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ऐसे डुबोया केजरीवाल ने अन्ना का आंदोलन


मध्यवर्ग का एक बड़ा आंदोलन किसी पड़ाव तक पहुंचे बग़ैर ही तार-तार हो गया. अण्णा हज़ारे टीम के इस आकस्मिक अंत का कोई शोकगीत भी नहीं गाया जा रहा है. इसके उलट लोग नये गठजोड़ में व्यस्त हैं...

अजय प्रकाश

अब भी बहुत से लोगों की आस पिछले वर्ष अप्रैल में शुरू हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल आंदोलन से जुड़ी हैं. इस अभियान से जुड़ेहजारों कार्यकर्ताओं और भ्रष्टाचार से त्रस्त मुल्क को उम्मीद है कि एक बार फिर विरोध का सैलाब उभरेगा और अठारह महीने पहले 5 अप्रैल 2011 को देश ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर जिस भ्रष्टाचार-मुक्त भारत का सपना देखा था, वह पूरा होगा.



उम्मीद महत्वपूर्ण है. लोग आज भी ऐसा तब सोच रहे हैं जब लोकपाल के मुखिया अण्णा हजारे और अगुआ अरविंद केजरीवाल की राहें जुदा-जुदा हो चुकी हैं. आंदोलन के समर्थकों में एक भीड़ अरविंद केजरीवाल के पक्ष में उतर आयी है. तेईस सितंबर को दिल्ली के जंतर-मंतर पर बढ़े बिजली बिल के खिलाफ आंदोलन में अण्णा का नाम गायब रहा. इन आंदोलनकारियों की पहचान "टीम अरविंद' के रूप में की गयी. पहले जिन समर्थकों की टोपियों पर "मैं अण्णा हूं' लिखा रहता था, उन पर पहली बार "मैं अरविंद हूं' छपा.

बहसों और विवादों में रही टीम के अलगाव की यह पहली सार्वजनिक अभिव्यक्ति थी. इसके साथ ही बिहार आंदोलन के बाद भारतीय मध्यवर्ग का सबसे हलचल पैदा करने वाला आंदोलन अकाल-मृत्यु को प्राप्त हो गया. अठारह महीने की गर्जना के बाद एक रिरियाहट बन चुके इस अभियान पर अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि टीएस एलियट की एक पंक्ति सटीक बैठती है - "इन माइ बिगनिंग इज माइ एंड' (मेरी शुरुआत में ही मेरा अंत है).

विडंबना यह भी है कि इस बीच दिल्ली में बैठा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का युवा नेतृत्व बिखराव के बाद हर रोज आंदोलन की बातें मीडिया में सार्वजनिक कर सनसनी के मजे लेता रहा है. कभी अण्णा-रामदेव मिलन को विवादास्पद बनाया जाता है तो कभी अरविंद के एनजीओ "पब्लिक कॉज रिसर्च फाउंडेशन' (पीसीआरएफ) के खाते में जमा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के करोड़ों रुपयों को लेकर "अरविंद को नहीं लालच' जैसी खबरें मीडिया में आती हैं.

प्रसिद्ध समाजशास्त्री आशीष नंदी कहते हैं, "पूरे आंदोलन को अतिकेंद्रित करके "डिक्टेशन' देकर चलाने की कोशिश की गयी, जिसका परिणाम बिखराव और अविश्वास के रूप में सामने है.' खुद को अण्णा हजारे का सारथी घोषित कर चुकीं देश की पहली महिला आइपीएस किरण बेदी आंदोलन के असल वारिसों के लिए दिल्ली में दफ्तर तलाश रही हैं. कोर कमेटी के सदस्य रहे जाने-माने अधिवक्ता प्रशांत भूषण कथित रूप से "इंडिया अगेंस्ट करप्शन' (आइएसी) की साइट पर अधिकार जमाने में लगे हैं.

