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ये पत्रकारिता है अथवा नौकरी?

मनोज कुमार

अभी अभी एक साथी से मुलाकात हुई. जाहिर सी बात है कि एक पत्रकार साथी से मुलाकात होगी तो बात भी इसी के इर्द-गिर्द रहेगी. यह वह साथी है जब वह अपने शुरूआती दिनों में पत्रकारिता को लेकर बड़ा जज्बाती था. उसे उम्मीद थी कि वह अपनी कोशिशों से समाज को बदल डालेगा लेकिन आज वह निराश है. उसे समझ में नहीं आ रहा है कि जिस समाज को बदलने के लिये वह आया था, आज वह खुद बदल गया है. पत्रकार से वह एक मामूली कर्मचारी बन गया है. अपने तीन दशक की पत्रकारिता में वह यायावर बन कर रह गया है. कभी उसकी काबिलियत का लाभ लेने की बात कह कर उसे अपने शहर से दूर भेज दिया जाता रहा है तो कभी सजा के तौर पर. वह यह बात समझने में अपने आपको नाकामयाब समझ रहा है कि आखिर वह पत्रकारिता कर रहा है अथवा नौकरी. यह सवाल इस समय पत्रकारिता के समक्ष यक्ष प्रश्र के तौर पर मौजूद है. हर पत्रकार इस परेशानी से जूझ रहा है. उन्हें यह समझ ही नहीं आ रहा है कि वे पत्रकारिता कर रहे हैं अथवा नौकरी. इस सवाल पर मैं काफी दिनों से गौर कर रहा था क्योंकि पत्रकार के स्थानीय होने में ही पत्रकारिता का अस्तित्व होता है.

तकनीक के विस्तार के साथ ही मीडिया का विस्तार हो गया है. अखबार अब सिंगल एडीशन वाले अखबार नहीं रह गये हैं. अखबार अब मल्टीएडीशन वाले अखबार हो गये हैं. अखबारों के खरीददार भले ही न बढ़ रहे होंं लेकिन पाठकों की गिनती लाखों और करोड़ों में हो रही है. सम्पादक मैनेजर बन गया है और अखबार वस्तु. हालांकि ये सारी बातें बार बार और इतनी बार हो चुकी हैं कि अब इस पर बात करना बेमानी सा है किन्तु इस विस्तार से कुछ नया संकट पैदा किया है जिस पर बात करना बेमानी नहीं है. सामयिक है और समय की जरूरत भी. इस विस्तार से उत्पन्न संकट को नजरअंदाज करने का अर्थ एक और नये संकट को जन्म देना है.

पत्रकारिता अथवा नौकरी, इसे इसलिये मुद्दा बनाकर उठा रहे हैं क्योंकि तकनीक के विस्तार के साथ साथ अखबार मल्टीएडीशन वाले हो गये हैं और इसी के साथ शुरू हो चुकी है पत्रकारिता की समाप्ति का दौर. सम्पादक पद के गुम हो जाने का हल्ला तो खूब मचा किन्तु पत्रकार के गुम हो जाने की भी खबर गुमनाम सी है. पत्रकारिता के स्तर के गिरावट को लेकर चिंता होती है, चर्चा होती है और आलोचना पर आकर बात खत्म हो जाती है किन्तु पत्रकार खत्म हो रहे हैं, इस पर न तो चिंता होती है, न चर्चा होती है और न आलोचना. पत्रकार को अखबारों के मल्टीएडीशन नेचर ने नौकर बना कर रख दिया है. प्रबंधन जब जिस पत्रकार से रूठा या उसकी मर्जी के मुताबिक काम नहीं किया, पत्रकारिता करने का दुस्साहस किया तो तत्काल उसकी बदली किसी ऐसे शहर के संस्करण में कर दिया जाता है जहां उसका अपना कोई नहीं होता है. वेतन वही, सुविधाएं नहीं और एक पत्रकार पर अपने घर और अपने स्टेबलिसमेंट का दोहरा दबाव. एक तरह से यह सजा होती है प्रबंधन की नाफरमानी का. अक्सर मीडिया के बेवसाइटों पर प्रकाशित-प्रसारित होने वाली खबरों में पढऩे को मिलता है कि अपनी बदली से परेशान पत्रकार ने नौकरी छोड़ दी. यह अदला-बदली का खेल अखबारी दुनिया का नया शगल है. प्रबंधन के प्रताडऩा का यह औजार है. प्रताडऩा का यह औजार बीते एक दशक में और भी धारदार हुआ है. कभी दंड के रूप में तो कभी पदोन्नति का लालसा देकर पत्रकारों को इधर-उधर किया जाता है. पत्रकारिता में प्रबंधन का यह नया सलूक बेहद घातक है. न केवल पत्रकारिता एवं पत्रकारों के लिये बल्कि स्वयं अखबार के लिये भी. अस्सी के दशक में जब मैंने पत्रकारिता आरंभ किया था तब अखबार मल्टीएडीशन नहीं हुआ करते थे. जाहिर सी बात है जब अखबार मल्टीएडीशन होते ही नहीं थे तो अदला-बदली का कोई खेल भी नहीं चलता था. जीवन बसर करने लायक वेतन में ही गुजारा हो जाता था. पत्रकार को न तो किसी तरह का ऐसा तनाव दिया जाता था और न ही उसकी एक्सपटराइज में कोई कमी आती थी, उल्टे अखबार का दबदबा पूरे प्रसार क्षेत्र में होता था.

