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जिसकी तस्वीरें मुकेश अम्बानी और शाहरुख़ खान जैसों संग जगमगा रही हों, वह शख्स पैसे के अभाव में फांसी के फंदे से झूल गया!


एक था सोमू.... जिसकी तस्वीरें मुकेश अम्बानी, शाहरुख़ खान, आमिर खान जैसी नामी गिरामी हस्तियों और धनकुबेरों के साथ उसके फेसबुक प्रोफाइल पर जगमगा रही हों, वह शख्स पैसे के अभाव में गरीबी से घबरा के यूँ किसी असहाय और अनाथ शख्स की तरह फांसी के फंदे से झूल जाए तो भला कौन यक़ीन कर पायेगा। यही वजह है कि मुम्बई, दिल्ली और लखनऊ के बड़े बड़े अखबारों में बरसों तक वरिष्ठ पत्रकार और कॉलमिस्ट रह चुके बेहद हैंडसम, मिलनसार, जिंदादिल और सौम्य व्यवहार के सौमित सिंह की 40 बरस में उमर में ख़ुदकुशी से हुई मौत पर अभी भी उनके बहुत से मित्रों को यकीन नहीं हो पा रहा।
मगर त्रासदी यही है कि यही सच है। उसकी मौत के खबर आते ही सोशल मीडिया पर इस देश के छोटे बड़े अखबारों, टीवी चैनलों, वेब पोर्टल के पत्रकारों, संपादकों, फ़िल्मी और उद्योग जगत की कई हस्तियों ने दुःख जताना शुरू कर दिया। एक दो को छोड़कर हर किसी ने रस्मी तौर पर उसकी तारीफों के पुल बाँध दिए, उसकी मदद न कर पाने पर अफ़सोस जताया। एक बड़े अखबार से उसकी नौकरी छूटने के बाद से लेकर उसके मरने तक के पिछले महज दो ढाई साल के संघर्ष में उसके इतना अकेले पड़ जाने पर लोगों ने हैरानी भी जताई।
मगर मुझे कोई हैरानी नहीं है। क्योंकि मीडिया ने बहुतों की जान ऐसे ही ले ली है। मैं खुद मीडिया के इसी जानलेवा पेशे से अपनी जान छुड़ा कर 2011 में भाग चुका हूँ और इन दिनों अपने बिज़नस में जूझ रहा हूँ। सौमित, जिसे मैं अपनी क्लास 6th की उमर से सोमू के नाम से जानता हूँ, मेरा बचपन का बहुत करीबी दोस्त था। मगर हमारा साथ मेरे क्लास 12th पास करने के बाद बहुत कम रह गया था।
मैं पढाई और नौकरी के सिलसिले में जब इलाहाबाद से लेकर दिल्ली का सफ़र कर रहा था, तभी मुझे पता चला कि सोमू लखनऊ में पायनियर में पत्रकार हो गया था। मेरी गाहे बगाहे उससे बात मुलाक़ात हो जाती थी मगर नियमित संपर्क नहीं था। फिर मैं भी दुर्भाग्य से इसी पेशे में आ गया। दिल्ली में जैसे ही टाइम्स समूह से मैंने अपनी पत्रकारिता की शुरुआत की तो उसी समय प्रेस क्लब में हुई एक मुलाक़ात में मुझे पता चला कि सोमू भी अब दिल्ली में ही है। फिर कई बार मेरी उसकी मयकशी की देर रात की महफ़िलें जमीं, कभी दिल्ली के प्रैस क्लब में, कभी उसके नए ख़रीदे फ्लैट में तो कभी कभी लखनऊ में भी।
