Om Thanvi : 'वायर' और 'इंडियन एक्सप्रेस' में जितनी साहसपूर्ण सामग्री छपती है, मीडिया में अन्यत्र कम मिलेगी। 'वायर' अब हिंदी में भी शुरू हो गया है और बहुत थोड़े वक्फ़े में उसके लेख-टिप्पणियाँ चर्चा में आने लगे। विनोद दुआ का 'जन की बात' एक पहचान बन गया है। बताऊँ कि 'वायर' एक और ख़ास बात मुझे क्या अनुभव होती है: हिंदी की अहमियत को समझना। इसकी एक वजह शायद यह हो कि उसके संस्थापक-सम्पादक सिद्धार्थ वरदराजन अच्छी हिंदी जानते हैं। यों हिंदी की उनकी बुनियाद पड़ी शायद उर्दू के सहारे। (बोलचाल की उर्दू, हम जानते हैं, कमोबेश हिंदी ही है। उर्दू के महान शायर फ़िराक़ गोरखपुरी तो कहते थे कि हिंदी के व्याकरण और क्रियापद लेकर बनी उर्दू हिंदी की ही एक शैली है; हालाँकि स्वाभाविक ही उर्दू के 'विद्वान' फ़िराक़ साहब की इस बात को पसंद नहीं करेंगे।)
बहरहाल, सिद्धार्थ भाग्यशाली थे कि उनका साबका पहले मिली-जुली हिंदी से पड़ा। एक बार इटली में - जहाँ हम कुछ रोज़ के लिए एक पहाड़ी गाँव बेलाज्जो में साथ थे - उन्होंने बताया था कि जब अमेरिका में पढ़ते थे, पाकिस्तानी मूल के छात्रों और दुकानदारों के साथ उर्दू में और भारतीय प्रवासियों के साथ हिंदी में बतियाते हुए वे सहज हिंदी से रूबरू हुए।
शायद यही वजह रही हो कि 'वायर' की स्थापना के डेढ़ साल बाद ही 'हिंदी वायर' भी शुरू हो गया।
'वायर' के काम में सबसे अनूठी बात यह है कि हिंदी लेख वहाँ अंगरेज़ी में अनुवाद होकर छपते हैं। यह बात मैं अपनी टिप्पणियों का अनुवाद देख नहीं कह रहा हूँ। कल ही मनोज सिंह - जो गोरखपुर फ़िल्म समारोह के आयोजन से मशहूर हैं - का लेख नाथ सम्प्रदाय के बारे में छपा था। हज़ारीप्रसाद द्विवेदी आदि के शोध को उद्धृत करते हुए उन्होंने स्थापित किया कि कट्टरपंथी हिंदुत्व के उभार से पहले गोरखपंथ में मुसलिम जोगी भी बहुत होते थे। आदित्यनाथ उसी मठ के महंत या जोगी हैं और मठ के मुसलिम झुकाव को थोड़ा-बहुत भुनाने की कोशिश भी कर रहे हैं।
जो हो, मैंने यह प्रसंग इसलिए आपको बताया क्योंकि कोई चालीस साल हिंदी पत्रकारिता करते हुए मैंने हमेशा अंगरेज़ी की सामग्री - ख़बरें ही नहीं, लेख और स्तम्भ आदि - को हिंदी में छपते देखा है। (जनसत्ता अपवाद था, जहाँ हम अंगरेज़ी के लेख/स्तम्भ अनुवाद कर अमूमन नहीं छापते थे।) अंगरेज़ी की झूठन से ही हिंदी पत्रकारिता की अपनी भाषा ख़राब हुई है। अंगरेज़ी में कई पत्रकार हिंदी से गए हैं। पर उन्होंने भी कभी इस उलटी धारा को वापस मोड़ने की कोशिश नहीं की। अपवादस्वरूप, या किसी मजबूरी के चलते, हिंदी का कोई लेख या ख़बर आदि भले अंगरेज़ी में अनुवाद करवा लिया हो।
शेखर गुप्ता हरियाणा से ही आते हैं। उन्होंने हिंदी पत्रकारों के वेतन-भत्ते बढ़ाने, पदोन्नति देने का अहम काम किया। पर इंडिया टुडे और एक्सप्रेस में रहते हिंदी लेखकों/स्तंभकारों को इतना महत्त्वपूर्ण नहीं समझा कि उनके लिखे को अंगरेज़ी में अनुवाद करवाया जा सकता। उलटे जनसत्ता में मुझे - हालाँकि सिर्फ़ एक बार - उनके कहने पर तवलीन सिंह और पी चिदम्बरम के स्तम्भ हमारी नीति से हटकर छापने पड़े। भले उन्हें इधर-उधर किसी भी पन्ने पर छाप देता था। यों सिनेमा पर कोई बेहतर लेखक न मिलने पर हमने फ़िल्मकार के. बिक्रमसिंह के लेख भी कुछ समय के लिए अनुवाद करवाए थे, लेकिन बाद में वे हिंदी में ही लिखकर भेजने लगे। लीजिए, इतनी भूमिका मैंने ऐसे ही बाँध दी! साझा करना था 'वायर' में शाया हुआ मनोज सिंह का लेख। उसी का अंगरेज़ी अनुवाद देखकर तो कई बातें याद आईं। बताईं।
वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी की एफबी वॉल से