मेरे मित्र यशवंत के 'भड़ास' पर एक पाठक ने पत्र भेज कर 'जागरण' में 'अश्लील' फोटो छापने पर ऐतराज़ जताया है. कहा है कि 'मैं दैनिक जागरण के संपादक लोगों से अपील करता हूं कि कृपया आगे से ऐसी तस्वीरें न छापें जिससे अखबार को परिवार के सदस्य एक साथ न पढ़ सकें.'
हम अश्लीलता के खिलाफ हैं. उस अश्लीलता के भी जो कानून के दायरे से बच भी निकलती है. इसी लिए हम उस फोटो को यहाँ प्रकाशित नहीं कर रहे. मगर याद ज़रूर दिलाना चाहते हैं कि इस तरह की तस्वीरों से खुद को ब्रॉडमाइंडेड दिखाने का कभी फैशन था. शायद हाई ब्रेकिट सोसायटी तक पंहुच के लिए. पर अब वो किसी हद तक मजबूरी है. और इसे न ढोने वाले घाटे में भी हैं.
मैं एक मिसाल देता हूँ. 'जनसत्ता' जब चंडीगढ़ आया तो बाज़ार की प्रतिस्पर्धा पे बात हुई एक सम्पादकीय बैठक में. विद्यासागर जी कोई बारह तेरह साल पंजाब के एक नामवर अखबार में लगा कर बिना किसी परीक्षा के सीधे भर्ती हुए थे. उन ने सुझाया कि उस अखबार का मुकाबला करने के लिए वैसी तसवीरें तो छापनी पड़ेंगी. उन का कहना था कि उस अखबार का एक बड़ा वर्ग उस अखबार को सिर्फ इसी लिए खरीदता है. उन ने कुछ ऐसे पाठक भी गिनाये थे जिन्हें पढना लिखना नहीं आता था मगर फिर भी वे वो अखबार खरीदते थे. वो विद्यासागर जी का अनुभव था. अपनी जगह दमदार भी. लेकिन प्रभाष जी ने तय किया कि जनसत्ता न सिर्फ उस तरह के फोटो छापने से गुरेज़ करेगा. बल्कि वो अख़बार का मैगजीन सेक्शन भी पहले खबरी पेज के ऊपर नहीं रखेगा. मैं नहीं कहता कि इसी कारण से लेकिन जनसत्ता बंद हो गया.
एक बार मैंने उस अखबार के समाचार सम्पादक से बात की. 'राम तेरी गंगा मैली' का दुग्धपान वाला मंदाकिनी का फोटो अखबार ने पहले पेज पर ऊपर तकरीबन आधे पेज का छापा था. मैंने भी उनसे वही सवाल किया था जो अब एक पाठक ने आगरा से किया है. उन्हें 'जागरण' कब क्या जवाब देगा वो जानें. पर मुझे जो जवाब मिला था वो मैं बता देता हूँ. समाचार सम्पादक ने कहा था कि दिन अखबार में उस तरह की कोई फोटो छपती है उस दिन एजेंटों से पूछे बिना वो उनकी प्रतियां पांच से दस फीसदी तक बढ़ा के भेजते हैं. वे ये कह कर बड़ी गहरी भीतरी संतोष से सराबोर हो मुस्कुरा दिए थे उस दिन एक अख़बार तो वो होता है जो रूटीन में घर आता है. उस दिन एक और अख़बार वो होता है जिसे घर का बूढा बुज़ुर्ग बस अड्डे से खरीद और धोती की लान्गड़ में दबा कर लाता और फिर सब के सो जाने के बाद रात को देखता है.
कर लो क्या करोगे भाईसाहब ! इस इंडस्ट्री का सच तो यही है. और सच कई बार कड़वे होते हैं. - सम्पादक
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