उसका वह चमकदार दौर था। वह बहुत खुश रहता था और जिंदादिली से जी रहा था। हालांकि 2007 आते आते तक खुद मेरा जी मीडिया से घबराने लगा था। ऐसा भी नहीं था कि मेरा कैरियर का ग्राफ गिर रहा था बल्कि उस दौर में तो वह बढ़ ही रहा था। टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह, हिंदुस्तान टाइम्स समूह से होते हुए बिज़नस स्टैण्डर्ड आते आते तक मेरी पोस्ट और सैलरी में काफी इजाफा हुआ भी था। फिर भी गुटबाजी, जातिवाद, क्षेत्रवाद, चमचागिरी, एक दूसरे के प्रति बर्बाद कर देने तक का द्वेष, भेदभाव और सबसे बड़ी बात नौकरी पर हमेशा लटकती तलवार के चलते मैं बहुत परेशान रहने लगा था। संपादकों और अपने बॉसेस के अहंकारी स्वाभाव और अपने सहकर्मियों में कौन दुश्मन है कौन दोस्त इसको लेकर बढ़ता दिन रात का तनाव चैन से जीने ही नहीं दे रहा था। फिर मैंने घबरा कर 2011 में मीडिया को अलविदा कह दिया। तब सोमू अपने जीवन के बेहतरीन दौर में था और बहुत संतुष्ट भी रहता था। मैं तो खैर वापस लखनऊ ही लौट आया, कुछ भी छोटा मोटा काम करके शान्ति से जिंदगी बिताने की चाह लिए।
उसी लखनऊ में जहां मेरी सोमू से तब मुलाक़ात हुई थी, जब मेरे पिताजी ने एक किराए का छोटा सा मकान लिया था और मेरा एडमिशन उन्होंने लखनऊ के उस समय में सबसे प्रतिष्ठित स्कूल महानगर बॉयज में क्लास 6th में कराया था। बहुत ही पॉश कॉलोनी में मेरे किराए के घर के सामने एक 10-15 हजार वर्गफीट में बनी आलीशान कोठी थी, जिसमे संयोग से अपना सोमू ही न सिर्फ रहता था बल्कि मेरे ही स्कूल में एक ही क्लास मगर अलग सेक्शन में पढता भी था। इसी वजह से हम दोनों बच्चों में गहरी दोस्ती भी हो गयी। मेरे पिता गाँव से पढ़कर निकले थे और लखनऊ में सरकारी विभाग में इंजीनियर थे। इसलिए मेरा परिवेश गांव और शहर का मिक्स था मगर सोमू एकदम अंग्रेजीदां और संपन्न घराने का बच्चा था।
वह कुछ ही समय पहले ढाका से आया था, जहां उसके नाना वर्ल्ड बैंक में थे। उसने अपना बचपन नाना नानी के यहाँ बिताया था फिर मेरे घर के सामने रहने वाले अपने मामा मामी के विशाल घर में आ गया था। उसके मामा बहुत पैसे वाले थे। विदेशी कार और सोमू के बर्थडे की भव्य पार्टियों समेत उनके रहन सहन से तो मुझे यही लगता था। सोमू के माता पिता कौन थे, क्या थे और वह क्यों शुरू से अपने नाना नानी और मामा मामी के यहाँ रहा, इसकी मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है। हाँ, शायद 9th या 10th क्लास के आसपास वह मुझे अपने मम्मी पापा से मिलाने ले गया था, जो कि कानपुर में एक छोटे से मकान में रहते थे। यहीं वह भी उसी दौर में रहने लगा था।
