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दिमाग की खिड़कियां-दरवाजे खोलिए, वक्‍त बहुत कम है





शरीर के अंग जब कमज़ोर हो जाएं तो उन्हें बाहर से विटामिन की ज़रूरत होती है और कभी-कभी जब वे अंग बिल्कुल ही काम नहीं करते तो बहुत ही कड़े बाहरी तत्व की ज़रूरत होती है, जिसे हम लाइफ सेविंग ड्रग्स कहते हैं. अगर हार्ट सींक करने लगे तो कोरामीन देते हैं, बाईपास सर्जरी होती है. अगर डायबिटीज़ हो और पेन्क्रियाज़ बिल्कुल ही ख़त्म हो जाए तो इंसुलिन लेनी पड़ती है. शायद यही स्थिति हमारे देश की हो रही है. हम स्वयं कुछ नहीं कर पाते. हमें कुछ करने के लिए या हमें उत्तेजित करने के लिए या निराशा से बचने के लिए या कोई समाधान तलाशने के लिए बाहरी तत्वों की ज़रूरत होती है. हमारे पास सारी जानकारी होती है, लेकिन हम उस जानकारी के ऊपर कोई एक्शन नहीं लेते, उस पर कोई ध्यान नहीं देते या उसका विश्लेषण नहीं करते हैं. अचानक विदेश से कोई ख़बर आती है और पूरा देश यानी पूरी पार्लियामेंट उस तरह उछल पड़ती है, जैसे उसे किसी बिच्छू ने डंक मार दिया हो. और यह होना चाहिए, वह होना चाहिए, ऐसा नहीं होगा, वैसा नहीं होगा, इसके ऊपर कई दिन बेकार किए जाते हैं. ऐसा लगता है, जैसे भूचाल आ गया. इस स्थिति के बारे में कौन सोचेगा? नहीं लगता कि सांसद सोचेंगे या इस देश के राजनेता सोचेंगे. अगर किसी को सोचना पड़ेगा तो जनता को सोचना पड़ेगा. 25 साल पहले स्वीडन के एक पुलिस अधिकारी ने उस समय हिंदू अ़खबार की संवाददाता चित्रा सुब्रह्मण्यम को कुछ काग़ज़ दिए. उन काग़ज़ों के आधार पर चित्रा सुब्रह्मण्यम ने बोफोर्स घोटाले की रिपोर्ट लिखी. वह घोटाला देश में चर्चित हुआ. उस पुलिस अधिकारी ने उस रिपोर्ट में चित्रा सुब्रह्मण्यम को बताया कि 64 करोड़ रुपये की दलाली बोफोर्स कंपनी ने कुछ भारतीय बिचौलियों को दी. इसलिए दी, क्योंकि उसने पहले उन्हें अधिकृत किया था कि वे भारत सरकार के साथ बोफोर्स तोप का सौदा कराएं, लेकिन चूंकि भारत सरकार ने यह तय किया है कि अब वह बिचौलियों द्वारा बातचीत नहीं करेगी, इसलिए उन बिचौलियों को वाइंडअप चार्ज के नाम पर 64 करोड़ रुपये दिए गए.
अरुण जेटली के रिश्ते उन सभी लोगों से हैं, जो कहीं न कहीं बोफोर्स कांड से जुड़े रहे हैं. अरुण जेटली अटल जी की सरकार में मंत्री बने. तब अरुण जेटली को यह कांड उतनी शिद्दत के साथ याद क्यों नहीं आया, जितनी शिद्दत के साथ उन्हें चित्रा सुब्रह्मण्यम की अभी दस दिन पहले इंडियन एक्सप्रेस में छपी रिपोर्ट पढ़कर याद आया, जिसे उन्होंने स्वीडन के उसी पुलिस अधिकारी से की गई बातचीत के आधार पर लिखा है.
