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प्रभाष जी से इतने खफा थे तो अब तक चुप क्यों रहे?




-देवेन्द्र सुरजन-

श्री जगमोहन फुटेला जी, श्री राजीव मित्तल और श्री शम्भू नाथ शुक्ल और एक अन्य पत्रकार जिन्होंने स्व. प्रभाष जोशी के चेलों को हिदायत दी है कि प्रभाष जी को भगवान का दर्जा ना दिए जाये. इन चौथे सज्जन का नाम मुझे याद नहीं आ रहा. बहरहाल, यह मानिए कि मैं आप चारों को नहीं जानता. आप किस अखबार से जुड़े हैं, आप प्रभाष जी के साथ काम किये हैं अथवा नहीं, इससे भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं एक बहुत छोटे से शहर जबलपुर से हूँ और अपने काम से बंधू-बांधवों की कृपा स्वरूप २०-२२ बरस पहले मुक्त हो चूका हूँ. वर्तमान में छोटी-मोटी टिप्पणी लिख कर अपना थोडा बहुत समय काट लेता हूँ. अधिकतर अख़बारों के ऑनलाइन एडिशन में ये टिप्पणियाँ यों ही प्रकाशित हो जाती हैं ,बिना किसी राग द्वेष के और बिना यह देखे कि लिखने वाला कौन है. तो मैं भी एक पाठक के नज़रिए से बुढाते दिमाग में से जो याद आ गया लिख लेता हूँ और बिना प्रकाशन का आग्रह किये उनके प्रकाशित होने का इंतज़ार कर लेता हूँ. इस तरह पढ़ना ,लिखना और लिखे का प्रकाशित हो जाने तक इंतज़ार करना ही मेरी दिनचर्या है.

पुष्प सवेरा किसी अखबार का नाम हो सकता है , मेरी कल्पना में नहीं था. यों, कार्तिक टाइम्स, दोस्त सावधान, डमडम डिगाडिगा जैसे टाईटिल वाले अखबार भी मैंने देखे हैं लेकिन मेरी आपत्ति सिर्फ इतनी है कि पेपर का नाम अटपटा हो तो वह पाठकों के बीच जमेगा कैसे. ताज़ी खबर यह है कि प्रकाशन शुरू होने के एक माह के अंदर ही यह अखबार न्यूनतम प्रतियों पर सिमट गया है. आपके लेख से यह आभास मिलता है कि यह किसी पुष्प ग्रुप का समाचार पत्र है. श्री राजीव मित्तल ने जोशी जी के खिलाफ काफी कुछ लिखा . मैं जोशी जी को भी व्यक्तिगत रूप से उसी तरह नहीं जानता जिस तरह आप चारों को. लेकिन उन्हें कई वर्षों तक पढ़ा है ,यह मैं फिर दोहरा रहा हूँ. उस पढ़ने से उनकी एक प्रसंशनीय छबि मेरे मन में बनी थी , वह टूटी , श्री राजीव मित्तल के दो लेखों से. उन्होंने जोशी जी के साथ काम किया था और उनके अवगुणों से परिचित थे इसलिए उनके उजले पक्ष को छोड़ नेगेटिव लिखना उन्हें बेहतर लगा. एक अन्य सज्जन श्री शम्भू नाथ शुक्ल ने उनके पत्रकारीय गुणों और भाषागत आग्रहों को अपने लेख का विषय बनाया. दोनों लेख एक-दूसरे के एकदम उलट. लेकिन इन लेखों से मुझे भी कुछ लिख देने की प्रेरणा मिली वह उक्त टिप्पणी के रूप में आपके सामने है. आपने शायद मेरे सुरजन उपनाम से कुछ ख्यातिलब्ध समझ लिया हो और देश के हर पत्र और पत्रकार को जानने वाला , तो वह आपका दोष है. श्री राजीव मित्तल और उनके पुष्प सवेरा पत्र और पत्र के मालिकों के दीगर कारोबार की ओर आपने जो इशारा किया है उसे जानने में मेरी कोई रूचि नहीं है . और आपका यह कयास एक दम गलत है कि पुष्प सवेरा के इतर इसके मालिकों के अन्य व्यवसायों की मुझे जानकारी है. चूंकि श्री मित्तल ने अपने लेखों में जोशी जी द्वारा स्थानीय संपादक तक ना चुन पाने से लेकर अन्यान्य पत्रकारीय और भाषाई शब्दों के प्रयोग को आलोचना का विषय बनाया था तो मुझे यह उपयुक्त लगा कि जो संपादक यह सब आरोप लगा रहा है उसके अपने अखबार का तो नाम ही ऐसा विचित्र है कि वह समाचार पत्र होने का बोध ही नहीं कराता. बात कुल इतनी है और बिना राग द्वेष की है.

