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अकेले शराब पीने को हस्त मैथुन मानते थे रवींद्र कालिया

Dayanand Pandey : संस्मरणों में चांदनी खिलाने वाला रवींद्र कालिया नामक वह चांद... आज रवींद्र कालिया का जन्म-दिन है... 'ग़ालिब छुटी शराब' और इस के लेखक और नायक रवींद्र कालिया पर मैं बुरी तरह फ़िदा था एक समय। आज भी हूं, रहूंगा। संस्मरण मैं ने बहुत पढ़े हैं और लिखे हैं। लेकिन रवींद्र कालिया ने जैसे दुर्लभ संस्मरण लिखे हैं उन का कोई शानी नहीं। ग़ालिब छुटी शराब जब मैं ने पढ़ कर ख़त्म की तो रवींद्र कालिया को फ़ोन कर उन्हें सैल्यूट किया और उन से कहा कि आप से बहुत रश्क होता है और कहने को जी करता है कि हाय मैं क्यों न रवींद्र कालिया हुआ। काश कि मैं भी रवींद्र कालिया होता। सुन कर वह बहुत भावुक हो गए।
उन दिनों वह इलाहबाद में रहते थे। बाद के दिनों में भी मैं उन से यह बात लगातार कहता रहा हूं । मिलने पर भी , फ़ोन पर भी । हमारे बीच संवाद का यह एक स्थाई वाक्य था जैसे। इस लिए भी कि ग़ालिब छुटी शराब का करंट ही कुछ ऐसा है। उस करंट में अभी भी गिरफ़्तार हूं। इस के आगे उन की सारी रचनाएं मुझे फीकी लगती हैं। ठीक वैसे ही जैसे श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी के आगे उन की सारी रचनाएं फीकी हैं। ग़ालिब छुटी शराब के विवरणों में बेबाकी और ईमानदारी का जो संगम है वह संगम अभी तक मुझे सिर्फ़ एक और जगह ही मिला है। खुशवंत सिंह की आत्म कथा सच प्यार और थोड़ी सी शरारत में। रवींद्र कालिया खुशवंत सिंह की तरह बोल्ड और विराट तो नहीं हैं पर जितना भी वह कहते परोसते हैं उस में पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता झलकती है। जैसे बहते हुए साफ पानी में दिखती है। मयकश दोनों हैं और दीवाने भी। लेकिन खुशवंत सिंह को सिर्फ़ एक मयकशी के लिए दिन-दिन भर प्रूफ़ नहीं पढ़ने पड़ते। तमाम फ़ालतू समझौते नहीं करने पड़ते। इसी लिए रवींद्र कालिया की मयकशी बड़ी बन जाती है।
कितने मयकश होंगे जो अपने अध्यापक के साथ भी बतौर विद्यार्थी पीते होंगे। अपने अध्यापक मोहन राकेश के साथ रवींद्र कालिया तो बीयर पीते थे। बताईए कि पिता का निधन हो गया है। कालिया इलाहबाद से जहाज में बैठ कर दिल्ली पहुंचते हैं, दिल्ली से जालंधर। पिता की अंत्येष्टि के बाद शाम को उन्हें तलब लगती है। पूरा घर लोगों , रिश्तेदारों से भरा है। घर से बाहर पीना भी मुश्किल है कि लोग क्या कहेंगे। घर में रात का खाना नहीं बनना है। सो किचेन ही ख़ाली जगह मिलती है। वह शराब ख़रीद कर किचेन में अंदर से कुंडा लगा कर बैठ जाते हैं। अकेले। गो कि अकेले पीना हस्त मैथुन मानते हैं।
श्वसुर का निधन हो गया है। रात में मयकशी के समय फ़ोन पर सूचना मिलती है। पर सो जाते हैं। सुबह उठ कर याद करते हुए से ममता जी से बुदबुदाते हुए बताते हैं कि शायद ऐसा हो गया है। अब लेकिन यह ख़बर सीधे कैसे कनफ़र्म की जाए। तय होता है कि साढ़ू से फ़ोन कर कनफ़र्म किया जाए। साढ़ू इन से भी आगे की चीज़ हैं। कनफ़र्म तो करते हैं पर यह कहते हुए कि आज ही हमारी मैरिज एनिवर्सरी है। इन को भी अभी जाना था। सारा प्रोग्राम चौपट कर दिया। शराब ही है जो आधी रात मुंबई में धर्मवीर भारती के घर पहुंचा देती है । उन की ऐसी-तैसी कर के लौटते हैं। सुबह धर्मयुग की नौकरी से इस्तीफ़ा भेजते हैं।

शराब ही है जो अपना प्रतिवाद दर्ज करने इलाहबाद में सोटा गुरु भैरव प्रसाद गुप्त के घर एक रात ज्ञानरंजन के साथ पहुंच कर गालियां का वाचन करवा देती है। रात भर। भैरव प्रसाद गुप्त के घर से कोई प्रतिवाद नहीं आता। सारी बत्तियां बुझ जाती हैं। कन्हैयालाल नंदन को जिस आत्मीयता से वह अपनी यादों में बारंबार परोसते हैं वह उन की कृतज्ञता का अविरल पाठ है। परिवार चलाने के लिए ममता कालिया की तपस्या, उनका त्याग रह-रह छलक पड़ता है ग़ालिब छुटी शराब में। हालांकि शराब पीने को वह अपने विद्रोह से जोड़ते हुए लिखते हैं, 'मुझे क्या हो गया कि मसें भीगते ही मैं सिगरेट फूंकने लगा और बीयर से दोस्ती कर ली। यह शुद्धतावादी वातावरण के प्रति शुद्ध विद्रोह था या वक्ती या उम्र का तकाज़ा। माहौल में कोई न कोई जहर अवश्य घुल गया था कि सपने देखने वाली आंखें अंधी हो गई थीं। योग्यता पर सिफ़ारिश हावी हो चुकी थी।'
वरिष्ठ पत्रकार दयानंद पांडेय की एफबी वॉल से.