ये पैसे कहां गए? इसका खुलासा हमने अपनी एक रिपोर्ट में किया था और बहुत डिटेल में किया था कि ये पैसे किस अकाउंट में, कहां गए? हालांकि उस पुलिस अधिकारी ने एक नाम लोटस बताया था और दूसरा नाम ए ई सर्विसेज. हमने अपनी इंवेस्टिगेशन में पाया कि उस अकाउंट से पैसा किस अकाउंट में गया, फिर किस अकाउंट में गया और फिर किस अकाउंट में गया, उस अकाउंट के बेनिफिशियरी का नाम क्या था. उस समय भी इस पुलिस अधिकारी ने अमिताभ बच्चन का नाम नहीं लिया था, राजीव गांधी का नाम नहीं लिया था. आज फिर उस पुलिस अधिकारी ने उन्हीं बातों को दोहराया कि न उसमें राजीव गांधी शामिल थे और न अमिताभ बच्चन. कोई नई बात उसने नहीं की, लेकिन अब हमारे देश की संसद को लगा, मानो भूचाल आ गया और बोफोर्स केस में कोई नया खुलासा हुआ है. अ़फसोस की बात यह है कि सरकार के लोगों को भी पूरा घटनाक्रम नहीं पता, इसलिए वे लोग इस तरह गला फाड़ रहे हैं, मानो उनके ऊपर कोई बड़ा हमला हो गया हो. दरअसल, बोफोर्स इस देश का पहला ऐसा मामला है, जिसमें शक की सुई देश के सर्वोच्च पद की तऱफ गई थी और आम तौर पर देश ने यह मान लिया था कि राजीव गांधी इस पूरे सौदे के पीछे हैं और 64 करोड़ की रक़म राजीव गांधी के पास केयर ऑफ क्वात्रोची गई है. उस समय भी क्वात्रोची का नाम सामने नहीं आया था, बाद में आया था, लेकिन ये दोनों अकाउंट होल्डर्स कौन हैं, इस पर अमिताभ बच्चन के छोटे भाई अजिताभ बच्चन के ऊपर शक की सुई गई थी और माना गया था कि यह पैसा होते-होते तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के पास गया होगा. जांच हुई. राजीव गांधी इसमें सीधे तौर पर शामिल नहीं थे, लेकिन चूंकि प्रधानमंत्री के घर ओट्टावियो क्वात्रोची का आना-जाना था और क्वात्रोची को इसकी जांच में शामिल नहीं किया गया था, उसे बचाया गया, तो माना गया कि कहीं न कहीं इसके पीछे राजीव गांधी का हाथ है.
इसी तथ्य को आज फिर 25 साल के बाद स्वीडन के पुलिस अधिकारी ने दोबारा रेखांकित किया कि राजीव गांधी ने क्वात्रोची को बचाया, इसमें क्वात्रोची सीधे तौर पर शामिल था. राजीव गांधी की हत्या के बाद भी क्वात्रोची का उनके घर में आना-जाना लगा रहा और देश में यह माना गया कि क्वात्रोची राजीव गांधी के रिश्ते में साला लगता है, इसलिए वह उनके ज़िंदा रहते हुए भी बिना किसी विशेष पास के प्रधानमंत्री निवास में आ-जा सकता था और बाद में भी सोनिया गांधी से मिलता रहा. इसलिए शायद लोगों के दिमाग़ में शक की वह सुई ज़िंदा है. अ़फसोस इस बात का है कि भारतीय जांचकर्ताओं ने क्या किया और क्या नहीं किया, इसके बारे में देश को बहुत कुछ नहीं मालूम और हमारे लोग बताते भी नहीं हैं. इसलिए जब विदेश का कोई आदमी कुछ कहता है तो लोग उस पर सहज विश्वास कर लेते हैं. जब स्वीडन के एक पुलिस अधिकारी ने कहा कि जांचकर्ताओं ने उनसे कहा कि अमिताभ बच्चन को इसमें फंसाना है तो सवाल उठता है कि किस समय के जांचकर्ताओं ने कहा. दो बार इस केस की जांच हुई. एक बार जब ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमेटी बनी, राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तब भी एक दल स्वीडन जांच करने गया था और दोबारा तब, जब विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री थे और एफआईआर दर्ज की गई, जिसके बाद सीबीआई का दल जांच करने गया. किन लोगों ने पुलिस अधिकारी से कहा कि अमिताभ बच्चन का नाम इसमें शामिल किया जाना है. उस पुलिस अधिकारी ने इस बारे में कोई स़फाई नहीं दी और उसने दो प्रधानमंत्रियों के दौरान हुईं दोनों जांचों पर शक पैदा कर दिया. इस हिसाब से चित्रा सुब्रह्मण्यम की यह रिपोर्ट महत्वपूर्ण है कि एक पत्रकार को वह रिपोर्ट याद रही कि उसने पच्चीस साल पहले क्या लिखा था और पच्चीस साल पूरा होने पर उन्होंने उसी पुलिस अधिकारी से बात करके एक बार फिर उस केस को ज़िंदा कर दिया.