मैंने आधुनिकता के सारे तौर तरीके उसी से सीखे थे। टेबल टेनिस जैसा खेल हो या अंग्रेजी की कॉमिक्स किताबें पढ़ना, अंग्रेजी म्यूजिक-गाने, पहनावा सब सोमू को देख देख कर ही 9वीं-10वीं क्लास तक मैंने भी सीख लिया था। शायद यही वजह है कि धन के अभाव में ख़ुदकुशी कर लेने की खबर आने तक जीवन भर सोमू की मेरे दिलो दिमाग में ऐसी ही छवि थी कि वह न बहुत अभिजात्य वर्ग से है, जहां पैसा कोई समस्या ही नहीं है। तभी तो मैं कभी सपने में भी सोच नहीं पाया कि उसके इतने रसूखदार या धनाढ्य संपर्कों या नाते रिश्तेदारों के चलते या इतने बरसों तक उसके इतने अच्छे पदों पर नौकरी करते रहने के बावजूद वह इस कदर अकेला और अभावग्रस्त हो जाएगा।
मैं आज भी नहीं जानता कि उसके साथ ऐसा कैसे हुआ। मेरे मन औरों की तरह बहुत से सवाल है, मसलन क्यों वह इतने कम अरसे में ही इतना अकेला और अभावग्रस्त हो गया? कहाँ चले गए उसके सारे मददगार, दोस्त या रिश्तेदार? या क्यों वह अपने लिए इतने पैसे भी नहीं जोड़ पाया या कहीं चल अचल सम्पत्ति ले पाया, जिसे बेच कर दो ढाई साल तक वह बिना किसी के सामने हाथ पसारे जीवन यापन कर पाये? माना कि नौकरी छूटने के बाद शुरू की गयी उसकी वेबसाइट फेल हो गयी मगर क्यों उसे लगने लगा कि अब सब ख़त्म हो गया? क्यों उसने ये नहीं सोचा कि वह लखनऊ जैसे छोटे शहर में ही लौट जाए, जहाँ वह फिर से पत्रकारिता या फिर कुछ भी छोटा मोटा करके अपनी बाकी की जिंदगी चैन और शान्ति से गुजार सकता है? जैसे कि उसके बाकी के ढेरों दोस्त कर ही रहे हैं। यहां चकाचौंध और बड़ी बड़ी सफलताएं या नाम नहीं है, मगर चंद रिश्ते नाते और दोस्त तो हैं।
मुझे ये पता है कि अब ये सवाल हमेशा मेरे लिए सवाल ही रह जाएंगे क्योंकि इनका जवाब देने वाला मेरा बचपन का दोस्त मुझे रूठकर हमेशा के लिए इस दुनिया से ही चला गया है। उसका रूठना लाजिमी भी है। मैंने बहुत बड़ी गलती की, जो सिर्फ सोशल मीडिया और पुरानी जिंदगी के जरिये ही उसकी खुशहाल जिंदगी का भ्रम पाले रहा और कभी उससे पूछ ही नहीं पाया कि भाई कैसे हो। 2011 के बाद से अपनी नौकरी छोड़ने रियल एस्टेट कंपनी शुरू करने से लेकर अब तक चले अपने जीवन के झंझावातों में  मैं खुद भी इतना घिरा रहा कि कभी व्हाट्सएप्प या फोन पर भी मैंने उससे बचपन के दोस्त के नाते उसके सुख दुःख नहीं जाने।
2014 के बाद से अपनी वेबसाइट फेल होने के बाद से ही वह संकटों में घिरने लगा था मगर दुर्भाग्य से 2015 या 16 में मेरी न तो उससे एक बार भी मुलाक़ात हो पायी और न ही कभी फ़ोन पर बात हो पायी। हाँ, फेसबुक पर उसने 2015 में मेरे एक बार स्वाइन फ्लू होने की पोस्ट पर चिंता जताते हुए लिखा था कि भाई अपना ध्यान रखना।
मैंने तो अपना ध्यान रखा मेरे भाई मगर तुमने क्यों नहीं रखा? क्यों नहीं ध्यान रखा अपने छोटे छोटे बच्चों और बीबी का? क्यों जिंदगी से अचानक हार गए?
