याद आता है जिसमें मुन्नाभाई के हास्टल का छोटा-सा कमरा देख कर उसका साथी सर्किट कहता है कि ‘भाई, ये दीवार तोड़ कर बगल वाले कमरे को भी अंदर ले लेते हैं ना!’ ‘दिल्ली की दीवार’, ‘मैंगोसिल’ जैसी कहानियों में आकर उदय प्रकाश अपने वाचक को कहानी का एक गौण या द्वितीयक पात्र बना देते हैं, यानी वह ‘होमोडाइजेटिक नैरेटर’ हो जाता है, और तब कहानी के भीतर से ही वाचक के टिप्पणी करने की सहूलियत हासिल कर वे पर्सनल एस्से और भाषण की कला को कहानी का अंतरंग बनाने की कोशिश करते हैं।
आकार में उपन्यासिका के आसपास ठहरने वाली इन सब कहानियों की एक सामान्य विषेशता यह है कि इनमें अलग-थलग नज़र आती चीज़ों के बीच संबंध बिठाने का एक अनवरत संघर्ष है, जैसे सूचनाओं के आधिक्य में घिरा हुआ कहानीकार उन्हीं को ज्ञान का पर्याय मानने से बरज रहा हो और कह रहा हो कि इन्हें ही ज्ञान के रूप में उदरस्थ करा देने की पूंजी की साजि़श का शिकार मत बनो। सूचनाओं के इस आधिक्य के बीच होना हमारी नियति है और उनके बीच संबंध-स्थापन कर उन्हें ज्ञान में रूपांतरित करना हमारा संघर्ष। इसी नियति और संघर्ष के बीच ये कहानियां लंबी होती जाती हैं और उदय कहानी के रूपाकार की दमघोंटू (प्रतीत होती) मर्यादाओं को तोड़ते जाते हैं।
मर्यादाओं को इस हद तक तोड़ना इसलिए भी ज़रूरी हुआ है कि अब कहानीकार कहानी की विधा में अपने समय के सबसे बड़े सवालों से टकराने की महत्वाकांक्षा भर रहा है। ये ऐसे समय की कहानियां हैं जब हिंदुस्तान उदारीकरण की चपेट में आ चुका है; विश्व-पटल पर समाजवादी व्यवस्थाएं नष्ट हो चुकी हैं; ‘टेपचू’ का आंदोलनधर्मी आशावाद हास्यास्पद होता जा रहा है; एक ओर अमीरी बढ़ रही है और दूसरी ओर असंगठित दरिद्र सर्वहारा और हाशिये के लोगों की तादाद;पूंजी के अनैतिक, विचारहीन, आततायी भुक्खड़पन के सामने सिर्फ़ मज़दूर वर्ग के लड़ने-बचने की नहीं, पूरी मानवता और प्रकृति के लड़ने-बचने की चिंता भी दरपेश है। ऐसे समय में उदय के यहां विवरणों-ब्यौरों का विस्तार, वाचक की मुखरता,निबंध-भाषण-कविता के सर्वोत्तम गुणों का इस्तेमाल करती ‘चार्ज्ड’ भाषा--ये सब कहानी के सरोकार को साभ्यतिक स्तर तक उठा ले जाने का साधन बनते हैं, जहां इनका सहारा पाकर कहानी का मुख्य घटनाक्रम हमारे समय के सर्वातिशायी विद्रूप का प्रतिनिधि बन जाता है। उसे प्रतीक मैं नहीं कहूंगा, क्योंकि वह अपनी ठोस मूर्त उपस्थिति की क़ीमत पर इस सर्वातिशायी विद्रूप को सामने नहीं लाता। अगर ऐसा होता तो वे शुद्ध रूप से बौद्धिक कहानियां होतीं। उन्हें पढ़ कर गहरा भावनात्मक आलोड़न न होता। घटनाक्रम को प्रतीकात्मक बना कर, उसकी अपनी जीवंतता को सोख कर यह प्रभाव पैदा करना संभव नहीं है। लेकिन यह बिल्कुल संभव है कि कथा (यानी मुख्य घटनाक्रम/कार्यव्यापार) को एक आकार में ढालने वाला विमर्ष उसे प्रतिदर्श और प्रतिनिधि के रूप में विराट संदर्भों से जोड़ दे। ये कहानियां यही करती हैं। वाचक पाल गोमरा के समय का जिस तरह से ख़ाका खींचता है (पाल गोमरा का स्कूटर), या हर बार किसी आदिवासी इलाक़े में दंडस्वरूप पोस्टिंग पाने वाले डा. वाकणकर के जिन तज़ुर्बों, विश्लेषणों और चिंताओं के बारे में बताता है (और अंत में प्रार्थना), या रामनिवास से जिस जगह मुलाक़ात हुई, उस जगह के तमाम ब्यौरे पेश करते हुए जिस तरह वंचना और यातना के एक अलग तरह के भूमंडलीकरण की पहचान करता है (दिल्ली की दीवार), या चंद्रकांत थोराट का कि़स्सा बताने से पहले ‘प्रलय का प्राक्कथन’ शीर्षक से जो भाषाविष्ट व्याख्यान देता है (मैंगोसिल)--इन सबको याद करें। इन्हें बकवास और सनक कहने से लेकर हिंदी कहानी की अविस्मरणीय उपलब्धियां तक कह देना आसान है (इपंले को आसानी चुननी हो तो बाद वाली ही चुनेगा), ज़रूरत इस बात को समझने की है कि ये कहानी के भीतर क्या भूमिका निभा रहे हैं। ये सब कहानी के केंद्रीय कार्यव्यापार को एक विराट समय-संदर्भ के बीच रख कर दिखाते हैं, जहां वह विशिष्ट और विचित्र न रह कर सामान्य और प्रतिनिधि हो जाता है और कहानी गहरी सभ्यता-समीक्षा की कुव्वत हासिल कर लेती है। मुझे ये कहानियां चेख़ोव की ‘वार्ड नं. 6’ की परंपरा की कहानियां लगती हैं, जिसे पढ़ कर लेनिन ने कहा था कि पूरा रूस ‘वार्ड नं. 6’ है। आकार, सरोकार, बहुज्ञता और परिणति की बहुतेरी समानताएं आप ढूंढ़ सकते हैं।