दबे-छिपे स्वर में कहा जा रहा है कि प्रशांत ने किसी परिचित साइबर एक्सपर्ट की मदद से अरविंद धड़े की नयी वेबसाइट "फाइनल वॉर अगेंस्ट करप्शन' पर आइएसी के फेसबुक पेज से जुड़े साढ़े छह लाख सदस्यों को भी जोड़ दिया था. इसका पता चलते ही आइएसी वेबसाइट के संचालक और पत्रकार शिवेंद्र ने फेसबुक पर कानूनी कार्रवाई का पत्र लिखा. इसके बाद से आइएसी अब किरण बेदी खेमे के कब्जे में है और अरविंद घराने की फेसबुक साइट पर मात्र साठ हजार लोग हैं. सामाजिक कार्यकर्ता मुकुल कहते हैं, "क्या ये वही लोग हैं जो कुछ महीने पहले तक भ्रष्टाचार के खिलाफ बने हुए थे? आपसी छीछालेदर और आरोपों ने साफ कर दिया है कि इनके अपने भीतर किस स्तर का भ्रष्टाचार है.' आंदोलन से पार्टी बनाने की कोशिश में जुटे अरविंद केजरीवाल बैठकों में कार्यकर्ताओं की मनःस्थिति जानने की कोशिश में हैं.

पूर्वी दिल्ली के एक मंदिर में 21 सितंबर को आयोजित स्वयंसेवकों की बैठक में केजरीवाल ने पूछा, "अण्णा हजारे के अलग होने के बाद देश में लोगों का क्या कहना है?' इस पर स्वयंसेवकों ने जानना चाहा कि 19 सितंबर को नौ घंटे तक चली उस बैठक में ऐसा क्या हुआ था कि अण्णा हजारे ने चिढ़कर कह दिया कि, "अरविंद और उनकी टीम मेरे फोटो और नाम का भी इस्तेमाल नहीं कर सकती.' स्वयंसेवकों के इस सवाल से अरविंद केजरीवाल सकते में थे. कोई जवाब नहीं सूझा तो उन्होंने यह कहकर बैठक आगे बढ़ा दी कि मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं.

इस रवैये पर एक स्वयंसेवक ने कहा, "जवाब न दे पाना अरविंद की असफलता नहीं, उनका गुण है. वे सिर्फ कहते-कराते हुए नेतृत्व करना चाहते हैं. उन्हें पसंद नहीं कि कोई टोके और कुछ बताये.' गौरतलब है कि इसी मंदिर में 20 और 21 सितंबर को अण्णा आंदोलन से जुड़े करीब सौ प्रतिनिधियों की बैठक भी हुई. इसमें पार्टी बनाने के सवाल पर 90 फीसद भागीदारों ने सहमति दी. पार्टी बनाने की मुखालफत करने वाले कार्यकर्ताओं में शामिल एक सदस्य ने बताया कि "बड़ी चालाकी से अरविंद के सिपहसालारों ने उन्हीं लोगों को बुलाया जो समर्थक थे और पार्टी बनाने पर सहमति दे सकते थे.'

पार्टी बनाने के पक्ष में नब्बे फीसद का बहाना लेकर पिछले दिनों अरविंद ने कहा था कि, "मेरी मंशा पार्टी बनाने की नहीं थी, पर मुझे बहुमत ने पार्टी बनाने के लिए मजबूर किया.' लेकिन जानकारों के मुताबिक, दिल्ली के जंतर-मतर पर 25 जुलाई का आंदोलन ही अरविंद ने इसीलिए करवाया कि वे नौ अगस्त को बाबा रामदेव द्वारा दिल्ली के रामलीला मैदान में की जाने वाली पार्टी की घोषणा पर पूर्णविराम लगा सकें. रामदेव द्वारा पार्टी बनाये जाने की खबरें सार्वजनिक थीं, लेकिन अण्णा टीम चुनाव चर्चा से ही बाहर थी. यही वजह है कि कालाधन विरोध में लगातार आग उगलते बाबा रामदेव टीम अण्णा की टूट का सर्वाधिक आनंद उठा रहे हैं. वे हर मंच पर अण्णा-समर्थित धड़े की मदद को बेताब दिख रहे हैं.