नब्बे के दशक आते आते अखबार मल्टीएडीशन होने लगे और दो हजार दस तक तो ऐसा हो गया कि जिस अखबार का मल्टीएडीशन नहीं होगा, वह बड़ा अखबार ही नहीं कहलायेगा. पहले राज्य से राज्य, फिर जिलेवार और तो तहसीलस्तर पर भी अखबारों के संस्करण छपने लगे हैं. अखबार तो बड़े हो गये लेकिन उनका प्रभाव कम होता गया, यह कडुवी सच्चाई है. इस न मानने का अर्थ होगा सच से मुंह चुराना. बहरहाल, प्रबंधन की मनमानी अब बढ़ती जा रही है. पत्रकारों की अदला-बदली के इस खेल में सर्वाधिक नुकसान अखबार को उठाना पड़ रहा है. अपने विषय के एक्सपर्ट की बदली कर दी जाती है, इस बदली के साथ ही उसके खबरों के स्रोत बिखर जाते हैं. पत्रकारिता की यह विशिष्टता होती है कि पत्रकार के साथ ही उसके खबरों के स्रोत टूट जाते हैं अथवा खत्म हो जाते हैं. जो लोग जमीनी पत्रकारिता कर रहे हैं, उन्हें यह बात मालूम है कि एक स्रोत बनाने में उन्हें कितना समय और मेहनत लगता है किन्तु प्रबंधन को इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता है.

पत्रकारों की बदली के पीछे एक तरह से बदले की भावना निहित होती है. यह भावना कई बार व्यक्तिगत भी होती है न कि संस्थान के हित में. पेडन्यूज में भले ही श्रीवृद्धि हो किन्तु पत्रकारों के बारे में यह बात जब प्रबंधन के दिमाग में बिठा दी जाती है कि अमुक पत्रकार स्थापित हो गया है अर्थात वह अपने स्रोत से आर्थिक लाभ पाने लगा है तो प्रबंधन उसे विदा करने में कतई देर नहीं करता है. ज्यादतर ऐसी खबरें गढ़ी हुई और भ्रामक होती है क्योंकि किसी से आर्थिक लाभ पाना आसान नहीं होता है. एक दूसरा कारण अखबार को लाभ पहुंचाने वाले तंत्र को लग जाये कि फलां पत्रकार उनकी पोल खोल में लग गया है तो उसकी शिकायत बल्कि दबाव बनाया जाता है कि उक्त पत्रकार को हटा दिया जाए. प्रबंधन इस बात की जांच किये बिना कि शिकायतकर्ता का दबाव या शिकायत सही है या नहीं, अपने हित में पत्रकार की बदली कर दी जाती है.

पत्रकारों की एक स्थान से दूसरे स्थान बदली किये जाने की यह व्यवस्था स्थायी होती जा रही है जिससे पत्रकारों में कुंठा का भाव आ रहा है. एक पत्रकार का स्थानीय और स्थायी होना उसके लिये और अखबार, दोनों के लिये हमेशा से फायदेमंद रहा है. खबरों को तलाशने, जांचने और उसकी सत्यता को परखने के लिये स्थानीय परिस्थितियों की समझ स्थानीय पत्रकार को हो सकती है. इस बात से परे जाकर यह कहा जाता है कि पत्रकार कहीं भी हो, खबर सूंघने, जांचने और लिखने का माद्दा हो तो वह कहीं भी काम कर सकता है. यह बात भी सच है किन्तु बदलते समय में यह संभव नहीं है. खासतौर पर तब जब स्थानीय राजनीति बेहद कठिन हो चली हो. मुझे तो बहुसंस्करणीय अखबारों के दौर में मेरे अपने मध्यप्रदेश के दो अखबार नईदुनिया और देशबन्धु का स्मरण हो आता है जो एक ही संस्करण निकाल कर पूरे देश में अपने होने का आभाष करा देते थे. यह बात सबको पता है कि इंदौर से निकलने वाले नईदुनिया का इंतजार देश की राजधानी दिल्ली में भी हुआ करता था. एक सिंगल एडीशन अखबार की प्रसार संख्या अनुमानित लाख प्रतियोंं के आसपास थी. देशबन्धु का हाल भी कुछ ऐसा ही था. हालांकि देशबन्धु ने बाद में मध्यप्रदेश के अनेक स्थानों से संस्करणों का प्रकाशन किया किन्तु दोनों ही अखबार स्कूल ऑफ जर्नलिज्म कहलाते थे. आज ऐसे अखबारों की कल्पना करना भी बेमानी है.

बहरहाल, मीडिया के विस्तार से उत्पन्न संकट का सवाल एकबारगी फिजूल का सवाल लग सकता है किन्तु इस पर नजदीक से सोचेंगे तो लगेगा कि यह सवाल फालूत नहीं बल्कि एक ऐसा सवाल है जिस पर समूची पत्रकार बिरादरी को सोचना होगा. यह सवाल तेरा, मेरा नहीं बल्कि हम सबका है. सवाल पर आते हैं. सवाल यह है कि हम पत्रकारिता कर रहे हैं अथवा नौकरी, इस पर पहले बात होना चाहिए. नौकरी करने वाले पत्रकार, जिन्हें अब मीडियाकर्मी कहा जाने लगा है, उनसे क्षमा चाहेंगे क्योंकि यह सवाल उनके लिये नहीं है. यह सवाल सौ टके की पत्रकारिता करने वालों के लिये है क्योंकि पत्रकारिता नौकरी नहीं होती है. पत्रकारिता एक जुनून है. एक जज्बा है समाज में परिवर्तन लाने का. कोई नौकरी जुनून नहीं हो सकती, जज्बे का तो सवाल ही नहीं है. ऐसे में तय यह करना होगा कि हम पत्रकारिता कर रहे हैं अथवा नौकरी? जिस दिन हम यह बात तय कर लेंगे कि हम क्या कर रहे हैं, सवाल का हल मिल जाएगा.


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