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मंच पर जीवंत होता है विवाह संस्कार


परंपरा गीतो को फिर से पहचान देने का प्रयास

परंपराओ को सहेज के रखना कठिन जरुर है मगर उसके साथ जीना एक अलग अनुभूती का अहसास कराता है। परम्पराओं को सहेज कर रखना कठिन जरुर है मगर उसके साथ जीना एक अदभूत अहसास कराता है। 21 वीं सदी में जीने के साथ परम्परा को समेटने का दावा एक बार भले ही छलावा लगे मगर जब हम अपने को अपनी परम्परा के साथ पाते है तो उसका अहसास शब्दों में व्यक्त करना भी कठिन होता है। अपनी मिटटी की महक और परम्पराओं का अहसास व उनकी अभिव्यक्ति का मौका, समाहित फाउण्डेशन ट्रस्ट द्वारा आयोजित लोक गायिका प्रियंका त्रिपाठी की प्रस्तुति हमार परंपरा मे होता है। जिसमें प्रियंका त्रिपाठी की टीम द्वारा वैवाहिक गीतों पर आधारित संगीतमय शाम हमार परम्परा में श्रोंताओं को यह अहसास ही नहीं होने पाता कि वह किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम में महज मनोरंजन के लिए गये है। बल्की लगता है कि किसी विवाह मे शामील होने आये है। ढाई घण्टे की इस प्रस्तुति में हिन्दू विवाह पद्धति की पुरानी और अल्हड़ परम्परा को गीत नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। कार्यक्रम में विवाह में गाये जाने वाले शकुन नकटा व गारी व परम्परा के गाने खुद को किसी विवाह में शामिल होने का अहसास कराते है। कार्यक्रम में पहली प्रस्तुति में प्रियंका त्रिपाठी विवाह में मटकोड़वा की रस्म को गीतों के माध्यम से सजीव करती है जिसके वोल है.....
कहवा के पिअर माटी कहवां के कुदार हो, कहा के सात सुहागन माटी कोड़े जाली हो।

मटकोड़वा के बाद हल्दी,बरात,विदाई,द्वारपूजा व उसके दरम्यान महिलाओं की हंसी ठिठोली पर आधारित नकटा ने श्रोताओं को झूमने पर मजबूर कर देता है साथ ही लोग गीतों को खुद गुनगुनाते और कोरस करते नजर आते है।सबसे महत्वपुर्ण बात ये है कि इस मनोरंजक कार्यक्रम के बहाने हमारे नये पिढ़ी को ये भी पता चलता है कि क्या है हमारी परमंपरा जिसे आज के माहौल मे हम बिसारते जा रहे है।

जब कन्यादान के रस्म की वारी आती है तो प्रियंका के गीत.........
मड़वा ही कापेला कलषा ही बाबा,कापेला कुश पतवार हो..।
को सुनकर माहौल थोड़ा गमगीन हो उठता है और हरश्रोता के चेहरे पर अपनी बेटी के कन्यादान के समय का अहसास स्पष्ट झलकता है और अधिकांश महिलाओं के आँखों में पानी भी भर आना आम है। कन्यादान के बाद सिंदुर दान व बेटी संस्कार गीत न लोगों को खुब रुलाते है बल्की खुद को भाई व पिता बनकर इन रस्मो को निभाने अहसास कराते है।
इस आयोजन मे बिवाह का रस्म पुरा हो जाता है और बेटी की बिदाई से पहले जब पिता व माता बेटी को अपने ससुराल मे रहने के तौर तरिके समझाते है तो पुरा माहौल गमगीन हो जाता है, इस गाने के बोल है...........
बिटिया ससुरा में रहिया तू चांद बनके......।
और अंत में उस पल ये उपस्थित समुदाय में कोई ही ऐसा होता है जिसके आँसू रुकने के नाम ले रहे हो। मौका होता है कन्या की विदाई का दृश्य का और गाने का बोल होते है............
अब भीतरा से रोयेले मयरीया,अचरवन आँसू पोछेली.......।
जिसे गाते समय प्रियंका भी खुद अपने आँसूओं को रोक नहीं सकी। एक बारगी तो लगा की यह गाना पुरा करना मुश्किल ही है क्योंकि क्या गायिका क्या कलाकार क्या बजाने वाले और क्या श्रोता सभी के आँखों में आँसू होते है मगर बेटी के विदाई के साथ एक अदभूत अहसास के साथ हमार परम्परा का सुखद समापन होता है।
हमार परंपरा का आयोजन पहली बार 12 जून 2013 को गोरखपुर मे किया गया जिसके बाद इस शो को देश के तमाम भागो मे किया गया खास बात ये है कि सबसे ज्यादा शो गैर हिन्दी भाषी राज्यो मे किया गया।