अण्णा टीम में शामिल रहे एक सदस्य नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, "कम लोग ही जानते हैं कि अण्णा ने अगस्त में अपनी इच्छा से कोर कमेटी टीम भंग नहीं की थी. अरविंद केजरीवाल ने अण्णा पर टीम भंग करने का दबाव बनाया. अरविंद की चली होती तो कोर टीम मार्च में भंग हो गयी होती. यह टीम अरविंद के कामकाज के तरीकों पर सवाल करती थी, लेकिन अरविंद को खुद के निर्णयों को लेकर कब, क्यों और कैसे सुनना पसंद नहीं है. खासकर उनके सवाल तो बिलकुल भी नहीं, जो उनके कृपापात्र नहीं हैं.'

एक और सदस्य के मुताबिक, "अरविंद केजरीवाल को अपनी बात मनवाने में महारत हासिल है. अण्णा जिन मसलों पर हां कहते थे, वह भी उनकी हां नहीं होती थी. कई बार उनकी हां को ना में बदलते देखा गया.' एक सदस्य ने 25 जुलाई के आंदोलन का संदर्भ देते हुए कहा कि "दिल्ली में तीन अगस्त को अनशन खत्म होने पर अण्णा के हवाले से राजनीतिक पार्टी बनाने की सहमति का बयान छपा और अगले ही दिन अण्णा ने पार्टी बनाने से इनकार कर दिया. ऐसी स्थितियां कई बार आयीं और हर बार अण्णा दवाब में "हां' या "ना' कहते रहे.'

टीम में शामिल रहे करीब आधा दर्जन सदस्यों का मानना है कि अण्णा हजारे की अरविंद से दूरी बढ़ने की बड़ी वजह अरविंद और उनके लोगों द्वारा अण्णा पर बनाया गया दबाव है. दिल्ली के एक सदस्य ने कहा, "अण्णा आंदोलन की जड़ में मट्ठा डालने का काम आंदोलन की अतिकेंद्रीयता ने किया है. अरविंद हर जगह खुद को सर्वोपरि रखते थे, जिसके कारण सदस्यों और कार्यकर्ताओं में उनके प्रति एक वितृष्णा है. लेकिन अरविंद की क्षमताओं का लोहा भी लोग मानते हैं, इसलिए कोई कुछ नहीं कहता.'

अरविंद खेमे के एक सदस्य का कहना है, "अण्णा का मूड चलता है. अगर एक बार उन्होंने ना कर दी तो फिर वे किसी की नहीं सुनते. लंबी लड़ाई में इस तरह की प्रवृत्ति घातक होती है. आज नहीं तो कल अण्णा को हमें छोड़ना ही पड़ता.' राजनीतिक विश्लेषक सुधीर पंवार के मुताबिक, "यह आंदोलन पार्टियों के कुचक्र का शिकार हुआ है. इसकी पहचान इस या उस पार्टी के पक्षधर के रूप में की जाने लगी है. किरण बेदी की ब्रांडिंग भाजपा-प्रेमी के तौर पर हो रही है. देर-सबेर अरविंद केजरीवाल कांग्रेसी गोद में नजर आ जायेंगे. वे पार्टी बना रहे हैं और मौजूदा दौर गठबंधन राजनीति का ही है.'

कोर कमेटी सदस्यों द्वारा सार्वजनिक किये जा रहे इन सवालों पर अरविंद केजरीवाल जवाब देने को तैयार नहीं हैं. अण्णा हजारे द्वारा टीम की राहें जुदा होने की घोषणा 19 सितंबर को हुई. टीम से जुड़े तकरीबन सभी लोग यह कहकर कन्नी काट रहे हैं कि आंदोलन के ऐसे कारुणिक अंत के बारे में उनके पास कोई जवाब नहीं है.

