कविता सिंह
एंकर, इंडिया न्यूज ।।
मुरुगनन्थम। अब बस नाम ही काफी है। पूरा देश इनको जानता है। 70 एमएम पर इनकी कहानी। इंडिया के पैड मैन की बड़े पर्दे पर साइकिल पर सवार साइलेंट लेकिन सबसे ज़बरदस्त एंट्री... बहुत आम दिखने वाले लोग ही अक्सर बड़ी क्रांति लाते हैं। और वो एक बात जो इनको खास बना देती है उस बात तक पहुंचना भी ज़रूरी है। ताकि बाकियों को भी प्रेरणा मिले।
कई दिनों से सोशल मीडिया पर सेलिब्रिटीज को हाथ में सेनेटरी पैड लेकर फ़ोटो पोस्ट करते देख रही हूं। ये पैडमैन चैलेंज था, जो सहर्ष स्वीकारा गया। ये तस्वीरें किसी क्रांति की दस्तक जैसी लगती हैं। जिसका आगाज़ एक ऐसे इंसान ने किया जो बहुत कम पढ़ा लिखा था और जिसका जीवन नित नई चुनौती पेश कर रहा था। 1998 में शादी हुई और जब माहवारी के दौरान बीवी को कभी गंदे कपड़े तो कभी अख़बार तक का उपयोग करते देखा तो इस बात ने मुरुगनन्थम को बेचैनी से भर दिया। वो उस तकलीफ से ना गुज़रने पर भी उसे समझ गए और फिर पैड के साथ प्रयोग का सिलसिला शुरू हुआ।
गांववालों ...यहां तक कि पत्नी को भी लगा कि मुरुगनन्थम सनक गए हैं। लेकिन इसी सनक ने सबसे सस्ते सेनेटरी पैड का रास्ता दिखा दिया। सिर्फ 65,000 की लागत से बनी मशीन से सबसे किफ़ायती पैड बरसने शुरू हो गए। जिस वक्त सेनेटरी पैड पर 12 फीसदी जीएसटी का मुद्दा संसद से सुप्रीम कोर्ट तक में गूंजा उस वक़्त मुरुगनन्थम के प्रयोग की अहमियत सबसे ज़्यादा समझ आयी। अब मेनका गांधी ने भी कहा है कि वो सांसदों से गुजारिश करेंगी की सांसद निधि से अपने क्षेत्रों में मुरुगनन्थम वाली मशीन लगाएं और सस्ते पैड्स मुहैय्या कराएं।
हमारे देश में अभी भी सिर्फ 12 फीसदी महिलाएं सेनेटरी पैड इस्तेमाल करती हैं। 88 फीसदी आज भी राख, बालू, मिट्टी, गंदे कपड़े, अखबार, पॉलीथिन का इस्तेमाल करती हैं। दिक्कत के साथ ये कई बीमारियों को भी सीधी दावत है। गरीब तबके की बच्चियां इसी शर्म और बेबसी में स्कूल छोड़ देती हैं। आज इसी सोच को बदलने का दिन है। जागरूकता और संवेदनशीलता से हम आधी आबादी को सुकून के 5 दिन दे सकते हैं। हैरानी होती है कि मुरुगनन्थम से पहले कोई इस दिक्कत को इतनी गहराई से समझ ही नही पाया। खुद महिलाएं भी अपने लिए ऐसा कोई चमत्कारी समाधान खोज नहीं पाईं। सोच सोच का फेर है।
समाज में एक ओर ऐसे हैवान भी हैं जो 8 महीने की बच्ची को भी नहीं बख्शते। जो औरत को हवस का शिकार बनाकर उसके जिस्म में बोतल से लेकर रॉड तक डाल देते हैं। उसी समाज में मुरुगनन्थम जैसे पुरुष भी हैं जो बिन बोले भी औरत की तकलीफ को समझ लेते हैं। इसी संवेदनशीलता और संघर्ष से वो समस्या का समाधान भी खोज लेते हैं। फिर ऐसे ही आम इंसान खास बन जाते हैं वो पद्मश्री मुरुगनन्थम बन जाते हैं। गंभीर विषय का दिलचस्प पहलू ये भी कि इनके अद्भुत समर्पण भाव से कई पुरुषों की पत्नियां सदमे में आ जाती हैं। वो बीवियां इनकी बीवी से रश्क करती हैं, जिनके खुली सोच का दम भरने वाले पति सेनेटरी पैड खरीदने की बात सुनकर बोल देते 'अरे यार, ये तमाशा मत कराया करो। खुद ले आया करो। मेडिकल स्टोर वाले को मैं क्या बोलूं? ज़्यादा ज़रूरी ना हो तो कल ले लेना' या फिर साथ हुए तो ये.. 'कम से कम 6 महीने का स्टॉक एक साथ ही आज खरीद लो चामी, मैं बिलिंग काउंटर पर हूं'। दरअसल सारा खेल संवेदनशीलता का है।
समाज में मुट्ठी भर मुरुगनन्थम हैं और इन्हीं पर टिकी है हमारी उम्मीद। रिश्ता दिल का हो, दर्द का हो, अपनेपन का हो, दिखावे का हो या उम्मीद का हो। एकतरफा तो कोई भी नहीं चलता। पैडमैन की रिलीज़ पर दिल से सलाम है मुरुगनन्थम को। 23 राज्यों में इन्हीं की बनाई मशीनों से महिलाओं को सस्ते पैड मिल रहे हैं। सलाम है ट्विंकल खन्ना और अक्षय कुमार की कोशिशों को, जिनके चलते इस मुद्दे के इर्द गिर्द खड़ी 'टैबू' की दीवार गिरने लगी है। वाकई हर कामयाब पुरुष के पीछे एक महिला का हाथ होता है। और हर मुस्कुराती पत्नी के चेहरे पर नज़र आते सुकून के पीछे किसी मुरुगनन्थम सरीखे पति का साइलेंट संघर्ष होता है।
Sabhar- Samachar4media.com