आप तीन के अलावा एक चौथे सज्जन ने श्री शम्भुनाथ शुक्ल के लेख और मेरी टिप्पणी को जोशी जी के भक्तों या चेलों की श्रेणी में खड़ा कर दिया और हिदायत दी कि इतनी भी उनकी तारीफ़ ना की जाए कि लोग उन्हें भगवान मान लें. बड़ी विचित्र और बैचैन मनस्थित में उनहोंने अपना लेख हस्तक्षेप में पोस्ट किया है. उनकी जोशी जी से ना केवल मुलाकातें होती थी बल्कि पत्र व्यवहार भी चलता था. उनकी जोशी जी से करीबी भी बहुत थी और वे जोशी जी की लानत-मलामत भी मौका पड़ने पर कर दिया करते थे. निश्चित ही वे जोशी जी के प्रति पूर्वाग्रह और दुराग्रह दोनों रखते हैं. उनके लेख के नीचे किन्ही अनुपम जी ने बहुत सटीक उत्तर दिया है और मैं उस उत्तर के साथ अपने को भी संबद्ध कर रहा हूँ. उनके मन में मुसलमानों और बाबरी मस्जिद से जुड़े प्रसंगों को लेकर जोशी जी से कुछ खटास हो गई प्रतीत होती है लेकिन दो सामान्य से लेखों को वे झेल ना पायें तो मानना पड़ेगा कि खटास ने एसिडिटी का रूप ले लिया है.

फुटेला जी से भी मैं परिचित नहीं हूँ. वे भी मुझसे परिचित नहीं हैं फिर भी कुछ सीमा का उन्होंने उल्लंघन, दोस्त और मित्र जैसे शब्दों के इस्तेमाल से किया है. अगर मेरे नाम या उपनाम तक ही सीमित रहते तो उचित होता. कभी जब हमारी मुलाक़ात हो जाए और लगे कि आपको मित्र बनाने में हर्ज नहीं है तो पहले आपसे अनुमति लेकर ही आपको दोस्त या मित्र से संबोधित करूँगा और उसके पहले आपकी उम्र जरूर जान लूँगा.

जोशी जी को मैं व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता था ,उनको पढ कर जो बन सका लिख दिया. उसके अतिरिक्त मेरे पास कुछ नहीं है जिससे उनका महिमा मंडन कर सकूं. उनके बाबरी मस्जिद के बाद लिखे लेखों को ‘हिन्दू होने का अर्थ ‘ या एसे ही मिलते-जुलते नाम से संग्रह प्रकाशित किया गया है. उसे मैंने देखा है, वह मेरे पास है भी और इसीलिए यह मानता हूँ कि वे साम्प्रदायिक सद्भाव के पैरोकार थे. चौथे सज्जन इस बात पर मुझसे इत्तफाक रखे या ना रखे , यह उन पर निर्भर है. लेकिन यह मैं उनसे जरूर पूछना चाहूँगा कि यदि प्रभाष जी से इतनी ही कलुषता थी तो कड़वाहट भरे लेख को लिखने के लिए इतना इंतज़ार क्यों किया भाई.

चौथे लेखक जिनका नाम विस्मृत हो रहा था वे हैं श्री कुरबान अली , वे वरिष्ठ पत्रकार हैं.



देवेन्द्र सुरजन, लेखक प्रतिष्ठित "देशबंधु" अखबार समूह के पूर्व निदेशक हैं
Sabhar- Journalistcommunity.com