लेकिन दोनों शीर्ष नेताओं के बारे में सदस्यों और कार्यकर्ताओं का आम नजरिया यह है कि अण्णा यदि कान के कच्चे हैं तो अरविंद तानाशाह और स्वेच्छाचारी हैं, अरविंद को किसी की न सुनने की आदत है तो अण्णा सबकी सुनकर गड़बड़ करते हैं. अण्णा हर राजनीतिक राह सीधी तय करते हैं तो अरविंद सीधी राह को भी टेढ़ा कर देते हैं, अण्णा लोकपाल आंदोलन में जीवन का आनंद हासिल कर चुके हैं तो अरविंद की चाहत अधूरी रह गयी है. अण्णा धीरे-धीरे सब कुछ हासिल करना चाहते हैं तो अरविंद को रफ्तार पसंद है. अण्णा आंदोलन के आदी हैं तो अरविंद सफलता के.

नेताओं के प्रति इस नजरिये के सवाल को कोर कमेटी के सदस्य और रंगकर्मी अरविंद गौड़ टाल जाते हैं और कहते हैं, "अण्णा और अरविंद केजरीवाल के बीच उभरा मौजूदा विभेद देश में आंदोलनों से जगी उम्मीद को कमजोर करेगा. हमारी इच्छा है कि उन्हें आपसी मतभेदों को निपटा लेना चाहिए, अन्यथा इस निर्णय से फायदा भ्रष्ट व्यवस्था को होगा.'

संगठन में केंद्रीयता की हालत यह है कि अनौपचारिक रूप से कहने के लिए सबके पास बहुत कुछ है, लेकिन कोई भी औपचारिक बयान देकर अरविंद केजरीवाल का कोपभाजन नहीं बनना चाहता. तार्किकता, तेवर और कद तीनों में अरविंद से श्रेष्ठ रहे अण्णा टीम के प्रमुख सदस्य प्रशांत भूषण भी अब केजरीवाल के बाजू बने रहने में राहत महसूस कर रहे हैं. कश्मीर की आजादी संबंधी बयान देने के बाद से प्रशांत भूषण ने कभी ऐसी कोई बात नहीं कही, जिससे अरविंद के एकाधिकार को चुनौती मिले.

लेकिन चुनौती देने वाली सदस्य हैं किरण बेदी. एक कोर कमेटी सदस्य ने बताया कि पिछले साल भर से सभी बैठकों में यह देखा गया कि किरण बेदी का नजरिया अरविंद के प्रति नकारात्मक हो चुका है और धीरे-धीरे उनके विवाद आपसी होते गये. उन्होंने लोकपाल आंदोलन के करोड़ों के फंड अरविंद के एनजीओ "पीसीआरएफ' के खाते में जाने पर भी सवाल उठाये थे. मगर हर बार तकनीकी कारण बताकर किरण को किनारे कर दिया जाता था. किरण बेदी में चूंकि दृष्टि नहीं थी इसलिए वे बाकी सदस्यों को अपने पक्ष में नहीं कर सकीं.

एक सदस्य के निकल जाने के बाद कोर कमेटी में बचे कुल 23 सदस्यों में अरविंद की बड़ी ताकत उनके वेतनभोगी सात लोग थे, जिनके कारण उनका बहुमत बना रहता था . लेकिन क्या किरण बेदी अण्णा धड़े को वह नेतृत्व दे पायेंगी जो अरविंद के सामने टिक सके? पूर्ववर्ती अण्णा टीम के एक सदस्य इस सवाल पर कहते हैं, "किरण बेदी को आंदोलन समझ नहीं आता, उन्हें खुद का "ग्रेट' बने रहना पसंद है. उम्मीद अण्णा से है अन्यथा अरविंद से.'

