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लखनऊ के दो पत्रकार मित्रों ने मुझे बताया- ठीक आदमी नहीं है यशवंत


मेरा प्रिय पर पियक्कड़ साथी : “ए भाई, ई कैसा आदमी है. आप भी कैसे-कैसे लोगों के चक्कर में रहते हैं” मुझसे एक सज्जन ने यह बात उस समय कही थी जब मैंने यशवंतानन्द सरस्वती को अपनी संस्था आईआरडीएस की ओर से सम्मानित किया था. यह बात लखनऊ के ही एक पत्रकार ने कही थी और उन्होंने यह बात कुछ इस ढंग से कही थी कि मेरे मुहं का जायका एकदम से बिगड गया था. इस तरह की बात सुन कर मूड ऑफ होना स्वाभाविक भी था क्योंकि अभी एक दिन पहले ही तो मैंने इस आदमी को पुरस्कृत किया था और अब अचानक से यह जान कर कि यह बहुत बेकार आदमी है, पतित है, दलाल है, झूठा है, मक्कार है, फरेबी है और ना जाने क्या-क्या है, मुझे अपने आप में बड़ी ग्लानि सी हुई थी.
मुझे लगा था कि मैं भी शायद इतना ही बेकार आदमी हूँ. बताइये संस्था की तरफ से पत्रकारिता के क्षेत्र में लब्धप्रतिष्ठ युवा हस्ताक्षर को पत्रकारिता के युगपुरुष स्वर्गीय एस पी सिंह के नाम पर स्थापित किये गए पुरस्कार के लिए जब एक आदमी चुनता हूँ तो वह निकलता है “अइसा आदमी” जिसके बारे में मेरा एक साथी कहता है कि मैं किन लोगों के चक्कर में रहता हूँ.

लेकिन उस आदमी ने यह बात कह तो दी थी पर मेरा मन उस बात को पूरी तरह मानने को तैयार नहीं था. हाथ कंगन को आरसी क्या वाले तर्ज पर मैं यह सोच रहा था कि अभी कल जिस आदमी से मैं मिला था वह और कुछ भी हो, बेकार तो नहीं दिखता है. मैंने उस आदमी के साथ कुछ घंटे बिठाये थे- हंसी मजाक हुआ था, भोजन-भजन हुआ था, विचार विमर्श हुए थे, वाद विवाद हुआ था. वह आदमी तो एक बहुत ही सुलझा हुआ, गंभीर, खुशमिजाज, जिंदादिल शख्स के रूप में उभर कर मुझे नज़र आया था, फिर अचानक से यह आदमी इतना बेकार कैसे कहा जा रहा था.

अभी एक साथी से बात हुई नहीं थी कि एक दूसरे पत्रकार मित्र का फोन आ गया था. उसने इस बात पर थोडा और नमक मिर्च लगा कर प्रस्तुत कर दिया. उसकी बातों का भी सार यही था कि यशवंत बाबू परले दर्जे के दलाल हैं, कपटी हैं, धूर्त हैं, ढोंगी हैं, फरेबी हैं, चालक और अविश्वसनीय हैं. जब दो-दो जगहों से एक ही फीडबैक आ गया तो स्वाभाविक रूप से मैं चौंका था. इसी मानसिक अवस्था में मैंने एक ऐसा काम किया था जिसे दुनियावी दृष्टि से किसी भी प्रकार से बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहा जाएगा पर जिसे कर के मैं आज तक अपने आप को पछताया हुआ नहीं मानता हूँ. मैंने यशवंत बाबू को एक ईमेल भेजा जिसमे मैंने संक्षेप में, कुछ मृदु शब्दों में वे बातें लिखीं जो मुझे उनके विराट व्यक्तित्व के विषय में बताई गयी थीं. मैंने उन दोनों सज्जनों का नाम उन्हें नहीं बताया पर उनके द्वारा की गयी टिप्पणियों को सौम्य ढंग से अवश्य प्रस्तुत कर दिया.

इधर मेरी मेल उनको मिली नहीं कि उधर से कुछ ही देर बाद उनका मेल आ गया. मैंने इससे पहले मेल भेज तो दिया था पर उसके बाद मुझे पछतावा हो रहा था कि मुझे ऐसा करने की क्या जरूरत थी. आखिर यशवंत बाबू पर मेरा क्या हक था? वे मेरे भाई थे, घर के थे, पुराने दोस्त, अधीनस्थ थे? कुछ भी तो नहीं. परिचय भी जुमा-जुमा दो-चार दिनों का था. ऐसे में मुझे उन्हें उनके अवगुण गिनाने की क्या जरूरत थी. पर साथ ही मन में यह बात भी बार-बार आती थी कि जिस व्यक्ति से मैं पिछले दो दिनों में कई बार मिला हूँ, यदि यह वही आदमी है जो वह दिखता है तो मैंने कोई गलती नहीं की है क्योंकि यदि वह सच्चा आदमी होगा तो घूम कर मुझे रेस्पोंस जरूर करेगा.

