विनोद कापड़ी
विनोद कापड़ी
पत्रकारिता के मेरे ‘मामा’ चल बसे ...बरेली में ज्ञान प्रेस चलाने वाले मेरे परम , पूज्यनीय मामा जी दिलीप सिंह नहीं रहे | वो दिलीप सिंह जिन्होंने एक 19 साल के लड़के पर दांव लगा दिया | कल उनके निधन की खब़र मिली | तब से यही सोच रहा हूं कि वो नहीं होते तो शायद मैं कुछ नहीं होता | साल वो था 1990 | 18-19 साल की उम्र | बीए का पहला साल | अमर- उजाला, दैनिक जागरण, ट्रिब्यून, दैनिक हिन्दुस्तान में लेख कहानियां छपने का जोश सातवें आसमान पर था | उन दिनों आर्थिक सुधारों पर बहुत बात हो रही थी | सोचा क्यों ना आर्थिक विषयों पर एक मासिक पत्रिका शुरू की जाए| कई सारे नाम सोचे, दिल्ली आरएनआई के दफ्तर भागा | आरएनआई से पत्रिका को नाम मिला- “इंडियन इकोनो पत्रिका” | ट्यूशन पढ़ा-पढ़ा कर दो तीन हज़ार रूपए बचा लिए थे कुछ दोस्तों से 7-8 सौ रूपए और मिले | बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि इतने पैसों में कोई पत्रिका निकल सकती है| लेकिन बस जुनून था कि पत्रिका निकालनी है | बीएसए मैक वन साइकिल पर बरेली की तमाम प्रेसों के चक्कर काटने लगा | दो-तीन प्रेस के चक्कर लगाने के बाद ही समझ आ गया कि जितने पैसे मेरे पास हैं- उसमें छपाई तो दूर की बात कागज़ भी नहीं खरीदा जा सकता था | बहुत अनुनय विनय की वजह से प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक और उन जैसे बडे़ अर्थशात्रियों के लेख पत्रिका के लिए आ चुके थे| पत्रिका का पूरा खाका तैयार हो चुका था| पत्रिका का छपना और शुरू होना ज़रूरी था| लेकिन कहां से आए पैसा ? प्रिन्टर प्रेसों के चक्कर लगाते-लगाते 1990 की सर्द दुपहरी में मैं पहुंचा बरेली की काली बाड़ी में ज्ञान प्रेस में| साइकिल से उतरकर जैसे ही अंदर दाखिल हुआ एक रौबदार और दबंग दिखने वाले व्यक्ति को सामने पाया| ‘कहिए’ अपनी आवाज़ को भारी बनाते हुए वो बोले| मैंने उनके सामने अपनी बात रखी| अपनी ‘इंडियन इकोनो पत्रिका’ की पूरी अवधारणा समझाई| पूरी बात सुनने के बाद वो बोले ठीक है छाप देंगे | 10,000 रूपए का खर्च आएगा | फिर वही बात | मन ही मन सोचा 10,000 रुपए में तो बाकि लोग भी छापने को तैयार हैं | आप कौन सी नई बात कह रहे हैं ? पर न जाने क्यों 10-15 मिनट में ही उनके व्यक्तित्व का कुछ ऐसा जादू था कि मैंने बेकाकी से कह दिया कि इतने पैसे नहीं हैं | पैसे हैं सिर्फ 3 हज़ार रूपए| संभव है कि दूसरे अंक से कुछ विज्ञापन मिलने शुरू हो जाएं तो आपकी बची हुई पेमेंट कर दी जाएगी |
पता नहीं उन्होंने मुझमें क्या देखा और मेरी बातों को क्या समझा- वो अगले ही पल बोले- ठीक है | तुम अपनी मैगज़ीन छापने की तैयारी शुरू करो| यह सुनकर मैं हैरान था| पर जो कुछ उन्होंने कहा वो एकदम सच था | ‘इंडियन इकोनो पत्रिका’ ज्ञान प्रेस बरेली से छपने लगी | संपादक था बीए के पहले साल पढ़ने वाला विनोद कापड़ी ‘शांत’| तब मैं इसी नाम से कहानियां और लेख लिखता था | बहुत ही कम पैसे पर ज्ञान प्रेस के दिलीप सिंह जी ‘इंडियन इकोनो पत्रिका’ को छापने लगे | ज्ञान प्रेस दिलीप सिंह जी की थी लेकिन उन्होंने अपनी इस प्रेस को चलाने की जिम्मेदारी नरेंद्र सिंह को दी हुई थी | नरेंद्र सिंह उन्हें मामा कहते थे | लिहाज़ा कुछ दिनों बाद वो मेरे भी मामा हो गए और 23साल तक मामा ही रहे | चार अंक निकालने के बाद मुझे वो पत्रिका बंद करनी पड़ी क्योंकि पत्रिका को चलाने के लिए पैसों का इंतज़ाम सच में मुश्किल हो गया था और मैं नहीं चाहता था कि मैं ‘मामा जी’ पर और बोझ बनूं |‘मामा जी’ ने बहुत कहा कि तुम चलाते रहो | मैं छपाई का एक भी पैसा नहीं लूंगा | लेकिन मेरे पास कागज़ खरीदने लायक पैसे भी नहीं बचे थे | बरेली के तमाम कॉलेजों के टीचर, प्रोफेसर, यार- दोस्त पत्रिका की तारीफ तो बहुत करते थे | पत्रिका अपने पास रख भी लेते थे लेकिन 10 रूपए का मूल्य (शायद कीमत 10 रूपए ही रखी थी) नहीं चुकाते थे | मैगज़ीन बंद हो गई लेकिन मामा जी के उपकार की वजह से मुझे संपादक बना गई |
परसों जब उनके भांजे और अब मेरे घनिष्ठ मित्र नरेंद्र सिंह का फोन आया कि मामा जी नहीं रहे तो ऐसा लगा कि मेरे शरीर…मेरी आत्मा का एक अहम हिस्सा चला गया | 1 अगस्त को बरेली में मामा जी का दसवां रखा गया है | बरेली जाउंगा और मामा जी को एक बार फिर कहूंगा- THANK YOU MAMA JI…
नोट- ये संस्मरण लिखने की प्रेरणा मुझे Ajit Anjum के संस्मरणों से मिली |
विनोद कापड़ी 'इंडिया टीवी' के मनेजिंग एडिटर हैं.
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