रोहित सरदाना प्रकरण में नई खबर ये है कि 30 नवंबर को रोहित सरदाना के समर्थन में एक मार्च का आयोजन किया गया है, जो कांस्टीट्यूशन क्लब से लेकर प्रेस क्लब तक होगा और 1.30 बजे दोपहर से 2.30 बजे तक होगा। सोशल मीडिया पर इस मार्च में भाग लेने के लिए तमाम अपीलें की जा रही हैं, खबर लिखे जाने तक करीब तीन सौ लोगों ने इस मार्च के लिए बने फेसबुक पेज पर जाने की सहमति जताई हौ और करीब पौने तीन हजार लोगों ने बताया कि वो इंटरेस्टेड हैं।
दिलचस्प बात ये है कि अभी तक रोहित सरदाना ने कुछ क्लियर नहीं किया है कि वो खुद भी इस मार्च में शामिल होंगे या नहीं और ना ही उन्होंने मार्च में शामिल होने की सार्वजनिक तौर किसी से अपील ही की है। ऐसे में सवाल उठता है कि माजरा क्या है, क्या रोहित सरदाना को बलि का बकरा बनाया जा रहा है? या फिर कहीं वो भी आशुतोष या एमजे अकबर की तरह पत्रकारिता के रास्ते पॉलटिक्स में जाने की तैयारी में जुटे हैं? ये सवाल ऐसे ही नहीं उठे हैं, जिस तरह से पिछले दिनों में कुछ पत्रकारों पर हुए हमलों या हत्या के केसों में राष्ट्रीय प्रेस में साफ तौर पर वैचारिक बिखराव दिखा, रोहित सरदाना केस भी उसी का उदाहरण है।
गौरी लंकेश की हत्या को संघ से जोड़कर इतना बड़ा जमावड़ा किया गया, कैम्पेन चलाया गया, तो संघ परिवार और उनकी तरफ नरम रुख रखने वाले पत्रकारों का चिढ़ना स्वभाविक था। फिर एनडीटीवी वाले मामले में भी एक खास विचारधारा वाले पत्रकार ही जुटे।
सोशल मीडिया भी तमाम आरोपों से भर गई कि गौरी लंकेश के अलावा भी कई पत्रकारों की हत्या हुई, पर उस पर कोई सभा क्यों नहीं? उन पर हमला हुआ तो उसकी निंदा क्यों नहीं? जाहिर है ये पत्रकारिता की दुनिया की गुटबाजी थी, अलग-अलग पार्टियों से बंधी उनकी प्रतिबद्धता थी, जिसके चलते ऐसी घटनाओं पर प्रतिक्रिया देने वाले पत्रकारों ने अपने अपने हिसाब से वही रिएक्शन दिया, जो उनके विचारधारा के अनुकूल था। वो प्रतिक्रियाएं देने वाले पत्रकार भले ही अपने आपको निष्पक्ष मानें, लेकिन उनको फॉलो करने वाले उनकी एक-एक लाइन पढ़कर या सुनकर सब समझ जाते हैं कि वो किस साइड हैं, कम से कम पत्रकारिता के साइड तो बिलकुल नहीं।
जिस तरह गौरी लंकेश की हत्या की निंदा करने वाले राइट विंग के पत्रकारों की कोशिश थी कि इसके लिए कर्नाटक सरकार को जिम्मेदार ठहराया जाए और गौरी के संघ विरोधी विचारों को भी सार्वजनिक किया जाए, वहीं रोहित सरदाना को धमकी वाले मामले में निंदा करने वाले पत्रकारों की कोशिश ये रही कि निंदा भी रस्मी तौर पर हो जाए, साथ ही रोहित की राइट विंग एप्रोच पर भी सवाल उठ जाएं, साथ में उनके वर्तमान और पुराने चैनल के बॉसेज पर भी।
मिली धमकियोॆ को लेकर रोहित सरदाना लगातार यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ से लेकर यूपी पुलिस तक को ट्वीट में टैग करते रहे हैं, एफआईआर उन्होंने की भी है पर उसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं की है। ऐसे में सवाल पुलिस पर ज्यादा बनते हैं।
उसके बजाय हो ये रहा है कि राइट विंग के पत्रकार एक-एक करके ट्वीट और फेसबुक पोस्ट्स के जरिए रोहित के समर्थन में कैम्पेन कर रहे हैं। अब ये मार्च की तैयारी भी हो गई। अगर आप संघ और उनसे जुड़े संगठनो के लोंगों के फेसबुक और ट्विटर एकाउंट्स खंगालेंगे तो पाएंगे कि वो लोग भी रोहित को हिंदूवादी मीडिया का चेहरा मानते हुए उसके समर्थन वाली पोस्ट्स शेयर कर रहे हैं। ट्वीट भी उन लोगों ने ज्यादा की थीं, यहां तक कि अनुपम खेर जैसे दिग्गज ने भी। वैसे आज नोएडा के फिल्मसिटी में भी एक विशेष संगठन के लोगों ने रोहित सरदाना के समर्थन में प्रदर्शन किया है।
ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि क्या रोहित सरदाना इस पूरे विवाद के जरिए अपने नए चैनल और नए शो के लिए टीआरपी बटोरना चाहते हैं, या फिर उनको बलि का बकरा बनाकर राइट विंग गौरी लंकेश के मुद्दे पर खुद को घेरने का बदला ले रही है? एक और सवाल उठता है खुद को राइट विंग का चेहरा बनाकर रोहित सरदाना क्या आगे पॉलटिक्स में कदम रखना चाहते हैं?
दिलचस्प बात ये भी है कि उनका नया चैनल ‘आजतक’ और उसके संपादक भी खामोश बैठे हैं, ऐसा लगता है वो भी इस पूरे विवाद का फायदा रोहित के शो की बढ़ती टीआरपी के तौर पर लेना चाहते हैं? कोई तो वजह है जो एफआईआर के जरिए गिरफ्तारी की मांग ना करके बस रोहित के समर्थन नें कैम्पेन करने पर ज्यादा जोर है। जो भी हो लेकिन इतना तय हो गया है कि मीडिया के लोगों ने भी अब नेताओं की तरह मुद्दों पर खेलना खूब सीख गए हैं।
Sabhar- Samachar4media.com