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गद्दारी की मिसाल है केजरीवाल


जगमोहन फुटेला


अरविंद केजरीवाल की स्वस्थ आलोचना के लिए भी अपनी राय रखने
 वालों को गरियाने वाले रमेश सिंहों और राजा हिंदुस्तानियों से एक अनुरोध करने का मन हो रहा है. लोगों के लिखे पे बहुत कमेंट किये उन्होंने वेबसाइटों पर. ताने दिए. गालियां भी निकालीं. पता लगा लिखना तो उन्हें आता है. तर्क नहीं, कुतर्क ही सही. आन्दोलन को राजनीतिक शक्ल दे के आत्महत्या की और कूच की मेरी राय पे ही मुझे कांग्रेसी पिट्ठू होने का फ़तवा दे दिया था उन्होंने. तब मैंने उन्हें उन के हाल पे छोड़ दिया था. मगर आज मैं चाहता हूँ वे लिखें और मैं कमेंट करूं. बताएं अन्ना और असलियत दोनों से दूर केजरीवाल आज कहाँ हैं? क्या भविष्य देखते हैं वे उनका इस देश की राजनीति में?

राजनीति, जो बच्चों का खेल नहीं है. नहीं देती किस्मत तो फिर किसी का साथ नहीं देती. कांग्रेस का ट्रंप कार्ड खुद उस की यूपी में नहीं चलता. मोदी को खुद उन की भाजपा भाव नहीं देती गुजरात के बाहर. जगन रेड्डी मुख्यमंत्री होते होते जेल चला जाता है. कभी बिहार का पर्याय रहे लालू मुद्दत से पानी भर रहे हैं. गैर राजनीतिज्ञों की भी बात करें तो (स्वामी) बालकृष्ण के अन्दर जाने पे कहीं कोई धरना प्रदर्शन तक नहीं होता और अब छापे पड़ रहे हैं बाबा रामदेव के उत्पादनों पे तो कोई बोलने वाला नहीं है. केस उन पे भी दर्ज होगा तो अधिकांश लोग उसे उन की नियति मान लेंगे.

इस की एक बड़ी और स्वाभाविक वजह है. दोगलापन बर्दाश्त नहीं है जनता को. ओमपुरी जैसे अभिनेता के अच्छे अभिनय के लिए 'अर्धसत्य' आप आज भी दस बार देख लोगे या 'तमस'. लेकिन उनका अन्ना के मंच पे दारु पी के बहकना आज भी अखरता है सब को. अरविंद को भी राजनीति ही करनी थी तो वही कर लेनी थी. और दरअसल कर रहे ही थे वे. पूछो जा के हिसार के लोगों से. सब कहते हैं कि वे वहां कांग्रेस विरोधी एक पार्टी से मोटे पैसे लेकर गए थे. उन के लिए सुरक्षा से लेकर मंचों, भीड़ तक की व्यवस्था भी उस पार्टी ने की थी. मैंने तब भी लिखा था कि साधू हो तो शराबखाने में नहीं जाना चाहिए. और भाईसाहब ये वही खून लगा है मुंह पर कि आज अन्ना भी आप को अच्छे नहीं लग रहे. अन्ना के आन्दोलन से आशातीत सफलता मिलने में दस साल भी लग सकते हैं. लेकिन राजनीति में कहीं आप एकाध फीसदी वोटों का भी फर्क डाल सको तो आप के लिए बीस तीस करोड़ की जिम्मेवारी तो मैं ही लेने के लिए तैयार हूँ...मुझे तो लगता है साड़ी योजना और कोशिश ही ये है.

थोडा प्रैक्टिकली भी देख लें. आप बिपाशा बासु भी हों तो लोग देखने तो आ जाएंगे आप को. लेकिन वोट नहीं देंगे. अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना भी अपने अभिनय नहीं कांग्रेस के नेटवर्क से जीते थे. और नेटवर्क कमज़ोर होता है तो सितारे हारे भी हैं. आप तो वो भी नहीं हैं. गली, कूचे, गाँव, कसबे और जिला स्तर पर कहीं आपका कोई वजूद नहीं है. आज अगर पोस्टर भेज दो हिंदुस्तान के 99 प्रतिशत गाँव कस्बों में कोई चिपकाने वाला नहीं मिलेगा. आप कहते हो कि आप संसद का स्वरुप और स्वभाव बदल दोगे?