दरअसल, बोफोर्स पहला केस है, जो हिंदुस्तान में सार्वजनिक बहस का विषय बना, उजागर हुआ और उजागर वहां से हुआ, जहां से यह रक़म दी गई थी यानी स्वीडन से. चूंकि यह पहला बड़ा केस था, इसलिए हिंदुस्तान में राजनीति का विषय बन गया और इसने कांग्रेस की हार में एक बड़ा रोल अदा किया, लेकिन अब देश में इससे बड़े-बड़े घोटाले हो चुके हैं. घोटाले भी इतने बड़े, जिनमें सैकड़ों बोफोर्स घोटाले समा जाएं. कामनवेल्थ गेम्स, 2-जी स्पेक्ट्रम और फिर छब्बीस लाख करोड़ का कोयला घोटाला. इनके सामने चौंसठ करोड़ की घूस की रक़म कहीं टिकती नज़र नहीं आती. इसमें भी कोई दो राय नहीं कि चूंकि बोफोर्स केस में कोई कार्रवाई नहीं हुई, इसलिए उन लोगों के हौसले बहुत बुलंद हो गए, जो समय-समय पर घोटाले करके देश की संपदा को, इस देश के आम आदमी की गाढ़ी कमाई को लूटना अपना कर्तव्य समझते हैं. लूट का कर्तव्य एक मानसिकता है. यह मानसिकता सभी में नहीं होती, कुछ ही लोगों में होती है, पर वह हर दौर में होती है.
सवाल यह है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह जी की सरकार में इस केस के पीछे पड़ने वाले लोगों में अरुण जेटली प्रमुख थे. अरुण जेटली के रिश्ते उन सभी लोगों से हैं, जो कहीं न कहीं बोफोर्स कांड से जुड़े रहे हैं. अरुण जेटली अटल जी की सरकार में मंत्री बने. तब अरुण जेटली को यह कांड उतनी शिद्दत के साथ याद क्यों नहीं आया, जितनी शिद्दत के साथ उन्हें चित्रा सुब्रह्मण्यम की अभी दस दिन पहले  इंडियन एक्सप्रेस में छपी रिपोर्ट पढ़कर याद आया, जिसे उन्होंने स्वीडन के उसी पुलिस अधिकारी से की गई बातचीत के आधार पर लिखा है. मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि हम अपना कर्तव्य करने में चूक जाते हैं और फिर हम बहाने बनाने लगते हैं, हम देश के लोगों को ईमानदार होने की दुहाई देने लगते हैं. सेना की हालत खराब हुई, यह साल-दो साल में नहीं हुई. इस हालत में पिछले कई प्रधानमंत्री शामिल रहे होंगे. अब अटल जी की तबियत खराब है और उनसे सवाल नहीं पूछा जा सकता, लेकिन ब्रजेश मिश्रा से पूछा जा सकता है, क्योंकि ब्रजेश मिश्रा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे और सबसे बड़े नौकरशाह थे. ब्रजेश मिश्रा खामोश हैं और वह नहीं बता रहे हैं कि उनके समय में सेना की क्या हालत थी. अगर ब्रजेश मिश्रा यह कह दें कि उनके समय में सेना की हालत बहुत अच्छी थी तो यह मान लिया जाए कि उस समय के बाद से सेना की हालत खराब होनी शुरू हुई और सेना में दलाली की प्रथा वहां से शुरू हुई, लेकिन ब्रजेश मिश्रा की खामोशी यह बताती है कि वह भी दलाली के इस खेल में गले नहीं, नाक तक सने हुए हैं. उसी तरीक़े से अरुण जेटली का आज यह कहना और राज्यसभा में दिया गया उनका भाषण यह नहीं सा़फ करता कि उनके दौर में बोफोर्स के मसले को हल करने के लिए क्या कार्रवाई हुई. उन्होंने वही घिसे-पिटे जवाब दिए, लेटर रोगेटरी भेजा गया, एफआईआर लिखाई गई. यह तो सामान्य क़ानूनी प्रक्रिया है, जिसे एक सरकार ने पूरा किया, लेकिन आपने उस जांच को आगे बढ़ाने के लिए क्या किया? क्या आपकी राजनीतिक इच्छाशक्ति थी कि आप बोफोर्स के पीछे कौन लोग हैं, उसे उजागर करें. अगर इसका देश के लोगों से जवाब मांगें तो एक ही जवाब मिलेगा कि नहीं, आपकी भी इच्छाशक्ति नहीं थी. आज जब बोफोर्स का नाम स्वीडन के एक अधिकारी ने लिया तो आपने उसका राजनीतिक फायदा उठाना चाहा. यह सवाल इतना बड़ा बन गया है कि इसे लेकर अन्ना हजारे और बाबा रामदेव सारे देश में घूम रहे हैं और देश में फैले भ्रष्टाचार के खिला़फ लोगों को जागरूक करने की कोशिश कर रहे हैं. इस प्रक्रिया में संसद एक तऱफ खड़ी नज़र आती है और अन्ना हजारे, बाबा रामदेव एवं उनके साथ उन सामाजिक कार्यकर्ताओं का वर्ग, राजनीतिक कार्यकर्ताओं का वर्ग, जो किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़ा है, दूसरी तऱफ खड़ा नज़र आता है.