मैंने यशवंतानन्द सरस्वती का ईमेल कुछ धड़कते हुए ह्रदय से खोला. उसमे जो बात उन्होंने लिखी उन बातों को मैं कभी नहीं भूल पाता. उन्होंने कहा कि यह जरूरी नहीं कि मैं वास्तव में कैसा हूँ. जरूरी यह है कि आप मुझे कैसा मानते हैं. साथ ही यह भी कहा कि हर व्यक्ति को चाहिए कि किसी अन्य के विषय में आकलन करने और उसके बारे में अपनी धारणा बनाने के लिए दूसरे के मत का सहारा लेने की जगह अपना स्वयं का मत बनाए, अपनी बुद्धि और अपने विवेक के अनुसार बनाए. उन्होंने कहा कि जिस प्रकार से आपको मेरी “खूबियाँ” गिनाई और बतायी गयी हैं उसी प्रकार से लखनऊ में कुछ जगहों पर आपकी भी तमाम “खूबियाँ” सामने लायी गयी थीं. कुछ लोगों द्वारा आपके बारे में भी हर वैसी बात उन्हें कही गयी गयी थी जो उचित नहीं मानी जायेगी. लेकिन मैंने इन बातों पर विश्वास करने की जगह अपनी आँखों और अपने स्वयं की बुद्धि और विवेक पर भरोसा रखना उचित समझा था. मैंने आपके बारे में अपनी धारणा (अच्छी या बुरी) किसी मिस्टर ए या मिस्टर बी के कहे के अनुसार नहीं, अपने स्वयं की इच्छा के अनुसार बनायी. इसीलिए मैं आपसे यही निवेदन करूँगा कि आप मेरे विषय में जो भी मत स्थिर करना है वह अपनी बुद्धि से कीजिये, किसी के कहे के अनुसार नहीं.

मैंने उसी क्षण हमेशा के लिए यशवंत बाबू के विषय में अपना एक मत सुनिश्चित कर लिया. मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि हम दोनों कई मोडों पर, कई स्थानों पर, कई प्रकार से, कई रूपों में आपस में मिलते रहे, टकराते रहे, साथ रहे. मैं कुछ ही दिनों में भड़ास का नियमित लेखक बन गया था और नियमित पाठक भी. लेकिन इस सब से बढ़ कर जो बात रही वह यह कि मैंने यशवंताननद सरस्वती के रूप में एक ऐसा भाई पा लिया जिसके टक्कर के लोग बहुत कम होते हैं. मैं यह जानता हूँ कि यह सम्बन्ध किसी लालच और लेन-देन पर नहीं टिका हुआ है. मैं यह भी जानता हूँ कि यशवंत बाबू अपने आप में सक्षम हैं, दबंग हैं, होनहार हैं, मेधावी हैं और एक ऐसे व्यक्ति हैं जिसका भविष्य आम तौर पर बहुत उज्जवल प्रतीत होता है. मैं यह भी जनता हूँ कि मैं ये बातें मात्र उन्हें प्रसन्न करने के लिए नहीं लिख रहा हूँ, यद्यपि वे ये सब पढ़ कर खुश ही होंगे, नाराज़ तो कदापि नहीं.

इनके विपरीत मैं भी जानता हूँ और वे भी जानते हैं कि मैं कुछ मामलों में उनसे बहुत नाराज़ रहता हूँ. मैंने अपनी नाराजगी कई बार, कई प्रकार से उन तक व्यक्त किया है. इसमें नंबर एक पर है उनकी पियक्कडपना. यशवंत बाबू को कहीं ना कहीं से पीने की बीमारी है. मुझे यह भी लगता है कि इस पर उनका नियंत्रण बहुत अधिक नहीं है. मैं ऐसा इसीलिए कह रहा हूँ क्योंकि उन्होंने मुझे भी कई बार बताया है कि अब वे पियक्कडपने से उबरने वाले हैं पर हर कुछ दिनों बाद वे फिर वही करतूत करते नज़र आते हैं जो पहले कर रहे थे- यानि बैठे-ठाले मदिरा पान. यदि यशवंत बाबू की जगह कोई अन्य सज्जन होते जो यह काम करते तो मैं इसे बुरा नहीं मानता क्योंकि वे आनंद के लिए पीते, कटुता के लिए पीते, कमीनेपन के लिए पीते. फिर उनके पीने से किसी को कोई नुकसान नहीं होता. पर यशवंत महाराज बेवकूफी के लिए पीते हैं, मूर्खता में पीते हैं, जिद में पीते हैं, दस लोगों में अपने को काबिल बनाने के चक्कर में पीते हैं. वे यह भी नहीं जानते कि वे कितने मेधावी हैं, उनमे कितनी क्षमता है. वे यह नहीं समझते कि उनके पियक्कडपने से एक मेधा पर हमेशा खतरों के बादल मंडराते रहते हैं. मैं यशवंत की लेखनी का मुरीद हूँ और मुझे जब भी ऐसा महसूस होता है कि ये बेवकूफ बिना सोचे-समझे अपनी असीम क्षमताओं को इस प्रकार जाया करने में लगा है तो मुझे अंदर तक कोफ़्त होती है, क्षोभ और गुस्सा भी.

मैं नहीं जानता मेरी बातों का उन पर कितना असर होगा पर यह जरूर जानता हूँ कि मेरी बातों को पढ़ और सुन कर कई सारे भले पियक्कड मुझ पर नाराज़ हो जायेंगे. मैं इन सारे अच्छे और भले पियक्कड़ों की नाराजगी खुशी-खुशी झेलने को तैयार हूँ, यदि वे मेरी बात मान कर अपनी आदतों में थोड़ी भी कमी कर सकें. इनमे यशवंत भी शामिल हैं.
लेखक अमिताभ ठाकुर यूपी कैडर के आईपीएस अफसर हैं और लखनऊ में पदस्थ हैं.
Sabhar- Bhadas4media.com