दो दिन पहले तुम्हारी मौत की हतप्रभ कर देने वाली खबर सुनी। एक दिन बहुत हल्ला और दुःख जताने वालों की चीखें सुनीं। मगर अब सब खामोश हो गए। अपनी अपनी जिंदगी में फिर से यूँ ही मगन हो गए, जैसे तब थे, जब तुम संघर्ष करके लगातार मौत की ओर बढ़ रहे थे।
मुझसे भारी गलती हुई जो मैंने अपने अनवरत चलने वाले संघर्षों में डूब कर तुमसे कभी तुम्हारा सुख दुःख नहीं पूछा। शायद तुम्हे मेरी याद नहीं थी या ये भरोसा नहीं था कि मैं तुम्हारे कुछ काम आ सकूँगा, इसीलिए तो तुमने मुझसे कभी कोई मदद नहीं मांगी न अपना दुःख बताया। सुचित्रा कृष्णमूर्ति जैसी मशहूर हस्ती की तरह मैं ये भी नहीं कह रहा कि एक फ़ोन ही कर दिया होता। तुम्हारे अलविदा कहने के बाद कल मुझे पुराने दोस्तों से ही पता चला कि तुमने उनसे पिछले महीने फ़ोन करके कुछ हजार रुपये मांगे थे अपने मेडिकल बिल चुकाने के लिए।
तुम्हारे जाने का दुःख तो है ही मगर इस बात का भी गहरा दुःख है मुझे कि तुम इस कदर टूटते गए, हारते गए और मैं जान तक नहीं पाया। पता नहीं पैसे रुपये से मैं तुम्हारे कितने काम आ पाता मगर मुझे इतना पता है कि अगर तुम्हारे ऐसे घनघोर दुःख का ज़रा भी अंदाजा होता तो मैं बचपन के दोस्त होने का पूरा फर्ज निभाता और तुम्हारा मनोबल न टूटने पाये, इसके लिए जी जान लगा देता। मन के हारे हार है और तुम मन से हार गए सोमू। वरना दुनिया में इतनी क़ुव्वत ही नहीं है, जो तुम जैसे जिंदादिल और बहादुर इंसान को हरा सके। मैं तुम्हे यही समझाता सोमू कि बहुत रास्ते हैं दुनिया में जीने के। जब तक शरीर काम करने लायक है, तब तक कुछ भी करो मगर जिन्दा रहो। झोपडी में भी रहकर अपने बच्चों को पालेगो तो भी कभी न कभी हालात फिर बदल ही जाएंगे मगर यूँ दुनिया ही छोड़ कर चले जाओगे तो उन बच्चों का क्या भविष्य होगा?
लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है। अब मेरे जैसे तुम्हारे कई दोस्त, हितैषी, नाते रिश्तेदार झूठे सच्चे आंसू बहा रहे है, दुःख जता रहे हैं, अपने अपने कारण-किस्से बता रहे हैं कि क्यों वह तुम्हे बचा नहीं पाये, क्यों उन्होंने तुम्हारा साथ नहीं दिया, क्यों तुम अकेले पड़ गए। लेकिन अब कड़वी हकीकत यही है कि तुम्हारे पीछे तुम्हारे बच्चे और बीबी अंधकारमय भविष्य की ओर चल पड़े हैं। और तुम.....माना कि बहुत बड़े खबरनवीस थे। बड़ी बड़ी ख़बरें तुमने ब्रेक कीं, जिनकी टीआरपी जबरदस्त थी.... मगर तुम्हारी जिंदगी में तो कोई टीआरपी नहीं है मेरे दोस्त..... तुम्हारी दर्दनाक ख़ुदकुशी में भी नहीं। इसलिए किसी के लिए खबर भी नहीं हो। हाँ, मेरे जैसे चंद लोग जरूर कुछ दिनों और यही किस्सा सुनाएंगे कि ....... एक था सोमू।
लेखक अश्विनी कुमार श्रीवास्तव आईआईएमसी से प्रशिक्षित, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान और बिज़नस स्टैण्डर्ड जैसे अखबारों में दिल्ली में 12 साल तक पत्रकारिता कर चुके हैं. फिलहाल अपने गृह नगर लखनऊ में अपना व्यवसाय कर रहे हैं. अश्विनी से संपर्क srivastava.ashwani@gmail.com के जरिए किया जा सकता है
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