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चार साल माने चार सौ साल पिछले और अगले


भड़ास4मीडिया के चार वर्ष पूरे हो गए। कम नहीं होते चार वर्ष। यह बात आज ही एक युवा पत्रकार ने मुझसे कही। दरअसल, चार साल कम होते हैं या पर्याप्त यह बहुत महत्वपूर्ण तो है, लेकिन आज से चार साल पहले तक यह कम से कम मुझे तो नहीं लगता था कि कोई एक ऐसी वेबसाइट जो अखबार-चैनलों से भी कहीं ज्यादा लोकप्रिय हो जायेगी। सूचनाओं-जानकारियों जिज्ञासा की दिशा को नया मोड़ दे देगी। खबर वालों की खबरें बनेंगी फिर उनकी खबरें सब पढ़ेंगे। कम्प्यूटर खोलते ही मीडिया जगत के लोग सब से पहले क्या पढ़ना पसंद करेंगे? यह सोचा तो जा रहा था। करने की कोशिश भी की जा रही थी। लेकिन भड़ास ने तो कर दिखाया।

वास्तव में स्वयंभू चौथा खंभा अपने आप में काफी रहस्यमय था। प्रबंधन से जुड़ी सारी जानकारियों को अंधेरे में रखा जाता था। तमाम अखबारों से निकाल गए और छोड़ चुके लोग कई महीनों तक यह बताए रखने में सफल रहते थे कि वह अभी भी उसी संस्थान में कार्यरत हैं। कोई जान ही नहीं पाता था कि ये महाशय काफी दिनों से पैदल हैं। कहीं काम ही नहीं कर रहे हैं। यह एक बड़ी समस्या थी। मैं अपना खुद का एक अनुभव बताता हूं। वर्ष 1999 में मैं अमर उजाला की तरफ से एक जनपद का ब्यूरो प्रमुख बनाकर भेजा गया। मैं ज्वाइन करने के एक घंटे बाद ऑफिस से निकलकर सड़क की तरफ आया और एक जगह पर खड़ा हो गया। वहीं पर एक सज्जन पहले से खड़े थे। मैं खड़ा हुआ ही था कि उन सज्जन के पास एक व्यक्ति आया और बोला कि आप तो अमर उजाला में रिपोर्टर हैं ना। उन सज्जन ने उस व्यक्ति से कहा कि हां-हां बिल्कुल, बताइये क्या बात है? वो बोला कि एक समाचार छपवाना है। और एक कागज निकालकर उन सज्जन को दे दिया। कागज लेकर वह दोनों ही सामने एक रेस्टोरेन्ट में चले गए।

मैं आफिस आ गया और काम-काज निपटाया। दूसरे दिन वही व्यक्ति आया और बोला भाई साहब कल मैंने अमर उजाला के पत्रकार जी को एक समाचार दिया था। आज छपा ही नहीं है। वाकई में मेरा तब तक अपने सभी स्टाफ से परिचय भी नहीं हो पाया था। किस्सा यह कि वह सज्जन जो खुद को अमर उजाला का पत्रकार बताकर बकायदा अपने को मेंटेन किए हुए थे, उनको अमर उजाला छोड़े हुए छह महीने हो गए थे। खैर, बाद में जो हुआ कोई बात नहीं है। भड़ास ने आज सामान्य आदमी को अखबारी दुनिया या मीडिया जगत की उन सभी सूचनाओं से वाकिफ करा दिया है, जो सूचनाएं हमेशा गोपनीय रह जाती थीं, क्यों न जाने लोग आखिर इस स्वयंभू चौथे खंभे की बुनियाद से लेकर शिखर तक होने वाली हलचलों को। और ऐसी-ऐसी बातों को जो कभी-कभी बड़ी आश्‍चर्यजनक लगती हैं। जैसे कि डिस्कवरी चैनल ने बता दी नेचर की असलियत। छिपे रहस्य और ऐसे ऐसे तिलिस्म जिन्हें अब तक लोग न जानते थे, न सोच सकते थे। वही काम कर रहा है भड़ास। मीडिया संसार के इन तिलिस्मों को सार्वजनिक कर देने का काम चल रहा है।

अब भड़ास कैसे काम कर रहा है। भड़ास के अन्दर भी कोई तिलिस्म है, कोई रहस्य है क्या। कुछ ऐसा है क्या, जिसे उन सब लोगों को जानना चाहिए जिनके बारे में भड़ास जानकारी देता है, कोई दूसरा इसकी जानकारी दे, उसके पहले खुद भड़ास को यह काम कर देना चाहिए, अगर ऐसी कोई बात हो तो। भड़ास एक देशज शब्द है। किसी विशेष अर्थ में ही प्रयोग होता आ रहा है। इस शब्द की सार्थकता साबित होती है और अर्थ भी बदलता है, जब भड़ास मीडिया दर्शन, चिन्तन, चिन्ता, तार्किकता, इनफरमेशन, नालेज का मंच बन जाता है। स्वर बन जाता है। बात तारीफ की नहीं है। बात सच्चाई की यह है कि भड़ास वेबसाइट में बहुत चीजों के मायने बदल कर रख दिए हैं। अब अगर जंगल में किसी शेर के पैर में कांटा चुभ जाता है या भैंसों का झुंड जंगल के राजा शेरों के झुंडों को खदेडता हुआ लाइव डिस्कवरी में या अन्य चैनल में दिखने लगा है तो फिर भडास में भी उसके समान परिस्थिति ही उजागर हो रही है।

बात चार सालों की नहीं है। चार साल अगर कम नहीं होते तो ज्यादा भी नहीं होते क्योंकि नेचर जल्दी और देरी दोनों का संतुलन बनाए हुए है। भड़ास के चार साल पिछले और अगले चार सौ सालों के बराबर लगने चाहिए। लगे रहिये। उन वेजुबानों को जबान मिल गई है, जो बाहर तो सींग लगाकर धरती धमकाते चलते थे और अपनी कंपनी के भीतर यस सर, जी सर, जी भाई साहब की दुम हिलाकर जीवन यापन कर रहे थे। बाहर जो जबान कैंची की तरह चलती थी वह अंदर म्यान में घुसी रहती थी। अब कम से कम भड़ास के जरिये ऐसा कोई भी बंदा नहीं बच रहा, जिसके अंदर की दुम और बाहर के सींग भड़ास के पाठकों से छिपे रह जाये।
पीयूष त्रिपाठी

लखनऊ
Sabhar- Bhadas4media.com