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बदलो, नहीं तो जनता आती है


17 दिसंबर 2010, वो तारीख जिसने एक नई क्रांति की शुरुआत की। इस दिन मध्यपूर्व एशिया में ट्यूनीशिया के एक शहर सिड बौजीज में एक 26 साल के गरीब सब्जी बेचने वाले को सत्ता और ताकत के नशे में चूर एक पुलिस वाली ने सरेआम बेइज्जत किया था। मोहम्मद बौजीजी का कुसूर बस इतना सा था कि उसने एक अहंकारी पुलिस वाली को घूस देने से इंकार कर दिया था। पुलिस ने उसके गालों पर थप्पड़ जड़ा, गालियां बकीं, उसके मुंह पर थूक दिया। उसने शिकायत करने की कोशिश की, उसको दुत्कार मिली। बौजीजी ने स्थानीय प्रशासन के हेड क्वॉर्टर्स के सामने खुद पर पेट्रोल छिड़क कर आग लगा ली। उसकी मौत ने पूरे ट्यूनीशिया में हाहाकार मचा दिया। लोग सड़कों पर उतर आए और बीस साल से ज्यादा सत्ता पर काबिज राष्ट्रपति बेन अली को देश छोड़कर भागना पड़ा। मिस्र में भी लोगों ने तहरीर चौक को अपने कब्जे में ले लिया। तहरीर चौक मध्य पूर्व एशिया में तानाशाही, गैर लोकतांत्रिक, दमनकारी व्यवस्था के खिलाफ बगावत का प्रतीक बन गया। राष्ट्रपति हुश्नी मुबारक को जाना पड़ा। तीस साल का गूगल मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव वेल गोनिम पूरी दुनिया में नया नायक बन गया। देखते-देखते मोरक्को, सीरिया, लीबिया, जॉर्डन, यमन, अल्जीरिया, बहरीन और माउरीतानिया में सड़कों पर क्रांति भड़क उठी। टैंक और सेना की गोलियां निस्तेज होने लगीं। लीबिया में शासक मुअम्मर गद्दाफी को लोगों ने पकड़ कर गोली मार दी। सीरिया में अभी भी सेना और आम जनता के बीच जंग जारी है।
ये नई तरह की क्रांति है। इस क्रांति ने सबको चौंकाया है। बुद्दिजीवियों को नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर किया है क्योंकि 1989-1990 में जब पूरी दुनिया से साम्यवादी मुल्क एक के बाद एक ध्वस्त हो रहे थे तब भी मध्य पूर्व एशिया को क्रांति छूकर भी नहीं गई थी। बदलाव की ये हवा सिर्फ मध्य पूर्व एशिया तक ही नहीं सीमित रही। उसकी चपेट में पूंजीवादी देश भी आए और वो जो कभी साम्यवादी थे। वहां भी लोग सड़कों पर उतरे जहां लोकतंत्र है। अमेरिका में लोग तो सड़कों पर निकलना ही भूल गए थे। अकुपाई वॉल स्ट्रीट यानी वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो के नारे ने सोए आम अमेरिकी को पूंजीवादी ढांचे में कॉर्पोरेट हाउसेस के खिलाफ लामबंद कर दिया। जकोटी पार्क रातोंरात अमेरिका का तहरीर चौक बन गया। ऑस्ट्रेलिया तक आवाज गूंजी। इजराइल की राजधानी तेल अवीव में इतिहास की सबसे बड़ी रैली निकली। साल के अंत तक रूस में भी प्रधानमंत्री व्लादिमीर पुतिन के खिलाफ लोगों का आक्रोश सड़कों पर दिखा। 1917 की मार्क्सवादी क्रांति का गवाह मास्को एक नई क्रांति का गवाह बना। इंग्लैंड हो या फिर फ्रांस, इटली हो या स्पेन, ग्रीस या पुर्तगाल बस एक ही आवाज, एक ही गुस्सा, एक ही नाराजगी। चीन में भी लोग अपने तरह से विरोध जताने में लग गए जहां कि खुल कर बोलना अपराध है। ऐसे में दिल्ली कैसे पीछे रहती। वो हिंदुस्तान जहां पिछले बीस सालों में लोग आंदोलन करने से परहेज करने लगे थे। महाराष्ट्र के बाहर जिस अन्ना हजारे को लोग पहचानते तक नहीं थे वहीं नए गांधीवादी, अहिंसक आंदोलन के हीरो बन गए, पूरे देश का विमर्श बदल गया। भ्रष्टाचार एक राष्ट्रीय मुद्दा हो गया।
