साहित्यिक पत्रिका 'तद्भव' द्वारा लखनऊ में 21 व 22 अप्रैल को सेमिनार का आयोजन हुआ, जिसमें आदरणीय नामवर सिंह और श्री काशीनाथ सिंह के वक्तव्यों को लेकर बड़ा बवाल हुआ. नामवर जी ने कहा कि सत्ता के समक्ष साहित्यकार की हैसियत कांता यानी जोरू जैसी है तथा काशीनाथ जी ने कहा कि साहित्यकार गांव के सिवान पर मुँह ऊपर उठाकार भूंकता हुआ कूकुर है. इन्हीं बयानों के सन्दर्भ में प्रसिद्ध लेखक शिवमूर्ति ने वक्तव्य दिया. प्रस्तुत है उसी वक्तव्य का एक सम्पादित अंश- जानकी पुल
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......प्रथम सत्र में बोलते हुए डा. काशीनाथ सिंह ने कहा कि साहित्यकार गांव के सिवान पर मुँह ऊपर उठाकार भूंकता हुआ कूकुर है। सुनकर मैं सकते में आ गया हूं। क्या सचमुच लेखक की भूमिका भौंकते हुए कुत्ते सरीखी है? पहले पता चल गया होता तो इस योनि में प्रवेश से बच सकता था, लेकिन तब तो उसी बनारस से कहे गये प्रेमचंद का कथन सुनने को मिल रहा था - साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। अब कह रहे हैं....
साहित्कार को मैं प्रथम श्रेणी का व्यक्ति नहीं मानता। प्रथम श्रेणी में उनको गिनता हूं जो जीवन संघर्ष में सीधे-सीधे उतरते हैं। जनहित के लिए आन्दोलन प्रदर्शन करने वाले, हाथ पैर तुड़वाने, लाठी गोली खाने वाले। साहित्यकार को मैं द्वितीय श्रेणी में रखता हूँ। वह अपने कमरे में सुरक्षित बैठ कर लिखता है। लेकिन भाई, वह कुकुर भी नहीं है। कुत्ता वह तब होता है जब पद-पुरस्कार के लिए छुछुआता घूमता है। चरण-चापन करता है। जोर जुगाड़ करता है। लेकिन अभी भी बहुत से लोग ऐसा नहीं करते। इसलिए पूरी साहित्यिक बिरादरी को कुत्ता कहना मैं ठीक नहीं मानता। डा. काशीनाथ सिंह से मेरा अनुरोध है कि यहाँ तो कह दिया, और कहीं मत कहिएगा।
कल के सत्र में डा. नामवर सिंह ने किसी पुराने ग्रन्थ का हवाला देते हुए कहा कि सत्ता के समक्ष साहित्यकार की हैसियत कांता यानी जोरू जैसी है। कहा कि जैसे शाम को साथ बैठने का मौका मिलने पर पत्नी पति से चिरौरी करती है- जरा यह काम भी देख लीजिए। और पति अवहेलना से कहता है- ठीक है, ठीक है। देख लेंगे। उसी तरह साहित्यकार भी...
सत्ता या बादशाह के सामने साहित्यकार की हैसियत पुराने जमाने में रही होगी कांता या जोरू की। तब राजाश्रय की जरूरत रहती थी। वैसे उस समय भी तुलसीदास, कबीरदास जैसे साहित्यकार थे जो राम के अलावा प्राकृत जन की बहुरिया, कांता या मनसबदार बनना स्वीकार नहीं किए। कुछ आज भी होंगे जो कांता बनने में सुरक्षा मानते हों,लेकिन ऐसे लोगों को साहित्यकार की श्रेणी में रखना उचित होगा या चारण की?
साहित्कार की भूमिका प्रतिपक्ष की मानी जाती है। वह सीधे-सीधे क्रान्ति भले न करता हो लेकिन अपने लेखन से परिवर्तन के लिए जमीन तैयार करता है। समाज में प्रगतिशील मूल्यों को कल्चर करता है। ऐसे समय में जब समाज में अविश्वास, भय और हिंसा बढ़ रही है, ‘स्टेट‘ की बर्दास्त की क्षमता शून्य हो चली है, प्रतिपक्ष के रूप में उसकी भूमिका दिनोदिन चुनौतीपूर्ण होती जा रही है। और जब तक वह इन चुनौतियों से दो-दो हाथ करने को तैयार है, न किसी की जोरू हो सकता है न किसी का कुत्ता।
शिवमूर्ति
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