यह सब लिखते हुए मुझे उदय की इन लंबी कहानियों के इतने चरित्र, प्रसंग और अंश याद आ रहे हैं और इस क़दर ठेलमठेल मचाते हुए आ रहे हैं कि उन्हें व्यवस्थित करके यहां बताना मेरे लिए संभव नहीं है। इपंले सिर्फ़ इतना कहेगा कि अगर हिंदीदां इन कहानियों को दुनिया के सामने पेश करते हुए सगर्व यह नहीं कहते कि देखो, हमारे पास उदय प्रकाश है, तो यह उदय का नहीं, हिंदी का दुर्भाग्य है।
उदाहरण मैं इसलिए भी नहीं दे रहा हूं कि उनसे बात बनेगी नहीं। जांच के लिए आपको पूरी-पूरी कहानियां ही पढ़नी पड़ेंगी।
और ‘वार्ड नं. 6’ भी, जो पता नहीं आस्वाद और सराहना की किस कसौटी के चलते हिंदी में उपलब्ध चेख़ोव के संकलनों में, मेरी जानकारी के अनुसार, अनुपस्थित है।
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१.पाल गोमरा का स्कूटर के एक हिस्से में वाचक इस बात को लगभग सीधे-सीधे कहता हैः
कहीं से भी विरोध या आलोचना की चीं-चपड़ नहीं थी। किसी भी तरह के विरोध को यूरोप के समाजवाद की तरह पिछड़ा हुआ अप्रासंगिक हैंगओवर मान लिया गया था।
इलाहाबाद, बनारस, हाथरस या बरेली-मथुरा जैसे किसी शहर से नई दिल्ली आया हुआ एक पंडा ‘बौद्रीला, देरिदा, फूको,बाथ’ जैसे शब्दों का मंत्रोच्चार करता हुआ हर अख़बार और पत्रिकाओं के पन्नों पर हर रोज़ दंड-बैठक लगाता हुआ चीख़ रहा था--
‘‘सुनो, सुनो, सुनो! इतिहास का अब अंत हो गया है।$$$$$$$ अब कहीं कोई यथार्थ नहीं है। चारों ओर सिर्फ़ सूचनाएं हैं।“
‘‘मुज़फ़्फ़रनगर के गेंहूं के खेतों में 2 अक्तूबर, 1994 को जिन पचीसों उत्तराखंडी महिलाओं को भारतवर्ष की पुलिस ने खदेड़-खदेड़ कर रेप किया, वह सिर्फ़ एक सूचना है। फि़लीपीन के शहर मनीला में दिल्ली के वसंत कुंज इलाक़े में रहने वाली लड़की सुष्मिता सेन के मिस यूनिवर्स चुने जाने की सूचना के मुक़ाबले एक निहायत फटीचर सूचना, क्योंकि भारत अब भूमंडलीकरण के कारण अंतरराष्ट्रीय अर्थतंत्र का एक उभरता हुआ खुला मालगोदाम और विशाल उपभोक्ता बाज़ार बन गया है। मुज़फ़्फ़रनगर की सूचना से इस मालगोदाम की जो औरत अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भिंडी, ककड़ी, आलू या मूली साबित हो रही थी, मनीला की सूचना ने उसे सोना, अफ़ीम या यूरेनियम जैसा क़ीमती और मंहगा बना दिया है। और 2अक्तूबर की तारीख़ अब कोई भी प्रतीक बनने की पुरानी क्षमता खो चुकी है, क्योंकि ईश्वर अब मर चुका है।’’
२. एक दिलचस्प वाक़या। अभी कुछ दिन पहले इपंले ने उदय की कहानियों पर चर्चा के सिलसिले में एक आलोचक के साथ मंच साझा किया। सराहना से चिढ़ कर आलोचक महोदय ने मंच से कहा, ‘पाकिस्तान के पास उदय प्रकाश नहीं हैं। मैं तो कहूंगा, पाकिस्तान उदय प्रकाश को ले ले और कश्मीर हमें दे दे।’ बिना देर किये इपंले ने लपक कर सामने पड़ी कार्डलेस माइक उठाई और अपनी राजनीतिक लाइन को ताक़ पर रख कर कहा, ‘मैं उदय प्रकाश को रख लूंगा और कश्मीर से कहूंगा कि वह ख़ुद तय कर ले, कहां रहना है।’
इपंले को अहसास है कि ऐसा कहने वाला मैं कौन होता हूं! पर अगर वैसा कहने वाले वे हो सकते हैं, तो ऐसा कहने वाला मैं क्यों नहीं!
बहरहाल, ख़ुशी की बात ये है कि नहले पर जहां सभा कक्ष में कमज़ोर-सी हंसी सुनाई पड़ी थी, वहीं दहले पर तालियों की उत्साहवर्द्धक गड़गड़ाहट