भारत में एक धारणा बन गई थी कि नए आर्थिक सुधारों ने पूरी की पूरी एक पीढ़ी को अराजनीतिक कर दिया, एक ऐसा मध्यवर्ग पैदा कर दिया जो अपने में मस्त, अपनी जिंदगी में खुश था, आराम तलब। उसे अपनी नौकरी और अपनी गाड़ी की चिंता है। जो शाम होते ही या तो माल में टहलने निकल पड़ता है या पब के दर्शन के लिए बेताब हो जाता है या फिर फेसबुक पर अपनी भड़ास निकालता है। इस तबके में कुछ बदलाव हो रहे हैं इसके पहले प्रमाण हालांकि 2010 के आखिरी महीनों में मिलने लगे थे जब एक के बाद एक घोटालों से परेशान जनता ने खुलेआम सोशल नेटवर्किग साइट्स पर अपने गुस्से का इजहार करना शुरू कर दिया था। लेकिन जब अन्ना हजारे 5 अप्रैल को जंतरमंतर पर बैठे और लोगों का जनसैलाब उमड़ा तब सरकारों और राजनीतिक दलों के हाथ पैर फूलने लगे, कहीं भारत में तहरीर चौक न बन जाए। सरकार झुकी लोकपाल पर कानून बनाने के लिए तैयार हुई।
ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि अचानक क्या हुआ? सोयी जनता क्यों जाग उठी? क्या ये बदलाव बुनियादी है या फिर पानी का बुलबुला जो वक्त के साथ फट जायेगा और दुनिया फिर अपनी रफ्तार से चलने लगेगी। मेरी नजर में तीन चीजें एक साथ हुईं। एक, टेक्नोलॉजी ने पिछले दस सालों में खासतौर पर कम्यूनिकेशन टेक्नोलॉजी ने जबर्दस्त छलांग लगाई है। फेसबुक और सेलफोन ने पूरी दुनिया को एक नए चौपाल में तब्दील कर दिया है। वर्चुअल चौपाल। वो चौपाल जहां हर तरह के विचारों के आदान प्रदान की खुली आजादी है। विचार से विचार टकराएं तो विचारों का तूफान खड़ा हो गया। एक सार्वभौम सत्य की तलाश शुरू हुई। दो, इस दौरान किसी क्रांति और जनांदोलन के अभाव ने शासक वर्ग में अहंकार भर दिया। उनको लगने लगा कि वो कुछ भी कर सकते हैं। मध्य पूर्व में तो पहले से ही शासक जवाबदेह नहीं थे, दूसरे मुल्कों में भी कमोवेश वही हालात बनने लगे। जॉर्ज बुश इराक पर बिना कारण हमला कर दें और कहीं जुंबिश न हो तो शासकों का हौसला बढ़ता है। पुतिन का हौसला इतना बढ़ा कि संविधान का मजाक उड़ाते हुए दिमित्री मेदवेदेव को कठपुतली राष्ट्रपति बना के सत्ता की कमान अपने हाथ में रखने का दुस्साहस कर बैठे। तीन, दुनिया के ग्लोबल विलेज बनते ही नए तरह का समाज बनने लगा। उसके सरोकार बदलने लगे, उसके मूल्यों में जमीन आसमान का परिवर्तन हुआ, उसकी सोच का दायरा बदला लेकिन सरकारों और शासक पुरानी दुनिया में ही जीते रहे। समाज और सरकार मे मिसमैच हुआ तो घर्षण पैदा हुआ, टकराव के हालात बनने लगे। लोगों ने जब सत्ता को बदलते नहीं देखा तो बगावत कर दी। बगावत को जनसमर्थन मिला, सरकार हिल गई। जैसे प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सत्ता के चरित्र और स्वभाव में बुनियादी बदलाव की जरूरत महसूस की गई थी वैसे एक बार फिर सत्ता के परंपरागत स्वरूप और मिजाज में बदलाव का वक्त आ गया है। भारत जैसे लोकतंत्र में सत्ता में जनता की भागीदारी के नए प्रयोग करने होगे, अमेरिका में सत्ता में कॉरपोरेट के दखल को खत्म करना होगा, रूस में सामंतवादी प्रव्रति को छोड़ समाज को और खुला बनाना होगा, इजराइल को मिलिट्री मानसिकता से बाहर आना पड़ेगा, मध्यपूर्व में लोकतंत्र की स्थापना करनी होगी। तब बौजीजी की आत्मा को शांति मिलेगी।
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