मज़े की बात यह है कि संसद में कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, जद-यू, वामपंथी दल सब एक साथ खड़े नज़र आते हैं. वे भ्रष्टाचार के ऊपर चिंतित नज़र नहीं आते हैं, जनता चिंतित नज़र आती है. इस अंतर्विरोध को आज देश चलाने वाले राजनेता नहीं समझ पा रहे हैं. वे नहीं समझ रहे हैं, इसलिए ऐसे किसी भी विषय के आने पर उनका राजनीतिक फायदा उठाते हैं, ताकि उनके प्रति देश के लोगों के मन में कुछ इस तरह का भाव बने कि ये भी भ्रष्टाचार से लड़ना चाहते हैं, ये भी भ्रष्टाचार का विरोध कर रहे हैं, लेकिन दरअसल ऐसा है नहीं. देश में एक रेखा खिंच रही है. मैं भारतीय संसद के सदस्यों को बता दूं कि मई चल रहा है और जून आते-आते आपके सिर के ऊपर लोगों के ग़ुस्से की तलवार शायद चलनी शुरू हो जाएगी. लोगों का ग़ुस्सा इस पूरे सिस्टम के प्रति बढ़ रहा है. आप मानें कि साठ साल तक लोग चुप रहे तो अगले साठ साल और चुप रहेंगे, मुझे ऐसा नहीं लगता. मैं आजकल नौजवानों के बीच में घूम रहा हूं और देख रहा हूं कि इस देश के नौजवानों में ग़ुस्सा है, ऩफरत है, लेकिन किसी एक पार्टी के प्रति नहीं, बल्कि पूरे पॉलिटिकल सिस्टम के प्रति. उनके पास शब्द नहीं हैं, लेकिन आंखों में ग़ुस्सा है, दिल में जलन है, मन में तू़फान है.
अ़फसोस की बात यह है कि इस स्थिति को हमारे जैसे साधारण पत्रकार समझ रहे हैं, लेकिन इस देश को चलाने का दावा करने वाले मनमोहन सिंह जी, सोनिया गांधी जी, लालकृष्ण आडवाणी जी, सुषमा स्वराज जी, मुलायम सिंह जी, शरद यादव जी, रामविलास पासवान जी, लालू यादव जी, कोई नहीं समझ रहा है. ए बी वर्द्धन, प्रकाश करात, सीताराम येचुरी एवं वृंदा करात को देखकर तो लगता है कि वे अपनी भाषा की धार ही खो चुके हैं. लोग उन्हें भी अपने से अलग मानना शुरू कर चुके हैं. यह स्थिति देश के लिए बहुत अच्छी नहीं है. इसमें या तो लोकतंत्र मज़बूत होगा या लोकतंत्र समाप्त होगा. या तो जनता की ताक़त बढ़ेगी या फिर जनता के लिए लड़ने वाले लोगों की हत्याएं होंगी. देश विध्वंस के लिए भी तैयार है और देश नवनिर्माण के लिए भी तैयार है. काश, राजनेता अपना दिमाग़ खोलकर लोगों के मन की आकांक्षा को समझ कर अपना पाला तय करते. वे जब समझ कर पाला तय करेंगे तो वह नवनिर्माण के लिए होगा, लेकिन अगर वे बिना समझे अपना क़दम उठाएंगे तो वह विध्वंस के लिए होगा. हम चाहते हैं कि देश विध्वंस की तऱफ नहीं, नवनिर्माण की तऱफ बढ़े.

संतोष भारतीय 'चौथी दुनिया' के प्रमुख संपादक हैं. संतोष भारतीय भारत के शीर्ष दस पत्रकारों में गिने जाते हैं. वह एक चिंतनशील संपादक हैं, जो बदलाव में यक़ीन रखते हैं. 1986 में जब उन्होंने चौथी दुनिया की शुरुआत की थी, तब उन्होंने खोजी पत्रकारिता को पूरी तरह से नए मायने दिए थे.
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