30 मई यानी हिन्दी पत्रकारिता दिवस। देश के कई शहरों में पत्रकारों ने इस दिन को जश्न की तरह मनाया। दिन भर हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास-भूगोल पर एक से बढ़कर एक लेख इंटरनेट पर दौड़ते रहे, पत्रकारिता संस्थान में परिचर्चाओं का विषय बने। लेकिन जब मैंने कलम उठाई, तो इतिहास भूल गया और भूगोल का पता नहीं। पहले सोचा कि क्या मुझे यह टिप्पणी करने का अधिकार है? दिल ने कहा हां, जरूर, क्योंकि मैंने अपने जीवन के अमूल्य 11 वर्ष हिन्दी पत्रकारिता को दिये।
फिर दिल से जो निकला वो मैंने लिख दिया, दिमाग का इस्तेमाल बहुत कम किया, क्योंकि सच्चाई हमेशा दिल से निकलती है, दिमाग तो उसे कनफर्म करता है। 11 साल पीछे जाऊं तो मुझे आज भी याद है, जब मैं अखबार के दफ्तर के चक्कर लगाता था, कि मेरा लेख समाचार पत्र में छप जाये। मैं ही नहीं, पत्रकारिता के छात्रों के लेखों का अंबार लगा रहता था। आज आलम यह है कि पत्रकारिता के छात्र लिखना ही नहीं चाहते हैं, जबकि अखबार में अगर जगह नहीं है, तो वेबसाइट उनका स्वागत जरूर करती हैं।
बात चाहत की आयी है, तो इस समय मीडिया संस्थानों की चाहत सिर्फ आगे बढ़ने की है। हिन्दी न्यूज चैनलों के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करूंगा, क्योंकि मैंने हमेशा दूर से देखा, प्रिंट पर भी नहीं, क्योंकि 5 साल हो गया उसे छोड़े हुए। इंटरनेट और प्रिंट को। 2002 से 2013 के इस छोटे सफर में मैंने कुछ अखबारों को बंद होते और सैंकड़ों वेबसाइटों को खुलते हुए देखा और यहीं पर आकर हिन्दी पत्रकारिता टॉपलेस हो गई।
चूंकि न्यूज पेपर घर के लॉन, ड्रॉइंग रूम, डाइनिंग रूम और बेडरूम से होते हुए स्टोर रूम तक जाता है, लेकिन न्यूज सिर्फ पीसी यानी पर्सनल कंप्यूटर पर खुलती है, और पर्सनल होने के कारण ही आम जनता इस टॉपलेस पत्रकारिता का लुत्फ मजा लेकर उठाते हैं।
यहां पर टॉप लेस के चार प्रकार हैं
1. टॉप-लेस तस्वीरें- हिन्दी पत्रकारिता में एक भी ऐसी न्यूज वेबसाइट नहीं है, जो बिकनी फोटो के बगैर फलफूल रही हों। यानी टॉप जितना नीचे आयेगा, हिट्स उतने ज्यादा मिलेंगे। मेरा तात्पर्य अश्लीलता से है। यही कारण है कि बड़े-बड़े बैनरों का स्तर चोटि से गिरकर खाई में चला गया। जो वेबसाइट अपनी शालीनता बरकरार रखने के प्रयास करती हैं, वो दौड़ में पीछे रह जाती हैं और यहां पर 'टॉप' का तात्पर्य उसी टॉप से हैं, जो लड़कियां पहनती हैं।
2. टॉप-लेस भाषा- यहां टॉप से तात्पर्य है 'शीर्ष स्तर की भाषा' से। इसके लिये मैं 11 साल पीछे ले जाना चाहूंगा, जब अखबार के दफ्तर में एक स्ट्रिंगर की कॉपी पर डेस्क की डांट खानी पड़ती थी। कॉपियां फांड़ कर फेंक दी जाती थी। उसी डांट को खा-खाकर एक स्ट्रिंगर अच्छा लेखक बनता था। आज अगर इंटरनेट पत्रकारिता की बात करें तो यहां किसी के पास आपकी कॉपी चेक करने का समय नहीं। जो लिख दिया अच्छा है। वर्तमान समय में कोई भी पत्रकार अब अर्जुन नहीं बन सकता। हां एक्लव्य जरूर बन सकता है, लेकिन उसके लिये आपको किसी एक को अपना गुरु द्रोण बनाना होगा और खुद मेहनत करनी होगी, अन्यथा आगे की राहें कठिन हो जायेंगी और आप भी टॉपलेस भाषा में उलझ कर रह जायेंगे।