आंदोलन से जुड़े एक प्रमुख कार्यकर्ता का कहना है कि जो लोग समाज की बेहतरी के लिए जनलोकपाल आंदोलन से जुड़े थे, वे एक-एक करके हाशिये पर धकेल दिये गये और जो महत्वाकांक्षाओं के साथ आये थे, वे फिलहाल शीर्ष पर या नेतृत्व की स्थिति में हैं.

उत्तर प्रदेश के पिलखुआ में डिग्री कॉलेज के शिक्षक रहे कुमार विश्वास इस समय देश के सबसे महंगे कवि हैं. यह किसी से छिपा नहीं है कि उनका यह रेट आंदोलन की सुर्खियों में पिछले डेढ़ साल में बने रहने की बदौलत है. खबर यह भी है कि "बिग बॉस' सीजन-6 के लिए वे 3 करोड़ रुपये में सौदा करने वाले हैं. इसी तरह उत्तर प्रदेश के अवध इलाके के संजय सिंह को, जिन्हें आधी उम्र बिता लेने के बावजूद लखनऊ भी नहीं पहचानता था, अब देश पहचानने लगा है. अरविंद केजरीवाल की जुबान माने जाने वाले मनीष सिसौदिया और तीसरे स्वाधीनता आंदोलन के सूत्रधार गोपाल राय की भी यही गति थी. अब ये सभी लोग देश के जानेमाने लोग हैं और इनका भविष्य चमकता रहेगा.

मगर आंदोलन से जिन्हें किनारे किया गया, वे हैं- मेधा पाटकर, डॉक्टर सुनीलम, अखिल गोगोई और अरविंद गौड़. अण्णा को छोड़ गये तो किसान नेता पीवी राजगोपाल और जल-पुरुष राजेंद्र सिंह. इन सभी लोगों को अण्णा आंदोलन ने क्या दिया, यह तो समय बतायेगा, लेकिन इनमें किसी भी जनांदोलन को बहुत कुछ देने की क्षमता थी.

हालांकि, शीर्ष में भले ही खुद को चमकाने वालों की भरमार हो गयी हो, लेकिन निचले स्तर पर सचाई और ईमानदारी से देश की बेहतरी के लिए त्यागने वालों की एक बड़ी फौज इस आंदोलन से जुड़ी. उस कड़ी में हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले से आने वाले देशराज भी हैं, जिन्होंने साठ हजार का कर्ज सिर्फ इसलिए लिया कि वे आंदोलन की बैठकों को सुचारू रूप से चला सकें. पेशे से पत्रकार रहे देशराज जैसे लोग आंदोलन के खिलाफ भले ही न बोलते हों, लेकिन उनका मन भारी है और वे हताश हैं.

सूत्रों के मुताबिक, अरविंद केजरीवाल की नयी टीम गांधी जयंती (दो अक्तूबर) को पार्टी की घोषणा करने को है. पार्टी के नाम, कार्यक्रम और संविधान की घोषणा 26 नवंबर को होगी, जिस दिन भारत का संविधान बना था. सन् 2014 के आम चुनावों की तैयारी में जुटी टीम अरविंद का पहला चुनावी रिहर्सल 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनावों में होने को है.

अरविंद के एक विश्वस्त सहयोगी कहते हैं, "दिल्ली में हमें दो सीट पाने से कोई नहीं रोक सकता.' हालांकि,उन्हें भी लोकसभा में शून्य से बढ़त बनाये रखने की उम्मीद है. ऐसे में सवाल यह है कि अरविंद का लोकपाल धड़ा कहीं बिखराव की नयी यात्रा पर तो नहीं चल पड़ा है, जिसका इंतजार दिल खोलकर वे चुनावी पार्टियां कर रही हैं, जो पिछले डेढ़ साल अण्णा आंदोलन के तीरों से घायल होती रही हैं.

(द पब्लिक एजेंडा से साभार)