आप या तो मूर्ख हो अरविंद भाई, या बना रहे हो. किस को समझा रहे हो कि आप बिना पैसे के पार्टी बना के उसे चुनाव लड़ाओगे. वो भी पूरे देश में. क्या कोई गठबंधन करोगे कहीं के साथ? जो आज इस देश की दो सब से बड़ी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा की भी मजबूरी है. या खुद अपने दम पे लड़ के देश के प्रधानमंत्री हो जाने वाले हो? ज़मीन के धरातल पे उतर आओ अरविंद भाई. अपनी पे उतर आयें तो ये हिंदुस्तानी बहुत बुरे भी हैं. अपनी पे ये आए हैं तो इन्होने हिंदुस्तान को बंगलादेश बना के देने वाली इंदिरा गांधी को भी पानी पिला दिया है और इस देश के सब से बड़े आंदोलनकर्ता जेपी को भी इस देश की ज़ालिम व्यवस्था ने चंडीगढ़ के एक बड़े अस्पताल में मौत की नींद सुला दिया था. ये बायगैमी मत करो. राजनीति करनी है तो करो. मगर ये दोगलापन मत करो. अब अन्ना का नाम बदनाम न करो. बल्कि माफ़ी मांगों देश से कि अन्ना के साथ आप नहीं थे, आपका भेड़िया था.

बल्कि मेरी राय में इमानदार तो आप अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा और पार्टी के बारे में भी नहीं थे. लगता है जैसे कहीं से फंडिंग होनी थी. मगर हुई नहीं. इमानदार ही जो होते आप तो पार्टी का रजिस्ट्रेशन भी बहुत पहले हो जाना चाहिए था. पार्टी का नाम इसी लिए आप नहीं एनाउंस कर पाए हैं खुद अपने द्वारा बहुत पहले से निर्धारित दो अक्टूबर को कि आप वो एक नाम भी रजिस्टर्ड नहीं करा पाए. और वो होना भी नहीं. दिल को, दुनिया को जितने भी खुश कर लें आप. मगर सच्चाई ये है कि कोई बहुत इमानदार आप अपनी इस कोशिश में भी नही थे. जैसे इंतज़ार में थे कि कोई रोके तो रुक जाएं. चलाये तो चल पड़ें जिधर वो कहे. अब चलें चाहें आप खुद या कोई चलाये आपको. इतना तो हमीं बताए देते हैं कि पार्टी 
तो रजिस्ट्रर्ड नहीं होगी आप के नाम से. न कोई एक चुनाव चिन्ह ही मिलेगा आप को हर उम्मीदवार के लिए. राष्ट्रीय पार्टी के रूप में पंजीकरण प्राप्त होने के लिए आपको कम से कम कितने राज्यों में कम से कम कितने प्रतिशत वोट चाहिए ये भी एक मापदंड है. ये देखना सचमुच बड़ा दिलचस्प होगा कि जिसने कभी गली मोहल्ले की राजनीति नहीं की वो देश की राजनीति कैसे करेगा और कौन आएगा उस के नाम पे चुनाव लड़ने जिस की खुद की कोई पहचान नहीं है. सिवाय इसके कि इस आदमी ने अन्ना की पीठ में छुरा घोंपा था.

चलो अच्छा ही हुआ कि दिल टूट गया. उम्मीद करनी चाहिए कि अन्ना अब आप जैसे भेडियों से मुक्त हो के इस देश की करोड़ों करोड़ जनता की उम्मीदों पे खरे उतर पाएंगे. आप का राजनीति में जो होने वाला है वो दिख ही रहा है. लेकिन आप के बिना अन्ना अब कहाँ तक पंहुचते है, आप देखना. ये साबित होने ही वाला है कि जब इस देश को अन्ना जैसे एक विशुद्ध राजनीतिक आंदोलन की ज़रूरत थी, आप ने उस के साथ धोखा किया.