3. टॉप-लेस रीडर- मैं देखता हूं, अंग्रेजी में अगर आप किसी गंभीर विषय पर कोई लेख लिख दें, तो उस पर हजारों क्लिक्स पड़ने के साथ-साथ ढेर सारे शेयर मिलते हैं, लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में ऐसा नहीं है। हिन्दी की वेबसाइट पर विषय जितना गंभीर होगा, क्लिक्स उतनी ही कम पड़ेंगी। ऐसा नहीं है कि वेबसाइट्स के एडिटर कूटनीतिक, राजनीतिक या विकास परक शीर्षकों पर लेख नहीं लिखते। हर बड़ी वेबसाइट पर आपको अच्छे लेख मिलेंगे, लेकिन अफसोस यह कि आपके गंभीर व बड़े लेख पर एक छोटी सी टॉपलेस फोटो भारी पड़ जाती है। तब पता चलता है कि वाकई में हमारे रीडर भी टॉप-लेस हैं। यहां टॉप माने 'अच्छे' और लेस माने 'कम' हैं। यानी शीर्ष स्तर के पाठक कम हैं।
4. चौथा टॉप-लेस सर्च: यहां हम 'टॉप लेस' शब्द को सर्च किये जाने की बात नहीं करेंगे हम बात कर रहे हैं सर्च इंजन की। क्योंकि टॉप लेस पत्रकारिता के लिये सिर्फ वेबसाइट के संपादक और पाठक जिम्मेदार नहीं सर्च इंजन भी इसका बराबर से जिम्मेदार है। और अफसोस वह भी टॉपलेस है। सर्च इंजन का सिद्धांत कहता है, जिस लेख पर सबसे ज्यादा क्लिक पड़े ऊसे परिणाम स्वरूप सबसे ऊपर रखो। फिर उसकी भाषा चाहे कितनी ही भ्रष्ट क्यों न हो, लेख का स्तर चाहे कितना ही खराब हो, वो टॉप लेस आर्टिकल टॉप पर ही बना रहेगा। और एक आम आदमी उसी पर क्लिक करता है, जो उसे टॉप पर दिखता है। और टॉप-लेस सर्च इंजन में टॉप का मतलब 'दिमाग' है और लेस का मतलब 'नहीं' है।
कुल मिलाकर जरूरत सामूहिक प्रयास की है। अगर पाठक की मानसिकता नहीं बदली, तो संपादक की सोच नहीं बदलेगी, सोच नहीं बदली तो सर्च इंजन में परिवर्तन नहीं आयेगा और यह परिवर्तन नहीं आया तो पाठक की सोच भी टॉप-लेस (स्तरहीन) बनी रह जायेगी और इंटरनेट पर हिन्दी पत्रकारिता ऐसे ही हर रोज टॉप-लेस होती रहेगी।
बात चाहत की आयी है, तो इस समय मीडिया संस्थानों की चाहत सिर्फ आगे बढ़ने की है। हिन्दी न्यूज चैनलों के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करूंगा, क्योंकि मैंने हमेशा दूर से देखा, प्रिंट पर भी नहीं, क्योंकि 5 साल हो गया उसे छोड़े हुए। इंटरनेट और प्रिंट को। 2002 से 2013 के इस छोटे सफर में मैंने कुछ अखबारों को बंद होते और सैंकड़ों वेबसाइटों को खुलते हुए देखा और यहीं पर आकर हिन्दी पत्रकारिता टॉपलेस हो गई।
चूंकि न्यूज पेपर घर के लॉन, ड्रॉइंग रूम, डाइनिंग रूम और बेडरूम से होते हुए स्टोर रूम तक जाता है, लेकिन न्यूज सिर्फ पीसी यानी पर्सनल कंप्यूटर पर खुलती है, और पर्सनल होने के कारण ही आम जनता इस टॉपलेस पत्रकारिता का लुत्फ मजा लेकर उठाते हैं।
यहां पर टॉप लेस के चार प्रकार हैं
1. टॉप-लेस तस्वीरें- हिन्दी पत्रकारिता में एक भी ऐसी न्यूज वेबसाइट नहीं है, जो बिकनी फोटो के बगैर फलफूल रही हों। यानी टॉप जितना नीचे आयेगा, हिट्स उतने ज्यादा मिलेंगे। मेरा तात्पर्य अश्लीलता से है। यही कारण है कि बड़े-बड़े बैनरों का स्तर चोटि से गिरकर खाई में चला गया। जो वेबसाइट अपनी शालीनता बरकरार रखने के प्रयास करती हैं, वो दौड़ में पीछे रह जाती हैं और यहां पर 'टॉप' का तात्पर्य उसी टॉप से हैं, जो लड़कियां पहनती हैं।
2. टॉप-लेस भाषा- यहां टॉप से तात्पर्य है 'शीर्ष स्तर की भाषा' से। इसके लिये मैं 11 साल पीछे ले जाना चाहूंगा, जब अखबार के दफ्तर में एक स्ट्रिंगर की कॉपी पर डेस्क की डांट खानी पड़ती थी। कॉपियां फांड़ कर फेंक दी जाती थी। उसी डांट को खा-खाकर एक स्ट्रिंगर अच्छा लेखक बनता था। आज अगर इंटरनेट पत्रकारिता की बात करें तो यहां किसी के पास आपकी कॉपी चेक करने का समय नहीं। जो लिख दिया अच्छा है। वर्तमान समय में कोई भी पत्रकार अब अर्जुन नहीं बन सकता। हां एक्लव्य जरूर बन सकता है, लेकिन उसके लिये आपको किसी एक को अपना गुरु द्रोण बनाना होगा और खुद मेहनत करनी होगी, अन्यथा आगे की राहें कठिन हो जायेंगी और आप भी टॉपलेस भाषा में उलझ कर रह जायेंगे।
3. टॉप-लेस रीडर- मैं देखता हूं, अंग्रेजी में अगर आप किसी गंभीर विषय पर कोई लेख लिख दें, तो उस पर हजारों क्लिक्स पड़ने के साथ-साथ ढेर सारे शेयर मिलते हैं, लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में ऐसा नहीं है। हिन्दी की वेबसाइट पर विषय जितना गंभीर होगा, क्लिक्स उतनी ही कम पड़ेंगी। ऐसा नहीं है कि वेबसाइट्स के एडिटर कूटनीतिक, राजनीतिक या विकास परक शीर्षकों पर लेख नहीं लिखते। हर बड़ी वेबसाइट पर आपको अच्छे लेख मिलेंगे, लेकिन अफसोस यह कि आपके गंभीर व बड़े लेख पर एक छोटी सी टॉपलेस फोटो भारी पड़ जाती है। तब पता चलता है कि वाकई में हमारे रीडर भी टॉप-लेस हैं। यहां टॉप माने 'अच्छे' और लेस माने 'कम' हैं। यानी शीर्ष स्तर के पाठक कम हैं।
4. चौथा टॉप-लेस सर्च: यहां हम 'टॉप लेस' शब्द को सर्च किये जाने की बात नहीं करेंगे हम बात कर रहे हैं सर्च इंजन की। क्योंकि टॉप लेस पत्रकारिता के लिये सिर्फ वेबसाइट के संपादक और पाठक जिम्मेदार नहीं सर्च इंजन भी इसका बराबर से जिम्मेदार है। और अफसोस वह भी टॉपलेस है। सर्च इंजन का सिद्धांत कहता है, जिस लेख पर सबसे ज्यादा क्लिक पड़े ऊसे परिणाम स्वरूप सबसे ऊपर रखो। फिर उसकी भाषा चाहे कितनी ही भ्रष्ट क्यों न हो, लेख का स्तर चाहे कितना ही खराब हो, वो टॉप लेस आर्टिकल टॉप पर ही बना रहेगा। और एक आम आदमी उसी पर क्लिक करता है, जो उसे टॉप पर दिखता है। और टॉप-लेस सर्च इंजन में टॉप का मतलब 'दिमाग' है और लेस का मतलब 'नहीं' है।
कुल मिलाकर जरूरत सामूहिक प्रयास की है। अगर पाठक की मानसिकता नहीं बदली, तो संपादक की सोच नहीं बदलेगी, सोच नहीं बदली तो सर्च इंजन में परिवर्तन नहीं आयेगा और यह परिवर्तन नहीं आया तो पाठक की सोच भी टॉप-लेस (स्तरहीन) बनी रह जायेगी और इंटरनेट पर हिन्दी पत्रकारिता ऐसे ही हर रोज टॉप-लेस होती रहेगी।
लेखक अजय मोहन कई अखबारों में कार्य कर चुके हैं. उनका यह लिखा वनइंडिया वेबसाइट से साभार